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टारना : नाना अप्राप्यकारिणि चिहात्मनि सर्वगत्वं गौणं न मुख्यमिति तु प्रवदन्ति सन्तः । धते मता भवताऽपि समस्तदेशसंयोगितामपि समुदतसर्वदर्शी ॥६०॥
अपि च → व्यवहारलयो ब्रूते देहमानत्वमात्मनः ।
- जयलता मतमंयोगित्वरक्षणं विभुन्यं न मङ्कुचिनं सर्गुणादेभिस्तम्या सम्बद्धत्वात, अातादिमूर्तद्रगग्नन्तरम्मुकवच । मन परानं ज्ञानिकसम्बन्धेन गचंद्रन्यगणपयांयसम्बद्धवलक्षणं विभवंद व्यापकमिति तंदन गृहाण, मुश्च च कदाग्रहविषम् । न नवं नाङ्गादिभिगम आत्मनः सम्बद्धत्वं कथं न स्यात् ? जान्नायमानत्वलक्षणवैज्ञानिकसम्बधनात्मनः तत्र वृत्ति वाच्यम, तथापि स्वाताकंकालज्ञाननिरूपिनविषयतासम्बन्धनात्मनस्तत्रावृत्नित्वन नधापादनासम्भवात् । न हि यो न खलु = आसत्पदार्थः म महति चिदात्मनि केवलज्ञानम्वरूपे आन्मनि आनसङ्क्रान्तिकः = माहितस्वाकारः = ज्ञानमामग्रयाहिनविषयतामपस्वाकारः सम्भवति । कृतः ? यतः न खल = नव नास्मिन नरडगादौ किञ्चित्प्रमाणं अस्ति । अदी नानिप्रमङ्गकलङ्कपतकालिगम्भवः स्यादादिमझमे तवनि विचारय ॥१५॥
तहि कम्मातारात्मनो विभुत्वानाकरण ग्यादादिगामायासः ? इति गायिकाशनकायां स्याद्वाद्याह्न - अप्राप्यकारिणि स्वसंयोग-स्वसंगनममघायादिना सम्बन्धन विषयदशमगला जातरि चिदात्मनि = झानस्वम आत्मपदार्थ स्वात्मकज्ञाननिमपिनविषयतासम्बन्धन सर्वगत्वं = सर्थिगामित्वं गीणं = उपचरितं न तु मख्यं = अनुपचरितं इति सन्तः = नीर्थकरादय: प्रवदन्ति । तर्हि स्गाद्वादिदर्शनाभ्यपगम नी हि आत्मविभुत्व सिद्धान्तो भज्यत इत्यार पाहादिना सार्क मित्रतया' इति नैयापिकाशकायां स्याद्वाद्याह भवता नयायिकन मतां = स्वीकृतां समस्तदंशसंयोगितां सर्वमूत्तमयोसिल्वलक्षणां अपि विभुता समुद्धतसर्वदशी = समुद्भातचतुर्वसम्यवर्ती कवली धत्ते = बिर्नि अपि इति मा हताशो भव अस्मन्मित्रतया । न चैवमपि सर्वदा सर्वमूर्तद्रव्यसंयोगिवलक्षण विभुत्वं व्याहतमनति बान्यम्, तादृशस्य तस्य तेकदा त्वन्मनप्यसम्भवात् । न हातीतानापन मूनद्रव्यसंयोग एकदात्मनि सम्भवति । जन- सकलमूर्तद्रलासंबोगितावच्छेदकम्पवचलक्षणमेव विभुत्वं त्वया स्वाकर्तव्यम् । तच लोकाकाशप्रदशतुल्यत्वमिति प्रागुपदर्शिनमन मा रमाद्वादिमंत्री परित्यज, यदि कल्याणमिच्छसि ॥६॥
इत्यच म्यादादाऽचिरोधेन आत्मविभुत्वविषये नैयायिक पनि सौहादंमुपददर्य साम्प्रतं नयमन भेदनात्मपरिमाणमावदान • अपि चेति । आत्मनो देहमानत्वं = स्वदहपरिमाणतुल्पपरिमाण इनि व्यवहारनयो लोकिकोपचारचाहुल्याग्निदृष्टिः ब्रूते ।
के विषय होने से केवलज्ञानस्वरूप आत्मा स्वविपयता सम्बन्ध में वस्तुमात्र में सम्बद्ध होने में ज्ञानात्मना आत्मा को हम स्याद्वादी मर्यव्यापी ही मानते हैं। इसलिए स्याहादी के मन का सन्मान करने पर आत्मा के विश्व का अस्वीकार या अपमिद्धान्त दाप की चिन्ता करना है. नैयापिक ! तुम्हारे लिए उचित नहीं है। इसलिए तुम खुद से जैनेन्द्रसिद्धान्त का आदर-सत्कार. स्वीकार का । इसमें तुम्हारा, हमारा, सब का हित है ।।५५॥
→ “यदि आत्मा ज्ञानान्मना सर्वव्यापी है तब आप न्यावादी उसे कायपरिमाण क्यों मानने हैं और उसमें विभुत्व का १ से लेकर ४५ कारिका नक खण्डन क्यों किया ?" - इस शंका के समाधान में सत्पुरुषों की ओर से यह कहा जाता है कि ज्ञान का विषय जो चीज होती है वह संयोगसम्बन्ध से ज्ञानाश्रय में सम्बद्ध नहीं होती है, क्योंकि सूक्ष्म, व्यवहित, अतीत, अनागत आदि सब चीजों से मुंयक्न हो कर चित्तवरूप : ज्ञानस्वरूप आत्मा उनका भान नहीं करती है किन्तु अपनी काया में रह कर ही अपने से असंयुक्त व्यवहित । अतीत आदि विषयों का अवगाहन करती है । इनलिए जानात्मना आत्मा में जो सर्वगतत्व है वह मुख्य नहीं है, किन्तु गौण है। यहाँ नयायिक का यह कथन कि → 'आप आत्मा में ज्ञानान्मना मर्यगतत्व मान कर भी सर्वमतसंयोगिन्यम्वरूप विश्व का स्वीकार तो नहीं ही करने हैं तब आप स्याद्वादी के साथ हम नैयायिक मित्रता कस व सकते है ? हम तो सर्वमूर्तसंयोगित्वस्वरूप विभुत्व का आत्मा में स्वीकार करते हैं? - इसलिए नामुनासिव है कि आप नैयायिक के सम्मन मदेशसंयोगित्वस्वरूप = सर्वमूर्तसंयुक्तस्वरूप विभुत्व का भी समुद्रात अवस्थाचाले सर्वज्ञ - सर्वदशी अवश्य धारण करते हैं . यह तो हम भी मानते ही हैं । इसलिए हम स्याद्वादी से दोस्ती नोडने की जरूरत नहीं है। नोडे से भी टूट ना यह हमारी जाई ! ॥६॥
यहां इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि ज्यादाद अनकन्य के वक्तव्य में सापेक्ष रह कर वातुस्वरूप का प्रतिपादन