Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 283
________________ १६ मध्यमस्या दादरहस्यं स्त्रण्डः ६ का,११ *मिव धावकेन नियतापनिबोध: * तथा च स्थितमेतत् भवन् सर्व-स्वदेशेषु घटो यत्तिदात्मक: । . भवन सर्व-स्वदेशेषु तद्वदात्मा तदात्मक: १७७॥ इति । स्यादेतत् -> सर्वेषामेव देशानां जीवत्वं यदि यौक्तिकं । एकेकस्थाऽपि देशस्य हतादापतितं तदा ॥७८॥ न वर्तते यत् प्रत्येक समुदायेऽपि नास्ति तत् । ततोऽन्यथोपपत्व पर्यापिरपि नोचिता ||७ein -* जसलता परिणी जीवी न वन्स्यप्रदेवामात्र मति पनि पर। अब 'ग्रामो दग्धः, पटो दयः' इत्यादिन्याचादेकदेशपि समस्तवस्तूगचारदन्त्यप्रदशलक्ष दशपि ममस्तनीयवादः तत्र प्रवर्तत ताई दोष दिशादिप्रदेदो उपचारती जीचं प्रतिपद्यस्व. न्यायस्य समानत्व - दाते ।। (वि. आ.भा.म.बृ.पृ. ४५७. ) ||६|| निष्कर्षमाह- तथा च स्थिनमेतन - प्रदर्शनीन्या प्रमाणरिमिदं बदन । सर्व-स्वदेशेषु = सर्वेषु स्वकीयषु अवयवेषु भवन् = उत्पद्यमानः प्रमीयमाणो वनमानश्च घटो यगत तदात्मकः सकलम्बकीयावयवात्मका भवनि न त कतिपयावयवस्वम्प: तहत = नव सर्व-स्वदेशेप = संपूर्णए स्वकीयप प्रदशप भवन - तनत्ययायारिगुहेगात्पद्यमानः प्रमीयमाणा वर्तमान आत्मा तदात्मकः . अखिल-स्वकीयादशातरक न चन्त्यदशात्मक इति ॥७॥ इत्येवं मित्रश्रीश्रावकातिबोधित: तिघ्यगुप्तः पाचनं प्रपन्नः । नन प्रदशत्वाचनदन जीवत्वं मानादिभिः स्याक्रियते न वा : इति द्विपक्षीराक्षसी प्रत्यक्षायामधान रत्यापन निभिः पद पर शकते स्यादतदिति । प्रथम्प गह- सर्वेषामेव देशानां = स्वप्रदेशानां यदि जीवत्वं गौकिकं तदा एकैकस्याऽपि देशस्य = जीवादशस्य हठात जावत्वं आपतितम् । ततश्च प्रत्येक नित्वात प्रतिजीचं जीवबहुत्व. गर हरव्ययजीवात्मकल्वं या प्रसज्यत । किञ्चवमन्त्यप्रदेशजीवत्ववादोऽपि जन्मनात् । अनी न प्रथमः पक्ष: समचतुरमः ।।८।। द्वितीयपने पर राह यत् प्रत्येकं न वर्ततं तत् समुदायेऽपि नास्ति गधा शुरुणेषु प्रत्येकमसनसमुदाये तैलम् । युपगम्यते चककरिमन प्रदेश नीमन्वं तत्कथं लल्ममुदाय लांकाक नल्यसंन्याकादेशेष जीवत्वं स्यात् । प्रत्येकमवृनिधर्मस्य समुदायबृत्तित्त्वात्यांगादित्यनुपदं त्वयवक्तत्वात । नन्चम्माभिः पर्याप्तिसम्वनन जानत्वं लंकाकादानंदशानामन्यःकजीवप्रदेशेष स्वीक्रियते घटापटयोदित्वसहरव्यवदित्या. का वायां पर आइ । ततः = प्रत्यक जीवप्रदेशेषु जीबवायाकग्ट, अन्यथानुपपत्त्येव = 'कसिंगे पडिपुणों लोगागासपागसतुझे नींचे' इति शासवचनान्यधानुपपत्त्यै च गत्यन्तरविरहेण चयः कल्पनाना पर्यामिः = जापत्यपर्याप्तिः अपि नाचिता । घटपटयां: कर रहे हो ।।७६॥ इस तरह से लेकर ७८ कारिका नक के विचारविमर्श मे यह फलित होता है कि - जैसे अपने अखिल अवयची में रहनेवाला, उत्पन्न होनेवाला घट सकलस्वकीपावनवान्मक होता है, न कि कतिपयस्वावयवात्मक । ठीक वैसे ही अपने निखिल प्रदेशों में रहनेवाली आत्मा भी संपुर्ण स्वकीयप्रदेशस्वरूप ही होती है, न कि अन्त्यप्रदेशात्मक ।।७।। असांस्यपदेशामक आत्मा के एवीकार में दोषोडातज और जिराकरण पूर्वपक्ष :- आप स्यादाटी जीव को संपूर्णस्वप्रदेशात्मक मानते हो , यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि यदि सभी आत्मप्रदेशों में आप जीवत्व का स्वीकार गंगे तब तो प्रत्यक जीवप्रदेश में जीवत्व के स्वीकार में एक एक जीवप्रदेश भी जीर हो जायेगा। नब तो अन्य देश को भी बलात्कार मे जीव मानना होगा। इस स्थिति में तिप्यगुप्त विनयी रन जायेगा ॥८॥ यदि आप स्याद्वादी जीव के प्रत्येक प्रदेश में जीवन का स्वीकार नहीं करोगे तब तो निखिल जीवप्रदेशों में भी जीवत्व का स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि प्रत्येक अंश समदायी = अवयव में न रहनेवाला धर्म ममुदाय में नहीं रहना है। क्या पानी के प्रत्येक बिन्द में घी न होने पर सम्द्र में घी आ जाता है। इस स्थिति में लोकाकाशप्रदेशसमसंख्याक जीवप्रदेशों के समूह में भी जीवत्व नामुमकिन हो जायेगा । यहाँ यह शंका कि → 'आगम में जीवप्रदेशों के संपूर्ण सनुदाप में जीवत्व का प्रतिपादन किया है । उसकी अन्यथा = अन्य प्रकार से अनुपपनि = असंगति होने की वजह हम सकल जीवप्रदेशों में जीवत्व की पर्याप्त मान कर स्वपयांप्तिसम्बन्ध सं वहाँ जीवन्ध का स्वीकार करते हैं' -भी इसलिए निराधार हो जाती है कि प्रत्येक अंश में असत् धर्म उसके समुदाय में नहीं रह सकता है। प्रत्येक घट, पटू में समवाय सम्बन्ध

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