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*सात्मवानिमजद:* ज्ञानस्याव्यासवृतित्वं नवमित्या लाघवम् । न वा तदनुरोधेनाऽनन्तहेतुत्वकलाता 1891 व्यभिचारि समुदधाते तनुमानत्वमस्ति चेत् ? जैवं तत्रापि सूक्ष्मागसद्भावादिति भावय ॥४८॥
---- - जयला 43धन्य कल्पनालापत्रम. ज्ञानारायच्याग्यनित्वाकल्पनादित्यागयेन स्याद्वादी प्राह ज्ञानस्य उपलनपटान इनष्ठा प्रयत्न सुखादे नयायिकनय यदयकल्पनीयं अव्याप्ववृत्तिन्वं नवं पर्शिनरीत्या अत्र = आत्मनाऽविभुत्वे कम्पनी इनि स्यादादिनये लाघवम ।
किवात्मना विभल अवच्छेदकलासम्बन्धन ज्ञानादी शगंगदर्गप नादान हेतुत्वं कल्पनामिति गौरबम ! दारोगानन्वनय तु नैयं कल्पनामिति लावमिन्याशायनानग़धमाह - न वा तदनुरोधेन = नानादेशव्याप्यनित्यानुरोधेन अनन्तहतुत्वकल्पना स्याद्रादिनये सावश्यकी । नन परनय कथं नदानन्त्यकल्पनामनि चन १ उच्यते, आत्मनी विभूले स्वकीययाः आत्ममनसाः संयोगात स्वशरीरावच्छेदनात्मविषगुणोपनिदझाया परकीयमगरव्यवच्छंदकतासम्बन्धन तदत्पनिवारणाय नछरीरविशिष्टावछेदकतासम्बन्धनात्मविशेषगणपसिएन नि तात्न. नरीमन कारणता वाच्या । नागरं च नेत्रवादिजातिविशेषण ग्राह्य तथा विशेषमागविरहादव तदानीं नादशपम्मागरे आत्मविशेषगणमामान्यांन्पादापन्यसम्भवः स्वात्मसमवेतज्ञानाद: स्वासरावग्हायर सम्भवादवले दकनया नदयनी न तादालयन स्वगर्गरस्यैव हेचान पगत्मसमवेतझानादश्च परदार आपादनम्पवासामधान, रागवायसम्बनमोनोत्पत्ति बिनायवेदकलामम्बन्धनपत्तिविहादिति ननन्गरम्य विदिपध्य हतत्वकलानायां महागीमा मिच सुषुप्त्युपधायकात्ममनःपूर्वसंयोगना झोन्पादकाले तदनां च मुनिकाले आत्ममनोविभागक्षणात्पन्नविशेषगडानादिनः ज्ञानाद्युत्गदप्रसङ्गस्य दुवारत्त्वम, तदानामप्यात्मनि पुरुपान्तरीयमानःपयोगमत्वात् । न च ननन्मनःसंयोगत्वेन लेनदात्मसमबनान्म - विदोपगुगलेन हेतु-हेतुमध्यावानापं दोप इनि बान्यम्, आत्मना विभुतायां स्वशरीग़वच्छेदन स्वात्मनि स्वीयमानःसंगांगात्पत्चिदशामा स्वर्गगवच्छंदन गुरुपान्तरमात्म-प स्वीचमनःसंयोगात्पन्या पुरुषान्तरयात्मन्यपि स्वामियमचंतामविशेषगणांत्यादप्रमगात । न च ननदात्मविशेषगुणत्वावच्छित्र प्रति नदात्मत्वना:पि समचाथिकारणत्वान्नायमनिप्रसङ्ग इति वाच्यम्, प्रत्येकात्मस्थल पण कार्यकारणभावदयापनी महागास्वात् । सर्गररिनाणत्वनये न मानान्यन एव समवान ज्ञानादः स्वजन्योपयोगच्यापारसम्बन्धन मन:रांगोगत्वक रात्र त हेतुमदार इनि लाघवम् । अस्तु वा सुपमिल्यावृत्तमन:संयोगविशेपवन मामान्यता