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का."*म्पाद्वारमार्गकाकासम्मतिताकाकारसवादः
एवं प्रयुजतेऽसिलामा भवति देहयरिमाणः । तमाप्रवृत्तितिजगुणयोमानियमानुरोधेन ।।१४।। तथा च स्तुतिकृत: --> 'यौव यो दृष्टमुणः स तत्र कुम्भादिवनिष्प्रतिपक्षमेतत् । तथापि देहाद बहिरात्मतत्वमतत्त्ववादोपहता: पठन्ति ॥११॥ (अन्य.व्य.e)
-ॐ जरालता *दषद्विपकण्टक इन न्यायन । आत्मायतमतं तु प्रतिक्षेत्र भिन्न' इत्यस्याल्यानं निराकरिष्यन इनि मा त्यग्य ||3|
प्रति आत्मनानात्वराधान्तरक्षार्थमंद्रतमतापवंदाने चालना दहपरिभा गल्लमेनाभ्युपगन्नमहोत नयायिकस्पत्यागन न्यावादी प्राह एवं अम्मिन आत्मविभुल्लपक्ष नानात्मरी कागसम्भव पनि नबानायोगानये प्रामाणिकाः प्रयुञ्जत आत्मा देहपरिमाणो भवनि | तन्मात्रवृत्तिनिजगुणयोगान - देवमात्तिस्वगुणाभिसम्बन्धन 1 कुतः ? या यंत्रच दृष्टगुणः स तव इतिनियमानुरोधेन ॥ ४॥
न चैतन्मूलकामाविरुद्भमित्यादायेन प्रकरणाकर आई - तथा त्र स्तुतिकनः . स्तुतिकारत्वेन प्रसिद्धा मूलतः ॥ श्रीहमचन्द्रमृग्यः अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकायां प्राहः यदुन - यत्रवति -> यत्रैव देश यः = पदार्थः दृष्टगुणः = दृष्टाः प्रत्यक्षादिप्रमाणतोन्नुभूना: गणाः यग्य य तथा म पदार्थः तत्रैव - विवक्षितदश एव. डा. पद्यन इनि क्रिया याहागे गम्यः. पवम्यैवकारस्यावधारणार्थयात्रामसम्बन्धात नत्रः नान्यत्रत्ययोगल्यवच्छतः । अमर्मक दृष्टान्तन दयनि-कुम्भादिवदिति यदिवन । यधः कुम्मादेयत्रैर देशे रूपादयो गण काल बन्तं च तस्याग्नित्वं प्रतायत नान्यत्र । एवमात्मनो १ गुणाः चैतन्यादया दह पर दृश्यन्नं न चहिः । तस्मात् तन्त्रमाण एनामिनि । निष्प्रतिपक्षमतदिति । एतद निष्प्रतिपक्ष - बाधकरहितम, नहि दृष्नुपपन्नं नाम इति न्याबेन । नधापि - एत्रं नि:सपत्नं व्यवस्थित ितचे. अतत्त्ववादोपहताः कृस्तितत्त्ववादन तदभिमनाप्ताभास पविदोपप्रणीतन नामासारूपगारहताः व्यामोहिताः, देहाद् रहिः = शरीरयतिरिक्त पि दशे आत्मतत्वं - आत्मा पठन्ति - शास्त्ररूपतयः प्रणयन्ते - इनि श्रीमणिसरिन्यायालंशः । विस्तरस्नु तत्रत्यः प्रकरणकृता प्रायः सर्व पवात्र पूर्व पद्यत्रणालिकया प्रदर्शितः किञ्चिदनुपदं दयिष्यते च । तथा च स्वदहमात्रच्यापकत्वेन हर्षविषादाद्यनकविवर्तात्मकस्य 'अहं' इति बसंचंदनपत्यक्षरिद्रतादात्मना विभूत्वसाधकवनांपन्यरयमानः सर्व एव हेतुः प्रत्यक्ष. बाधितानन्तरप्रयुक्तत्वन कालात्यवादिष्टः । देवदत्तात्म- देवदनगरीरमात्रब्यापकः तत्रैव व्याज्यापालभ्यभानगुणवान । यो यत्रय ! यात्यापलभ्यमानगणः स नन्गत्रयापकः यथा दबदनम्य गृह पब उपरभ्यमानभाम्वरत्वादिगणः प्रदीपः, देवदनाार एव व्यापागलभ्यमानगणस्तदात्मा इंत । नदाताना हि ज्ञानादयं गगणाः । न च तदह व व्याप्त्योपलभ्यन्त, न परदेह नाप्यन्तगले' (म.त../५.५८२) इति सम्मतिटीकाकारोऽपि व्यनष्ट । विपश्वान पथ उज्य:, दष्टत्वं गावशेषगं हताः प्रामाणिकत्वालाभाय न त हतप्रविष्टम् । तथा चान्मा द्वारानियतनिताक: सीनियनवृनिनाकगणरत्त्यात कुम्भवदिनि लब्धम । नत्र च मान्ये शरीरांनयतपदामाद नमनधक स्वनिताकत्वमा सद्ध्यवामित्वगिद्धः ।
वस्तृतस्तु आत्मा स्वकगंकृतसमनाग्गाहनाक; न्दवन्निभोगवचादित्यत्र तात्पर्यम् । स्वकर्मकृतत्वञ्च स्वर्गनिम्
ब्रह्माद्वैतवादी चेदान्ती के निगकरणार्थ गवं नानात्मनान के उगपादनार्थ यही स्वीकार करना नैयायिक के लिये उचित है कि आत्मा देहपरिमाण है । यहाँ पुर्व जैनाचार्यों में मवर प्रमाण भी पेश किया है कि • आत्मा शगरपरिमाणवाली है, क्योंकि केवल शरीर में दी जान, इछा आदि की पानता होती है. जैसे कि घट । यह एक नियम है कि. जिसके गुण की उपलब्धि पावन्माउंगामचंदन हानी है. सायन्मात्र ही उसका परिमाण होता है । कन्दगीवादिनस्थानविशिष्ट में ही बट के गुण की उपलब्धि होने में घट का परिमाण उतना ही होता है । अन्यथा घट, पर आदि भी आत्मा की भाँति व्यापक । हो जायग ||
असोत त्रातात्रिीशुकासंवाद यहीं ना बात कही गई है वह मूलकार श्रीकलिकालसर्वत के भाशय के विरुद्ध भी नहीं है, क्योंकि स्तनिकाररूप में प्रसिद्धि पानवाले मूलकारधी ने ही अन्ययोगव्यवनलंद द्वात्रिंगिका की नवम कारिका में कहा है कि. . जिसक गुण की जहाँ उपलब्धि होती है. यह पटाथ वहाँ ही होता है-यह वान बिना विरोध के सिद्ध है। जैसे घटादि के रूप. म, गन्ध, स्पर्श आदि गुण जहां उपलब्ध होते हैं वहाँ हा पर आदि विद्यमान होता है, ठीक चा ही आत्मा के ज्ञानादि गुणों की अधि शरीर में ही होने से जान्मा मगरप्रमाण ही है। फिर भी अतत्त्ववाद से जिसकी द्धि विकृत हो गई है मे नयायिक आदि आत्मतत्त्व को देह के बाहर भी सर्वव्यापकविषया) बताते हैं, स्वीकार करते हैं ।। | मूनवारश्री के उन कपन ग भी दहपरिमाणवान आत्मा का समर्थन हाना छ ।