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१०६ मध्यमस्पासादरहस्य म्वर ३ का.५१ *कायापा : *
तत्सरावनि दुरध्वनि जातपात: किं कालिकानुपितलोचनगोचरोऽसि । सख्यं भजस्व भगवत्मतमाद्रियस्व स्वीयं हितं रचय ते हितदेशकोऽस्मि ॥१८॥ कलयसि किमिहात्मत्यास्थितच्छेदस्वेदं वयमपि भृशमात्मव्यापकत्वं प्रपन्नाः । न हि महति चिहात्मन्यातसङ्क्रान्तिको यो न खलु न खलु तरिमारित किचित्यमाणम् ||१५||
- जयलावीधरणव न्यायकन्दल्या 'आत्मना दहप्रदेश ज्ञातल्य, नान्यत्र. शरीरस्योपभोगायतनत्वात. अन्यथा नस्य यध्यांत' (न्या.कं.पृ.) इति । ततो वयस्य : प्रतिकूलमेवेदं य न्यभिचारानावनं, त्वयाऽपि तस्य समाधयचात ||७|| ननु मया नयायिकन चन्दनसौरभस्याश्रयाभूताः सूक्ष्मा भागाः तादृशाः स्वीक्रियन्त यं वायुना सुदरमपि यान्ति । ततश्च
= दुर्ग पथि चन्दनसगन्धः जातपातः प्राणदां प्रमः मन अमादादिभिरूपल-पत इति न पूर्वप्रदर्शितन्याप्तिन्यभिचारग्रस्ता इति चत : भा ! नैयायिक : किं त्वं कालिकाकपितली चनगांचराऽसि ! यनल्यं वन प्रचूनः । वायुपनीतसुरभिभागानामन्यत्र गमनस्याकार त्वं सस्यं भजस्व, नदनामस्मत्सम्प्रदायाचार्यण स्याद्वादमश्नयां तदाश्रया हि गन्धादिपवलाः, तपाञ्च वैसिक्या प्रायोगिळ्या वा गत्या गनिमञ्चन तद्पलम्कघ्राणादिदेशं यावदागमनापपनरिति' (अन्य व्य.. स्या.मं..१२८) । 'अस्त्वमाययाः मैत्री क्रिन्चंयपि भवमान्मना:निराकार्यमेव त्वया स्याद्वादिना' इति चत ? अयि ! म नग्धो भव, मंत्रोपलभ्यमानगुणवस्यानन्तरमेव म्बम्पासिद्धत्वमादितं कि विस्मयंत : 'न च बुद्धीच्छादनामतथात गि अदष्टस्य आत्मविषगुणस्र मवंच्यापकत्वं न विरुद्धमिति वाच्यम्, अदृष्ट पा द्गलिकलस्य प्रांगध प्रतिपादितत्वन हेताः स्वरूपःसिद्धत्वमनिर्वायमेव । अन पत्र आत्मा सर्वगतो न भवति सर्वत्र तदगणानपलचरिति भगवन्मनं = जैनदर्शनं चं आद्रियस्व । इत्यं कृत्वा स्वीयं हित = अमिद्धिवाभाटिदोष परिहारं रचय, सत्यं वदामि 'ते = नव हितदेशकोऽस्मि' मा शङ्का कापीः ।।५८।।
नन स्याद्रादिदमानान्युपगम न आत्मविभूत्यग्धिान्तं विलयन इति कथं न: त्ग्या साध मैत्री स्यादित्याशङ्कायां स्याद्वाद नैयायिकमाह किं इह = जनप्र बन्नको लं आत्मनि = बस्मिन आस्थितच्छेदखेदं - प्रतापसिद्धन्नालाप्रहारोग कलयसि = पश्यसि ? खिन्नत्वं जहाहीत्यर्थः । कृतः । इत्याह- वयं याद्वादिनः अपि आत्मव्यापकत्वं = आत्मनः गग्तत्वं भृशं = मुतरां प्रपन्नाः। कथमिति जन : उच्यते दरस्थव्यवहित्स्यूलसूक्ष्मातीनानानतवनमानद्रव्यगुणरायाणं सर्वेषामेव केवल ज्ञानगोचरत्वन ज्ञानम्वरूपम्यात्मनः सन्मककबालज्ञाननिष्पत्रिपयिनानिरूनिविषयतासम्बन्धन सर्वगत्वात् । ल्वया स्वाकृतं
नैयायिक : → "चन्दन के सुरभि सूक्ष्म अश्यर पवन के संचार के मार्ग को, जो अति दुर्गम और दुःसंचार है, प्राप्त कर के सादि की प्राणेन्द्रिय तक पहुंचने पर ही गन्ध की उपलब्धि होती है। अतः अपने आश्रय को छोड़ कर अन्यत्र गुण की उपलब्धि नहीं होती है, यह न्याप्ति अबाधित रही है . ऐसा हम नैयायिक स्वीकार करते हैं। अत: आत्मा में विभुत्व की सिद्धि होने में कोई हरकत नहीं है" -।
जैन :- ओ ! नयायिक ! क्या तुम महाकाली देवी के कुपित लोचन से देखे गये हो ? क्या तुमको यह मालूम नहीं है कि ऐसा तो स्याहारी भी मानत हैं ? नब ना प्याद्वादी के मन में ही तुम्हाग प्रबंश हो जायेगा। ठीक है आप रमा माना और हमसे मैत्री रखो । मगर इस नरह भी आत्मा में विभुत्व की सिद्धि होनेवाली नहीं है, क्योंकि सर्वत्र उपलभ्यमानगुणन्य हेतु आत्मा में नहीं रहने से स्वरूपासिद्धिदास्यरत है. इसलिए 'आत्मा कायपरिमाण द प्रेम जैनमत का ही तुम स्वीकार करा। इसम ही तुम्हाग हिन रहा हुआ है । मैं तुमकां यह सब बात कहता हूँ | तुम्हाग में प्रकरणकार) हितचिन्नक एवं हितोपदेशक है। इसलिए नैयायिक! आत्मा के बारे में जो कुछ जैनदर्शन बनाता है उसका प्रेमपूर्ण तुम स्वीकार करा - यह हमाग उसंदेश है।
जाना(Moll आत्मा विगु है . यातदादी । है नैयायिक ! जनमत का स्वीकार करने पर अपने में आत्माऽविभुत्वस्वीकारात्मक छंद के खेद को क्यों तुम देव रहो हो ? हम म्याद्वाही भी भारमा म निभुल का स्वीकार करते ही हैं। इसका कारण यह है वि. सभी वस्तुओं का कवटतान में प्रतिनिम्न पड़ता है। कंवलज्ञानस्वरूप आत्मा में किसी चीज का प्रतिविम्ब नहीं पड़ता है . ऐमा नहीं है । गवं इन ग्वलु= ) सर्वधा नुच्छ वस्तु नो चिनस्वरूप आत्मा में कभी भी संक्रान्त नहीं होती है । जिसकी मंक्रान्ति = प्रतिबिम्ब केवलज्ञानात्मक आन्मा में अनुपलब्ध हो उमक स्वीकार में दूसरा प्रमाण क्या हो सकता है ? क्या केवलज्ञान से बह कर अन्य कार्ड वस्वान प्राण इस दुनिया में विद्यमान है ? जो केवलज्ञान के अधिपय को अपना विषय बनाये । सभी द्रव्य-गण-पर्याय केवरज्ञान