हेतुना नधाप्युक्तगौरविरहान् । गान्मवैभवादकत्र गन:गयोगशिपंत्यादयात्मन्यन्यत्रा वर्जनीयहतकतया नतापनगतानन्तकार्यकारणभावकल्पनागौवं दारिद्वारगन । तिन ननदात्मत्वविदिशटसमबागन नसदात्मानयत्वोपनियागाजिनाधारताविटापसम्बन्धन नाऽऽत्मविशेषगणवाछिन्नं प्रनि तन्त्र सम्बन्धेन ननन्ननःसंयोगवन कार्यमहभितया हेतुत्पनियपि निम्स्तम्. मधानमंट नानन्तहेन-हेतु गावस्य दुवारत्यादित्यधिकं आत्मस्ख्याती दृश्यम् ।।४।।
___ ननु आत्मनः तनुमानत्यं -- शर्गरपरिमाणत्वं ममुद्धाते - फेवलिमन्द्राने व्यभिचारि अस्ति इति चेत ? नैचम्, नत्र | किया जा सकता । मगर वस्तुस्थिति यह है कि ज्ञान का उत्पाद शरीर में अन्यत्र नहीं होता है। इसकी संगति के लिए नैयायिक मनीपी जान आदि को अव्याप्यवृत्ति = स्वाभारसमानाधिकरण मानता है । मतलब कि वागरावच्छं देन आत्मा में ज्ञान || आदि रहते हैं और घटादिअपच्छेदेन आत्मा में समवाय समन्ध से नहीं रहने नहीं हैं। इस तरह ज्ञान आदि में अन्यान्यनिना की कल्पना का गीग्य नगायिकमन में आवश्यक है। मगर आत्मा को शरीपरिमाणवाली मानन पर ज्ञानादि में अन्यायनिता - स्वाभावसामानाधिकरण्य की कल्पना का गॉग्य अनावश्यक है, क्योंकि, संपूर्ण आत्मा में मुख, ज्ञान आदि की उत्पत्ति का अनुभव होता है जैसे 'साङ्गीग मुखं अनुभनं मया इत्यादि प्रतीति तो गजनप्रसिद्ध है । आत्मा शरीर से अन्यत्र नहीं रहने से ज्ञान, मुख आदि में अन्यायनिता की कल्पना आवश्यक नहीं है। अनः दारीपग्मिाणली आत्मा का स्वीकार करने में लाघव है । दुर्ग बात यह है कि आत्मा को सर्वगन भानन पर जैत अपने वारीर के साथ उसका सम्बन्ध होता है उसी प्रकार अन्य इज्यों के साथ भी उसका सम्बन्ध होना है। अतः अपने शरीर को छोड कर अन्य शरीरावदेन भी आत्मा में ज्ञानादि की उत्पनि की आरनि भायंगी, जिमको हटाने के लिए नयायिक का यही कहना पडगा कि . 'अवच्छंदकतासम्बन्ध में नत्तन आत्मा के ज्ञानादि के पनि नादात्म्यसम्बन्ध में नत्तन आत्मा का शरीर कारण होता है। इस तरह विशेषरूप से कारणता का स्वीकार करन पर फलतः अनन्त कार्यकारणभाव की आपनि आयगी। मगर आत्मा को देहपरिमाणवाली मानने पर इम अनन्न कार्यकारणभाव की समस्या को अवकाश नहीं रहता है, क्योंकि तब ज्ञानाति के प्रति वियोपरूप में शरीर में काग्णता का स्वीकार अनावश्यक है। अन: आत्मा को शरीरमाण मानने में ही राघय है. यह फलित होता है ॥४॥
गुदा विचाराम यहाँ नयायिक की और में स्वाहाटी के प्रति यह आप किया जाय कि -> "आत्मा को शरीरप्रमाण नहीं मानी