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* अवघातस्य संस्कारजनकानीकारः *
अनुकुरुते ऽनभ्युपगमविधुरितवाचाटवचनविन्यासम् ।
अत्रोत्तरम् तदिदं गुर्जरनारीकुचयोर्निष्कचुकीकरणम् ||३३|| अपि चेयमहो परम्पराहितसम्बन्धमपेक्ष्य लाघवात् । सकलाश्रयनाशनाशभाग् निखिलव्रीहिगतैव युज्यते ||३४||
ॐ जयलता
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५२.१
अन स्याद्वादिनः प्रतिविधानम् → तदिदं अनुपदोक्तं अनभ्युपगमविधुरितवाचाटवचनविन्यासं गुर्जरतारीकुचयोः निष्कचुकीकरणं अनुकुरुते । यथा परेणानाहूताऽपि गुर्जरनारी स्वाभिलपितसिद्धिकते आत्मनः स्तनद्वय पाटीद्घाटनानन्तरं | परेणानङ्गीकृता निष्फलकामा विल्लीभवति तथा स्याद्वादसदसि अनाहूता अपि परे वमनीपतात्मभवसिद्धये अवघातजन्यसंस्का रानुपपत्तिगृह्मप्रकटनानन्तरं स्याद्धादिना सन्मानितमनीकृतं संस्कारनिष्ठावघातजन्यत्वमवगत्य निरस्तमनोरथा विभवन्ति । | न हि प्रतिवादिना पदनभ्युपपदेनमति, अतिप्रसङ्गादिति स्याद्वादिनोऽभिप्रायः ||३३|| वस्तुतः स्याद्वादिभिः तानविशेष एवाऽवघातपदार्थ: स्वीक्रियते न तु संस्कारजनकनाउन व्यापारविशेषः । तथापि प्रौढिवादन परोक्तनिराकरणार्थमुपक्रमत प्रकरणकारः कारिकाद्भयेन अपि च किञ्च समवायेन संस्कारीपदी त्राही स्त्रांक्रिपदा तत्कारणतावच्छेदकसम्बन्धः समवायः आत्मनि तदङ्गीकारे तु स्वमत्राविसंयोगस्य तथात्वमिति कारणतावच्छेदकसम्बन्धगौरवम् । अतो लाघवात् निखिलीडिंगतैव इयं वातजन्य संस्क्रिया युज्यते स्वीकर्तुम् । न त्वकत्रीहिसमवेता नवान्भरामवता । एवञ्च निखित्रीहिसमवेता संस्क्रिया सकलाश्रयनाशनाशभाग भवति स्वरूपेण संस्कारनाशं प्रति प्रतियोगि नया स्वाश्रयनाशस्य कारणत्वात् । यदि चैकस्मिन्नात्मनि संस्क्रिया समवेता स्वीक्रियते तर्हि निखिल ब्रीहिनाशस्य स्वप्नतियोगिसंयोगसम्बन्धेन तन्नाशकत्वमङ्गरिकर्तव्यं स्यादिति नाशकतावच्छेदकसम्बन्धगौरवमपि । अपि च सर्वेषामेवात्मनां विभुत्वपक्षे ब्रीहिसंयुक्तत्याचेच निष्ठसंस्कारनादी त्रीयन्तरावचातजन्या मैादिता संस्क्रिय नश्येत । एतेन स्वप्रतियोगिसंयुक्तसमवेतत्व- स्वप्रतियोगिसमवेतावद्यातजन्यत्वोभयसम्बन्धेन निखिलव्रीहिनाशस्य प्रतियोगिता संस्कारनाशं प्रति कारणत्वमित्यपि प्रत्युक्तम्. गौरवात् । किचात्मवित्वपक्षे श्रीह्मवघातेन स्वसमवायिसंयोगसम्बन्धेन सर्वेष्वात्मसु संस्क्रियामा उत्पत्तिरनिराकार्येव सम्बन्धान्तरकल्पनेच गीरयम् । ततो निखिलग्रीहिंगतेय संस्क्रिया स्वीकर्तुमर्हति । न चैकी हिंसमवेतत्वमेव संस्कारस्याऽस्त्विति वाच्यम् विनिगमनाविरहेण
