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- मध्यमरपाद्वादरहस्य खण्टुः 3 . का.५५ वान्दोग्योपनिषदारिमनिरासः * कश्चितु → भवतो विशुनस्तथात्मनो बल नानात्वमयुक्तमीक्ष्यते । नियतं यदुपाधिगामिनी भवति व्योम्न इव व्यवस्थिति: ॥४॥ तथाहि
-* जयलता = केबलिसमुद्रातादी अपि स्वशरीरबहिःस्थात्मप्रदेशेषु सूक्ष्मागसद्भावात् कार्मणकाययोगादिलक्षणानीन्द्रियशरीरस्य विद्यमानत्वात् ।। समुद्राती हि स्वशरीरमविहायात्मप्रदेशानां प्रयोजनविशेषेण वदनाविशेषादिना वा बहिःनिःसरणमुच्यते । बहिनिर्गतात्मादेषु औदारिकादिकायविरह-पि कार्मणादिसरीरमस्तोत । अली नाभिरि कामामत्वमात्मनः । अस्माकमनकान्तबादिनां समुद्धातातिरिकस्थरते. शरीरस्य विशिष्य हेतुत्वाकल्पनालाघवम्. आत्मनः शरीरपरिगाणत्वेनैवानतिप्रसङ्गात । वस्तुतः संमार्यात्मपरिमाणे शरीरनामकर्मपरिणतिविशेषः सिद्धात्मपरिमाणे च चरमभवीपत्रिभागहीनानगाहनापरिणामी योगनिरोधजनिती तुरित्यादिक व्यक्तमेव आत्मख्याती। तदुक्तं न्यायखण्डखाये प्रकरणकृतंत्र ‘स आत्मा इह जगति लंकामननदशो लोकाकाशप्रदेशसमसारख्यप्रदेश इति कृत्वा शक्त्या विभुः । न हि सकलमूर्नद्रव्यसंयोगित्वं विभुत्वं परेषामध्येकदा सम्भवति अनीतानागतसंयोगानां युगपदभावात् किन्तु तदवच्छेदकरूपतत्त्वम् । तत्र लोकतुल्यप्रदेशत्यमिने शक्त्या आत्मनो विभुत्वाविरोधः व्यक्त्या तु कर्म गा कृतं यन | सौयं = स्वकीयं शरीरं तन्मानस्तावमात्र इत्यविभुरेव' (न्या.ख.खा.गा. ७.प्र.४५६) इति ।
वस्तुन आत्मनि विभुत्वनत्र सकलमूर्नद्रव्यसंयोगत्वरूप नैयायिकादिमतमनुरुध्योक्तम् । स्वनयन ताचिकं विभुत्वं लोकालोकव्यापिन्याकाशे एव न त्वन्यत्रेति ध्येयम् । एतेन ‘ज्यायानन्तरिक्षात्' (छा.उप.३/०४/३) इति छान्दोग्योपनिषदचन्ना, तथा 'ज्यायानाकानात' (श्त.डा. १०/६/३/२) इति शनपथब्राह्मणवचनं, आकाशवत्सर्वगतच नित्य (गोड ३/३) इति गौडपादकारिकाबचनञ्च प्रत्याख्यानानि सप्तविधसमुदानस्वरूपं च सिद्धान्तरत्नाकरावसंयम् ॥१८॥
पद्यपञ्चकन कश्चिनु = ब्रह्माऽद्वैतवादी तु ज्याचष्टं-ननु तथा = नयायिकांनप्रकारण विभुनो भवतः - सिध्यन आत्मनो नानात्वमयुक्तमीक्ष्यते = अनुमीयत नगायिकन । कुत : गौरवात् । नहि चैत्रमंत्रादिभेद-जन्म-मरण-बन्ध - मोक्षादिल्यवहारसङ्गतिः कथं स्यात् । एकस्तिन मुक्त सर्वेप मुक्तिः प्रसज्योत तदभित्रन्यात्, बढेकस्यापि मुक्तिन ल्यात तदभिन्ना. नामपरेषां संसारित्वादित्यादिकं बहु विष्लबते आत्मा दैतमन इत्यादाकायामात्मा द्वैतवादी व्रते-यत् = यस्मात् कारणात व्यवस्थितिः चैत्रमैत्रादिभेद-जन्ममरण-बन्धमोक्षादिव्यवस्था व्योम्न इव नियतं = अवश्यं उपाधिगामिनी भवति । यथैकमेवाकाश बटाद्यवच्छेदकभेदाद्भिद्यते घटाकाशं पटाकामिनि, घटनादो मति घटाकाशविनाश-गि पटाकाशमवतिष्ठते महाप्रलय घटपादिसकलोपाधिविलये निरवच्छिन्नं शुद्धमाकाश भवनि तथैवात्माद्वैतपक्षेपि व्यवस्थोपपद्यते ॥४०॥
जा सकती, क्योंकि वंदनासमुद्रात आदि में आत्मा का परिमाण अपने देह के परिमाण से अधिक होता है, जिसका स्वीकार जैन मनीपी भी करते हैं। अतः 'पत्र यत्र आत्मत्वं तत्र तत्र स्ववारीपरिमाणतुल्यपरिमाणन्वं' . यह व्याप्ति व्यभिचाग्दोपास्त बन जाती है" <-तो यह भी निगधार है, क्योंकि श्रीदारिक देह के बाहर आत्मप्रदेशों की समुदान अवस्था में चिश्मानना होने पर बाहरी आत्मप्रदेशों में सूक्ष्म कार्मणवारीर का हम स्याबादी स्वीकार करते हैं। इसलिए कार्मण शरीर के परिमाण से अधिक आत्मपरिमाण का हम स्वीकार नहीं करते हैं । नर आत्मत्व गरीरपरिमाणत्व का व्यभिचारी कैसे होगा ? हे नैयायिक ! तुम यह मोचो ||
* अनेक वितु आमाओं का स्वीकार नामुमकिन - अदैववादी * विभु एवं अनेक आत्मा का स्वीकार करनेवालं नैयायिक के मन के खिलाफ किसी वेदान्ती का यह कथन है कि → नैयायिकप्रदर्शित गति से विभु = सर्वव्यापी सिद्ध होती हुई आत्मा में नैयायिक विद्वानों के द्वारा नानात्व = अनेकत्व का दर्शन किया जाता है वह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि विभु आत्मा को एक मान पर भी जगत की सर्च व्यवस्था की सानि हो जाती है। जैसे आकाश एक एवं सर्वव्यापक होने पर भी घट, पट आदि उपाधिभेट से घटाकावा. पटाकाश आदि भित्र होते हैं । घट का नाश होने पर घटाकाश का नाश होने पर भी पटाकाश का नाश नहीं होता है। पटाकाश की उत्पत्ति होने पर भी पुनः घटाकाश की उत्पत्ति नहीं होती है। ठीक वैसे ही विभु आत्मा की एक मानन पर भी चैत्र, मंत्र आदि प्रत्यगात्मा में भेद की उपाधिभेद से उपपनि हो सकती है, क्योंकि उपाधिभून जिस अन्तःकरण से अवच्छिन्न बैतन्य में चैत्र का व्यवहार होता है उस उपाधि से भिन्न अन्तःकरणात्मक उपाधि से बह चैतन्य अवभिन्न = विशिष्ट है, जिसमें मैत्र का व्यवहार होता है । चैत्रान्त:करण एवं मैत्रान्तःकरण भित्र होने की वजह चैत्र और मैत्र में भेद का व्यवहार हो सकता है ॥४॥