Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 257
________________ - - -- '४५ = मध्यमल्याद्वादरहस्ये खण्डः ३ का..? * यं गदागंगद * परे पुनः पाहुरिदं वचस्वितो तो संस्किया जातु विनात्मवैभवम् । धृतावघातोचितवतिरात्मनो न गोरखादन्यगता तु कल्प्यते ॥३२॥ * जयलाता नतो नायंचलनाचनुरोधेन नैयापिकान्तरीत्या त्मवैभवसिद्धिः । एतेन नोदनाभिधात्वगत्यत्वगुम्ल्वप्रयत्नादटानां नोदनत्वाभिवानत्वादिभिः प्रत्यकरूप: क्रिमालावछिन्न प्रति कारणत्वं न सम्भवति, अनकंपा तधामककार्य प्रति यत्र प्रानिमिकरूपेण कारगना नत्रककाग्णविन्हे पि कारणान्नण कार्योत्पत्ततिरकन्यभिचारादिनि क्रियायां वंजात्यं कल्पयित्वा ननविजातीयक्रियावारभिन्न पनि नोदनवादिना कारणल कल्पनीयं ग्यादित्यनककार्यकारणभावप्रसक्त्या गाग्वम् । त्दपक्षया नादनादानां गुणवज्याप्येकजातिरूपण क्रियान्वायदिन प्रति तत्वकल्पनमंच लाघवान्न्यायम । तथा च बदम्ज्व लनपि क्रियात्वरूपकायंता. वच्छेदकाकान्तम् । न च तब नोदनाद्येकनपि दृष्ट कारणमनुभूयत इत्यदृष्टमेव गुणत्वव्याप्य नातिरूपण कारणगङ्गीकार्यम् । नम्य । | समवागनीध्वंज्वलनाधिकरतो वहीं स्वाश्रयसयोगेनर नित्वमात्मनो विभूत्वमन्तरेग न सम्भवतीति नसिद्धिरित्यपि परास्तम्, गुणसाक्षात्कारजनकतावादिन्या रग़ इकर्येण तवाहनुत्वाऽसिद्धः । यदि चादृष्टहेतुत्व एवाग्रहस्नत्र तब तदास्तु कार्यसामान्यजनकतावच्छंदकसम्बन्धन तन । न हि गोपि स्वाश्रमसंयोग एव, आकाशगतान्दा ज्याप्तः, अजसंयोगनिषधन परेरास्माकाशमयांगस्यानभ्युपगमान, कालाकाशदिशामिवादृष्टस्यापि कार्यसामान्यजनकतावच्छंदकसम्बन्धस्यानिरिक्तस्यैव सिद्भः । परम्परया अदष्टस्य गगनसम्बद्धत्वकल्पने पृधनकारणताकल्पनागौरवात । अत एव योगशास्त्रे 'न ज्वलत्यनलस्तिर्यग यदृचै बाति नानिलः | अचिन्त्यमहिमा नत्र धर्म एव निवन्धनम || (४/९७) इति श्रीहम्चन्द्रसूरिक्तमपि व्यारत्र्यातम् ।। वस्तुताउनलानिलयोर्गतिवसनामकर्मोदयात्मकम्वादविशेषण साक्षादेव क्रियाजननं न तु देवदत्ताउदष्टविशेषगति न कार. प्यनुपपत्तिः । अत एव तयारनन्यप्रतिगतिमत्त्वेन मचिनत्वं नत्र तत्र प्रसिद्धम । नच जीवविग्रामस्नगस्टयाव्यभिचार इति शङ्कायम. यदाकदाचिजाववत्तस्य साध्यस्य चियक्षिनत्वेन तन्ग्रन्यवात : नहाया क्रियावत्वच प्रयांगाहितबगबशादित्यादि विभावनीयम ॥३क्षा ___प्रकरणकार आत्मविभुन्यबादिना 'परेषां मतं नानिमकारकपः यः - गरे पुगे पविनः = बाचा; इदं अनपदं वक्ष्यमाणं प्राहा नधाहे आत्मवैभवं विना संस्क्रिया = ब्रीह्यबहननजन्यसंस्कारी न जातु = कदाचिन उपपद्यते । न चावघातक्रिययात्राहावेव संस्कार उत्पद्यतां तंत्रंब समवायन भबघाक्रियायाः सन्चात् इति वाच्यम, ब्रीहीणामनेकत्वेन तत्र नानासंस्कारांपादकल्पने गौरवात् आत्मनोऽन्यगता = आत्मभिन्नवीहिसमवेता संस्क्रिया तु न कल्प्यते - नानुमीयते । अत | आत्मन एब धृतावघातोचितवृत्तिः = प्राप्तावघात-क्रियान्वृित्तितानिरूपिताधिकरणताकत्वं अनुमीयते । समवायेन त्रीहिनिष्टानहन्नक्रिया समकागिसंयोगसम्बन्धेनात्मनि वर्तते । अतस्तत्रात्मन्येव समवायन संस्कार उत्पद्यते । एतेन कार्यकारगयोयधिकरण्पमपि प्रत्युक्तम्, नानासंस्कारोत्पादा-कल्पनेन लाघवाच । कायपरिमाणस्यात्मनो दूरस्थत्रीहिसंयुक्तत्वविरहण संस्कारानत्पनिप्रसङ्ग इत्यत आत्मवैभवसिद्धिरिति पराशयः ॥३॥ वह स्वयं ही द्वयणुक को उत्पन्न करने में समर्थ है। परमाणु जैसे व्यणुक की उत्पत्ति में समर्थ है ठीक वैसे ही अनि भी अपने उज्वलन आदि में समर्थ है। अतः मृत्पिण्ड की तरह वह अन्य किसीकी अपेक्षा नहीं रखेगी । तब अदृष्ट में कारणता का आविर्भावन करना निरर्थक ही है। अत: अदृष्टनिष्ठ स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्न कारणता पर निर्भर आत्मवैभव भी धराशायी हो जाता है ||३१|| - अवधारविचार कुछ गाचाट लोगों का यह कथन है कि -- 'यज्ञ में त्रीहिकर्मक अपहनन क्रिया से जो संस्कार उत्पन होता है वह आत्मा को विभ माने बिना संगत नहीं हो सकता है। मतलब यह है कि ब्रीहि के अवयात = ताइनविशेष से ब्रीहि में संस्कार की उत्पत्ति मानने में गौरव है । अतः यही मानना होगा कि आत्मा ही अपघातयोग्य वृनि को धारण करती है। मगर ताइन क्रिया व्रीहि में होने से संस्कार की उत्पति आत्मा में मानने पर वैयधिकरण्य दोप प्राप्त होता है । उसके निराकरणार्घ यही मानना होगा कि जहाँ अवघात क्रिया हो रही है वहाँ भी आत्मा का अस्तित्व है । तब अवच्छेदकतासम्बन्ध में आत्मा में भी अवघात क्रिया रह जाने से आत्मा में संस्कार की उत्पत्ति हो सकती है । इस तरह शरीर के बाहर भी आत्मा के अस्तित्व को मान्य करना होगा । अपातक्रियाजन्य संस्कार के अनुरोध से शरीर के बाहर आत्मास्तित्व सिद्ध होने पर तो अनायास ही आत्मविभपरिमाण सिद्ध हो जायेगा' -॥२॥ .

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