Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 265
________________ मनापाबाराहर५ गत::: . ५ मापसापान स्याहाकल्पसनामगरः * एकसत्तालगामित्व स्मृतं पुनरखण्डतम् । तेन नानात्मतापत्तिन तनुब्दयगामितः ॥४६॥ - जयITI - गावन्कार प्राणसंयोगः तावत्कालं बदिताजयंय कम्पोपलब्धिः स्यादित्यागद काय माह. संकोचिनप्रदास्य - पृथग्भुतहस्नानयज्ञान अदृष्टवशेन समाकुटा: स्वप्रदेशा बन नस्यात्मनः नदानी नत्र = विजनहस्तादी न अपमानता = कम्पमानता, दाना हस्ताद: नेतना भप्रदेशश्न्यन्यात । । वाइनपदार्थों का साम्प्रतमखण्डनपदप्रतिपाय निरूपयितुमचार इत्याह अखडनं = अबण्डनपदनिगा पुनः एकसन्नानगामित्वं - मूलागरम्बस्वात्माटदासनहानुप्रचंगनं स्मृतम् । न्न काणन ननुद्वयगामिनः सतः स्वस्य नानात्मतापनिः नच्यावकाशमा । तदनं न्यायखण्डसाय प्रकरणशागणव ->चंदागहावयात्मनः कायच्छेदप्ररोहयाः कश्चिदिष्टाचेच. सान्या . न्यानस्यनप्रदात्यान । इयांस्न विशेषः छिनाररावययगहस्तजातीयोन्यत्तिः आन्गप्रदेशप्ररोहश्च तत्रानप्रवेश | गई ददापि कारस्य छिन्यवान्नान्यनिः जयञ्चिदात्मनश्च शससम्बदामादशानां कतिप्न्यानां छिन्नाबधवानग्रव। दान । यदि च नवं वीक्रियते तदा शरीराधाभदास्यवस्थकम्पोपलब्धिनं स्यान्न, पद्मनालम्वदन्छेदम्यारिखकानंदकान्न दानभ्यपनमादभयावसय. वृत्त्यान्गप्रदेशानां पश्चात्यम्बटगोपनः । आकृष्यमाणप्रदशन्चाचास्य मृतत्व माटमः । अत एव न च्छित्राश्यानामात्मप्रदमानवान प्रवगान्मकताप्रसङ्गः. प्रश्मिनप्रदान्वयव पृथक्त्वलक्षणत्वात्त । न चात्रान्मप्रदेशाः प्रविभक्ताः, शृङखलाग्यवन्याग्न परम्पग जहदवृत्तित्वात. अवस्था देनावस्थायझंदरतु नात्पन्नभेदनियतः, उत्फपविफणावस्थसम्वदिति (म.स्त, ७२.न्या...: । इति । स्याद्वादकल्पलतायामपि -> 'नन्च छिन्नावयगनुप्रविष्टम्य पृथगावात सक्ति: स्यादिनि नेत :. तव पश्चादनप्रदान ।। मन रम्नादी कम्पादिनलिमाटनाटित्थं कल्पनात् । न वकन्यादात्मना विभागाभगवानंदाभाव इति वान्यम. इगरदांग' तम्बापि सविमागतात; अन्यथा मावयवशम्न्यागिता नगा न स्यान् । तधा न नदनान्तर्गयामंदी न स्यात् । छिन्ना:छिन्नधीः कथं पान्स पटनम ? डॉट चन ? न. एकान्तमा छिन्नत्तान. 'पद्मनालगन्तवछंद - छंदामुपगमान । गङ्गटनमपि तथा मृनादृष्टवादविरुदमर । 'हन्त ! एवं शगरदाह ग्यात्मदाहः स्यादिति चेत ? ने, सारनीस्योरबा मिनबपि भिन्नलगत्वना तदापाभावादिति' - (शा.स. २-२ स्या.क.ल.पृ.५१. ] इति प्रतिपादितं प्रकरणकांग्णव ।।। किचात्मना चिमत्व गरवछंदनवन्यावच्छेदनानायुतमादवारणाय ज्ञानादरच्याप्यनित्वं कल्पनामिनि गौरवम । न वसमानाधिकरणामारप्रतियोगित्वरूपं अवन्छिन्ननिकल्यस्वरूपं प्रतियोगिताव टकवच्छिन्नप्रतियोगियामानाधिकरण्यलक्षणं चत्वन्य - देनन । तथा च नानादीनां ज्ञानाद्यभावविरंधाप्यवच्छे टकगर्भ एव कल्पनीय इन्यपि गाग्वम । गरम कितनदा मेरगाव तद्विरो शरीर में पृथक् हो जाता है जैसे कतिपय अत्मनदेश आत्मा से पृथक हो जाते हैं । खण्टन का मतलब यहाँ यह है कि शरीर ग बाहर खण्डित शरीरावयव तक आत्मप्रदेशों का फलना । सरीर के कहर आत्मप्रदनों का निर्गम ही खण्दनपद के यहाँ अभिगन है । मगर वे जान्मादमा भी सबंदा छिन्त्राचयत्र में नहीं रहत हैं, किन बाद में नहाँ में अपने आत्मपदों को आत्मा खींच लेती है जिसकी वजह याद में पुर्वचन छिन्न अवयव में कम्पमानतः देखी जाती नहीं है || अखण्डितत्व का मतय है एवमन्नानगामित्व । अपन पागर में रहें हर एक जीव में खण्डिताचयवम्ध आन्मप्रनगा का पुनः प्रवेश होना ही आत्मा की अवण्डितता है । आन्मा के प्रदेश भी आत्मा की भाँति नित्य हैं । अतः छिन्न अवयव में रहनराले आन्मदगों का भी बाद में नाश होता नहीं है किन्न छिन्न अंशी के माय पनः मंघटन हो जाता है । अप म व नि, रहती है, जिसकी पनह. छिन अंग या छिय अंगी के साथ संघटन होने में कोई राधा नहीं रहती है। इमलिग यहाँ इस का का कि → 'देह अवयर के छद में आत्म अवयव का छेद होता है . मा मानने पर देह के छिन्न अपयर में आत्मा चा जो भाग अन्प्रविष्ट होना है, वह एक पृभग जीन बन नायगा । मुल शर में भी ना आत्मा तो रहती ही है । अतः दो अगर में रहने की वजह अनक आत्मा के स्वीकार की आपनि आयगी' -भी समाधान हो । जाना है, यांकि आत्मा का ना भाग छिन्न दहावयव वं. पाथ शहर आना है वह मूल जाम में मनग्न होने से था? समय के बाद अदृष्टमहिमा न पूर्व शरीर में रहनेवाली आमा में अनप्रविष्ट हो जाता है । यह कन्चना इनाला की जाती है कि देह के छिन्न अवयर में कुछ ममर तक कम होता है और बाद में कम नहीं होता ३ ॥४॥ * ll को यासतhिill अप्रामाणिक -रादादी इसके अनिग्कि आत्मविभाव पक्ष में यह आपनि मुँह फार काही रहती है कि आत्मा नो रुदेह की भांनि अन्यत्र भी रहती है जब दो जैस शरीर में ज्ञान उत्पन्न होता है टीक वर्ग ही शरीर में अन्यत्र भी जानापान का अपलाप नहीं

Loading...

Page Navigation
1 ... 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363