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* आत्मनः खण्डनसमर्थनम
खण्डितमपि तमखण्डितज्ञानशालिनो बुवते ।
न हि पद्मनालतन्तौ च्छेदाच्छेदौ न संसिदो ||४४|
खण्डनं न पृथग्भावो बहिर्निर्गम एव तु । सहोचितप्रदेशस्य तत्र न अपमानता ||85|| * जयलता
प्राह तत्र
मौगानां
च्छिन्नावयचे. अदृष्टाकृष्टस्वान्तागमनिर्गमाभ्युपगमः - आत्गसम्वेता पूर्वनियन्त्रितमनः प्रवेशबहिर्निर्गमम्बीकारः तु शेवानां अज्ञानमेव गमयति ज्ञापयति । अज्ञानसाधकं तादृशाभ्युपगमविशेषणमाह-गौरवविगीत: अप्रामाणिकगौरक्षणवलपन्धि ताहि छिन्नेऽवयवे यथा कम्पाद्युपलब्धिर्भवति तथा मूलशरीरेऽपि तदानीं सा प्रसिद्धा । | आत्मनो मनरत्येकगणः चेति न युगपदुभयत्र संयुज्यते । अतः प्रतिसमयं मनसी देहतदवयवसीयतायातत्त्वं तत्संयोग - तत्प्रागभावनाशादिकल्पनागौरवम् । वस्तुतो न तयोः क्रमशः चेष्टा दृश्यते किन्तु युगपदेव । अतो युगपदेव तयोः मनःसंयुक्तत्वमभ्युपगन्तव्धम् । न च यौगपद्यप्रत्ययस्य भ्रमत्वं सम्भवति युगपज्ज्ञानद्वयानुपदेऽपि नानक्रिपोत्पादस्य त्वयाऽपि स्वीकृतत्वात् : न च वये युगपदुभयत्र मनः सत्रिकर्षसम्भवः । किव मनस शरीरादन्यत्र गमने दृष्टसहस्राणामकिचित्त्वम् ||४३|| अब हि अखण्डज्ञानशालिनो जिनेन्द्रगगधरपूर्व धरादयः खण्डिनमपि = वागरात्पृथग्भूतावयवावस्थितं तं आत्मानं अखण्डितं नदानीं मूलशरीरस्थासयात्मप्रदेशसम्बद्धं ब्रुवतं "कान्नेनाऽच्छिन्नत्वात् । न हि पद्मनालतन्ती च्छेदाच्छेदी न संसिद्धी किन्तु प्रसिद्धावेव । न च पद्मनारतन्तुः पद्मनालादेकान्तेन छिन्नः पद्मद्वयप्रसङ्गात् । नायंकान्तेनाच्छिन्न एवं तन्तुब्धवहाराभावप्रसङ्गात् । एतेन च्छंदाच्छेदी परपरविरुद्ध कथमेकत्र ? विरोधादिति निरस्तम्, अविगांत प्रत्यक्षस्यैव तद्विरोधापहारित्वात् कथञ्चिदादसंवलनेन निराकाशादवीधोपपत्तेश्च । एतेन तदवयवस्थाः आत्मप्रदेशास्तत्रैव नष्टा इति प्रत्युक्तम्, तेषां नित्यत्वात् कथञ्चिदनित्यत्वञ्च चविकाशभावमात्रेण तथा तथा परिणमनापेक्षया न तु न्यूनाधिकभावनोत्पादविनाशापेक्षया प्रदेशानां नियतसङ्गव्यत्वात् । न च ते सक्रियत्वेनान्यत्र गता इति वक्तव्यम् अन्येषामपि तैः सह गमनं स्यात् नित्यमविष्वग्भावेन तेपां सम्बद्धत्वाभ्युपगमात् । अत एव मनसो यातायानत्वकल्पनागौरव न सावकाशमिति दिक ॥४४॥ |
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तदेव समर्थयति खण्डनं हि प्रकृतं न पृथग्भावः परस्पराऽजहद्वृत्तित्वानेषां किन्तु शरीरसम्बद्धात्मप्रदेशेभ्यो हि कतिपयात्मप्रदेशानां खण्डितावयवपर्यन्तं शृङ्खलावयवत्पान बहिर्निर्गमः एव तु खण्डनपदेनात्र विवक्षितम् । तर्हि मूलका नहीं होता है। इस तरह भी उसकी संगति की जा सकती है, तब क्यों आत्मप्रदेशों की यहाँ जाने की कल्पना की जाय ? स्याद्वादी : यह नैयायिकों की कल्पना उनके अज्ञान की यांतक है, क्योंकि वह अप्रामाणिक गौरव से कलङ्कित है। जब मूलशरीर मे शस्त्रहत अवयव पृथक् हो जाता है तब खण्डित अवपत्र की भाँति मूल शरीर में भी कंपन, गति आदि नेष्टा होती है । मन तो एक एवं अणु होता है इस नैयायिक मान्यता के अनुसार उपर्युक्त वस्तुस्थिति की संगति तभी हो सकती है जब मन प्रतिक्षण मूलशरीर और रूण्डित अवयव में गमनागमन करे । इस तरह अनेक बार मन के अनेक संयोग और विनाश की खण्डित अवयव में कल्पना करने से गौरव तो स्पष्ट ही है। इसलिए नैयायिक के उपर्युक्त वक्तव्य का स्वीकार नहीं किया जा सकता ||४३||
पद्मनातंतु ध्ष्टान्त से आत्मा की खंडिता-अखंडिता मुगकिन
इसकी अपेक्षा तो यही कल्पना करनी उचित महसूस होती है कि मूलशरीर में रहे हुए सर्व आत्मप्रदेशों में से ही कतिपय आत्मप्रदेश खण्डित अवयवपर्यन्त फैलते हैं । इस पक्ष में अनेक बार अदृष्ट से नवीन संयोग की उत्पत्ति एवं विनाश की कल्पना का गौरव निरवकाश है। मूल शरीर से अमुक आत्मप्रदेश खण्डित अवयव में जाते हैं इसकी अपेक्षा आत्मा का खण्डन = छेद कहा जाता है और तब भी वे खण्डित अवयव में रहनेवाले आत्मप्रदेश मूलशरीर के आत्मप्रदेशों से सम्बद्ध होने आत्मा अखण्डित ही है ऐसा अखण्ज्ञानवाले तीर्थंकर गणधरादि महापुरुष कहते हैं । एक ही आत्मा में खण्डितत्व और अखण्डितत्व की कल्पना अपूर्व या अप्रामाणिक नहीं है, क्योंकि कमलनाल के छिन्न तन्तु का छिन्न नाल के साथ छेद और छेदाभाव दोनों ही प्रसिद्ध हैं। जैसे कमलनाल के छिन्न तन्तु एकान्ततः छिन नहीं है और सर्वथा अविच्छिन्न भी नहीं है ठीक वैसे ही आत्मा भी न तो सर्वथा खण्डित ही है और न तो सर्वथा अखण्डित ही किन्तु अंशतः खण्डित और अखण्डित है ॥४४॥
यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि आत्मा की खण्डितता का मतलब यह नहीं है कि जैसे शरीरावयत्र शस्त्र की बदौलत