मगर इसके समाधानार्थ कहा जा सकता है कि हम त्रीहि में अवघातक्रिया से संस्कार की उत्पत्ति को ही नहीं मानने हैं । जब उसकी उत्पत्ति ही स्वाद्वादी को अमान्य है तब 'उसकी उत्पत्ति व्रीहि में नहीं बल्कि आत्मा में होती है'यह मुखरपुरुष का वचनविन्यास विधुरित विह्वल हो जाता है। जब गुर्जर नारी अपने दोनों स्तनों को प्रकट करती हो और सामनेवाला पुरुष उसका स्वीकार न करे तब वह गुर्जर स्त्री जैसे विल बन जाती है ठीक वैसे ही अपने गुप्तसिद्धान्त को जब नैयायिक उपर्युक्त रीति से प्रकट करते हैं और हम उसका अस्वीकार करते हैं तब वे भी विश्वल बन जाते हैं । प्रतिवादी जिसका स्वीकार ही नहीं करता है उसके बल पर प्रतिवादी के सामने कैसे अपने अभिमत पदार्थ की, जो प्रतिवादी को अनिष्ट है, सिद्धि बादी कर सकेगा ? तर वादी विवश ही बन जाता है यह तो स्पष्ट बात है ||३३||
व्रीह्नि में अवघात क्रिया से स्याद्वादी संस्कार की उत्पत्ति वास्तव में मान्य नहीं करते हैं। फिर भी अभ्युपगमवाद से उसका स्वीकार कर लिया जाय तब भी सरकार की उत्पत्ति सब व्रीहि में ही माननी युक्त है, न कि आत्मा में । इसका कारण यह है कि अवघातक्रिया साक्षात् = समवाय सम्बन्ध से क्रीहि में ही रहती है, न कि आत्मा में आत्मा में तो वह स्वसमवायिसंयोगसम्बन्ध से रहती है, जो परम्परा सम्बन्ध है । इसके स्वीकार में कारणतावच्छेदक सम्बन्ध में गौरव होता हैं। इसकी अपेक्षा लाघत्र से समवाय को ही संस्कारनिरूपित कारणता का अवच्छेदक सम्बन्ध मानना मुनासिब है । समवाय सम्बन्ध से अवइनन क्रिया (= ताइनक्रियाविशेष) व्रीहि में होने से त्रीहि में ही समवाय सम्बन्ध से संस्कार उत्पन्न होगा । जीहि में संस्कार उत्पन्न होने से संस्कार का नाश भी सकलजीहिनाश से ही हो जायगा। संस्कार को आत्मसमवेत मानने पर तो परम्परासम्बन्ध से सकलत्रीहिनाश को आत्मा में रख कर उसे संस्कारनाशक मानने की क्लिष्ट कल्पना करनी पड़ेगी, जिसमें गौरव है । वह परम्परासंबन्ध होगा स्वप्रतियोगिसंयोग । स्व = सकलब्रीहिनाश के प्रतियोगी निखिलव्रीहि से संयुक्त आत्मा में अखिलजीहिनाश स्वप्रतियोगिसंयोगसम्बन्ध से रह कर आत्मा में संस्कारनाश उत्पन्न करेगा । इसकी अपेक्षा लाघन से सकलत्रीहिनाश को प्रतियोगिता सम्बन्ध से ही जीहिसमवेत संस्कार का नाशक मानना मुनासिब है। संस्कार का आश्रय एवं सकलब्रीहिनाश का प्रतियोगिविधया आश्रय सकल व्रीहि होने से नाश्यनाशकभाव की संगति हो सकती है । इस तरह
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