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* आकर्षणम्य गानित्यानाकार: उत्क्षेपणत्वादिकजातिसइकरादाकर्षणत्वं च न जातिरीक्ष्यते । व्योमादिना संयुतिरस्ति चान्तत: संकल्पितव्याप्तिहतिर्न वा तत: 1001
- गवलता *भारणत्वकल्पने नानाकार्यर भिवप्रसङ्गः । अत आकर्षणत्वावच्छिन्नं प्रति कृत्यदृष्टादीनां गुगत्यच्याप्येकजात्या हेतुत्वं लाघवाकल्यते । तथा चायस्कान्ताकर्षणम्यागि कार्यताबन्छन्दकाक्रान्तत्वन कृत्यादिविहात्तत्रादृष्टमंच गुणत्वव्याप्यजातिरूपेण कारणमहागाकार्यम । तस्य च समबानाकर्षणाधिकरण यस्कान्ते साम्पाश्रयसंयोगनच । नमात्मनो विभुत्वमन्तरण न सम्भवतीत्यात्मनी विभुत्वसिद्धिरित्याशङ्कायां म्याद्रादी ग्राह-न च कृत्यदृष्टादिजन्यताबन्छेदकं आकर्षणत्वं जातिरीक्ष्यते = जानित्वन कल्पयितुं दशश्यम्, उत्क्षपणत्वादिकजातिसकरात् । स्वयं अनलाक्षेपणे आकर्षणत्वं नास्ति, उत्क्षेपणत्वं चास्ति. पर्णस्याध आकर्षणक्रियायामाकर्षणत्वमस्ति, उत्क्षेपणत्वं वास्ति ! प्रस्तगतरूवमाकर्षण त्वाकर्षणत्यमुत्क्षेपणत्व स्न इत्यत्क्षेपणल्वेन साइकर्यमाकर्षणस्वस्य । एबमबक्षेपण नापिना सममपि नल्याइकर मोटा । तप कर्षणत्वावच्छिन्नं प्रति कृत्यदष्टादीनां गणल्यव्यायचजात्यन कारणत्तसम्भवः ।
किञ्च गुणसाक्षात्कार जनकतावच्छदिकया जात्या साङ्गकर्येण कृत्यदृष्टादीनां गुणलव्याप्पजातिविशेषरूपेण तत्कारगत्वमपि न सम्भवति । तथाहि गुणसाक्षात्कारं प्रत्यदृष्ट-भावना-गुरुत्व. स्थितिस्थापकसंस्काभिन्नगुणानां विषयविधया कारणत्वे तत्रा:प्युन. रीत्या रूपतादिना प्रत्यकम्पण कारणत्वे व्यतिरेकन्यभिचाराद योग्यगणगतेन गुणत्वव्याप्यकंजात्या कारणत्वनदानीकर्तव्यम् । तथा च गुणमाक्षात्कारजनकतावच्छेदकजाति बिहाया दुष्टे वर्तमानस्याकर्षणकारणतावच्छेदकबजात्यस्य भाकर्षणजन्यतावच्छेदकबंजान्यं परित्यज्य रसादी वर्तमानस्य गणसाक्षात्कारकारणतावच्छन्दवजात्यस्य च कृत्यादी सन्चन साहकर्यान्न कृत्यदृष्टादीनां गणत्यव्यायकवजात्यन हेतुत्यसम्भव उत्पावधेयम ।
न वा आत्मनो व्यांमाटिना साध संयतिः = संयोगः अस्ति, अजसंयोगानपंधन पर कादयात्मसंयोगस्यानभ्युपगमात तथा नाकाशसमवेतशब्द व्यभिचार:, शब्दस्याष्टकार्यमामान्यान्तर्गतम्य ममवयनाश्रये गगने स्वाश्रयसंयोगेना-दुष्टस्याःसन्नात् । ततोऽन्ततो गत्वा नैयायिकः सङ्कल्पितव्यातिहतिः समवेतकार्यमा प्रत्यदृष्टस्य कारणवनिश्चम नयायिकोपकल्पितः स्वमंगप| सरतीति न तन्मूलात्मनो विभुत्वरिद्विरिति स्याद्वादिनोऽभिप्रायः ॥१०॥
इसके अतिरिक्त बात यह है कि आकर्पणत्वावच्छिन्न के प्रति भी अदृष्ट को कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि आकर्पणत्व जाति ही नहीं है। इसका कारण यह है कि आकर्षणत्व का उन्क्षेपणत्व भादि के साथ सांकर्य होता है। वह इस तरह . स्वयं ऊर्ध्वगामी अमि की उन्क्षेपण क्रिया में उन्क्षेपणत्व है मगर आकर्षणत्व नहीं है । पेड़ के पत्ते को नीचे की ओर खींचने पर उस क्रिया में आकर्षणन्त्र रहता है मगर उन्क्षेपणव रहता नहीं है। इस तरह उत्क्षपणत्व और आकर्षणत्व परस्पर न्यधिकरण धर्म सिद्ध होते हैं। फिर भी पत्थर आदि को नीचे से उर्ध्व दिशा की ओर खींचने पर उस क्रिया में उन्क्षेपणत्व और आकर्षणत्व दोनों ही रहते हैं । परस्पर व्यर्थिकरण धर्मों का एक अधिकरण में समावेश होने पर दार्शनिक जगत में सांकर्य का व्यवहार होता है, जो नाति का गधक है । अतः आकर्षणत्व को जाति नहीं मानी जा सकती । अत्तएन 'आकर्षणत्वनामक गति से अपच्छिन के प्रति अदृष्ट निमित्तकारण है' . पह नैयायिकनियम अमिद्ध हो जाता है।
*शहद के प्रति अटकारणता व्यभिचारग्रस्त - स्यादादी* यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि समवतकार्यमात्र के प्रति अदृष्ट को स्वाश्रयसयोगसम्बन्ध से कारण मानने पर शन्दोत्पत्ति में व्यतिरेक व्यभिचार भी प्रसक्त होता है। इसका कारण यह है कि नैयायिक विद्वानों ने विभु द्रव्यों के संयोग का निषेध किया है, क्योंकि 'अप्रामयोः प्राप्ति।' यह संयोगलक्षण रहाँ नहीं रहता है। अतएव अदृष्ट भी स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से गगन में नहीं रह सकता है। फिर भी समवाय सम्बन्ध में शब्द की उत्पति गगन में होती है यह तो नैयायिक को मम्मत है। कार्यतावच्छेदक सम्बन्ध से कार्य के अश्किरण में कारणनारच्छेदकसम्बन्ध से कारण के नहीं होने पर भी यहाँ कार्य की उत्पनि का होना ही तो न्यतिरक व्यभिचार दोष है। इस तरह अदृष्टकारणता व्यतिरेकभिचारग्रस्त होने पर नैयायिकों से संकल्पित व्याप्ति को = समवेतकार्य के प्रति अदृष्टकारणता के नियम को अन्ततो गत्वा न्याहत बनने के लिये विवश बनना पड़ता है। तब अदृष्ट में समवतकार्यत्वावच्छिचकार्यतानिरूपित स्वाभयमयांगसम्बन्धावच्छिन कारणता के बल पर जो विभुत्वसिद्धि नैयायिक को अभिमत थी यह सिद्ध हो मकती नहीं है। अतः आत्मा को कायपरिमाणवाली मानना ही युक्त है-यह हम स्यावादियों
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