________________
* मधुसूदन वावरूनि म गरश्वरप्रतिमनावेदनम ** चैत्रमैत्रकरणे न लभेते पश्य जन्माारणव्यतिहारम् । कामिनीपृथुपयोधररोधोरोधितौ प्रियकराविव भिनौ ॥१०॥ अगसहगमभिदेलिमभावारजायते स्वपरसंव्यवहारः ।
-* जयलता *तथाहि तत्तदन्तःकरणाद्यपाधिभेदन चैत्रमैत्रादिः प्रत्यगात्मा परस्परं भिद्यते । अत एव क्षेत्रमैत्रकरणं = चैत्रीयोबीयान्त:करण जन्ममरणव्यतिहारं = परस्परीयोस्वादन्यायकक्रियाकरणं न लभेते इन है नैयायिक : त्वं पश्य । यतः कामिनीपथुपयोधररोधोरोधिनी = नितम्बिनीविशालवक्षोजारोहावरोहव्यापृता प्रियकरौ = एकस्यैव प्रयतमस्य हस्ती इव = यथा भित्री । यथा पत्युरेकत्व तत्करभेदात् एकस्य करस्य स्तनावरोहण्यापृतत्वंप्यन्य कर नदागेहे या नियमाणो दृश्यने न तु परस्परक्रिया करगलक्षणन्यतिहारभाग्भवति । तथैव ब्रह्मण एकत्वऽप्यन्तःकरणभेदाटेकस्यान्नःकरणस्यानित्यग्रत्वेयन्यस्मिन्नन्तःकरण विलयव्यग्रत्वं न सङ्कीर्ण विरुद्धं बा भवनि । न चैवं ब्रह्मगंयुत्पादच्यापतिः, नदार मधुसूदनसरस्वती अद्वैतसिद्धौ- 'दर्पणस्य मुखमात्रसम्बन्धपि प्रनिमुरचे मालिन्यवत प्रतिबिम्ब जीव संसारः, न चिम्ने ब्रह्मणि, सपाधेः प्रतिविम्वपक्षपानित्वात (अ.सि.पू...७.७) । न चमणि प्रत्ययात्मनि कर्तृत्वं कथमिति वाच्यम, अविद्या-शानदुपपनः । तदुक्तं वाचस्पतिमिश्रेण भामत्यां- 'अन्नःकरणापच्छित्रः प्रत्यगात्मा इदगनिदरूपः चतनः कर्ता भीत कार्यकारणाविद्याद्वयाधारः अहवागरपदं संसार सन्धिम्मानभाजनं जीवात्मा इतरेतराध्यासोपादानः तदुपादानश्च ध्यासः इत्यनादित्वात् बीजावरचन्नेतरतराश्रयत्वमिति (भा.पृ..)तद्विलय एव मुक्तिः । नदुक्तं नैष्कर्म्यसिद्धी सुरेश्वराचार्येण गोकात्म्याप्रति पनि बालानुभव विषा । मधी संसृतबाज नन्नाश मुक्तिरात्मनः ।। || (ने.सि.१/७) इति । अज्ञानाश्रयत्वे-णि मतद्वयं ; संक्षेपशारीरमवार्तिककारण सर्वज्ञात्ममुनिना ज्ञानव्य ब्रह्माश्रितत्वं सुरेश्वराचार्यप्रणीतनैष्कर्म्यसिद्धिव्यावर्णितमुपगतं विश्वरूपाचार्यप्रतिभिरूपपादन प्रकाशात्मयतिनाम्ना विवरणाचार्येण प्रतिपक्षरखण्डनपूर्वक समर्थितं विद्यारण्यस्वामिना विवरणप्रमयसङ्ग्रहे उपोदलितञ्च । मण्डनमिश्रेणा-ज्ञानस्य जीवाश्रयत्वं स्वीकृत भास्कराचार्येण परिष्कृतं भामतीकारेण वाचस्पतिमिणोपहितञ्च । मधुसूदनसरस्वनी तु, पक्षद्वयमद्वैत सिद्धौ सविस्तरं समयते । यथा । चैतमन्त्र तथा ततद्ग्रन्थयो वसेपमित्यलं प्रसङ्गन ॥५॥
आत्भावते स्वपरव्यवहारः कथं ? इत्याशङ्कायां ब्रह्माद्वैनवाद्याह अङ्गसहमभिदलिमभावान् = तनत्त्नुमंगोगमंदसलाचात् । ब्रह्माद्वैत-पि स्वपरसंव्यवहार जायते = उपपद्यते । स्वत्वपरत्यप्रकारका तातिव्यवहारी तनच्छरीरसंयांगभेदमूलौ न चात्मन्यत्तनिमित्ताविति तात्पर्यम् । एवेन जीब - शिवयों दत्र्यवहार सम्भवागि प्रत्याख्यातः. दारीरसंयोगा संयोगायमर लद्रदात् ।
इसीलिये यहाँ यह यांका कि > 'आत्माद्धत पक्ष में तो एक के जन्म में सभी का जन्म और एक की मीन से सभी के मौत की आपनि आयेगी । चैत्र की जन्मक्रिया में मंत्र भी व्याप्त हो जायेगा, क्योंकि चैत्र और मैत्र की भान्मा एक ही है। नव नो चैत्र का जन्म होने पर मैत्र का भी जन्म होने नंगंगा । एव मैत्र जब मीत - मरणक्रिया में ज्यापन हो रहा होगा तब चैत्र भी मरणक्रिया के अनुकूल प्रयत्न करने लगेगा, क्योंकि दोनों की आत्मा अभिन्न है । नय तो मंत्र की मौत होने पर चैत्र का भी निधन हो जायेगा। इस तरह जन्म - मरण में व्यतिहार को = परस्पर की क्रिया में परम्पर की प्रवृत्ति को मान्य करना होगा, जो कि लोकव्यवहार से विरुद्ध है - भी निराकृत हो जाती है, क्योंकि त्रामा
और मैत्रामा अभिन्न होने पर भी चैत्र का अन्नःकरण और मंत्र का अन्तःकरण ठीक उसी तरह भिन्न होते हैं जैसे अपनी प्रिया के विशाल स्ननयुग्म में में एक स्तन पर आगेह करनेवाले भीर दूसरे स्तन पर अवरोह करनेवाले दो हाथ, जो एक ही प्रियतम के हैं, परस्पर भित्र हैं। परस्पर भित्र होने की वजह जैसे वहाँ 'पक डाथ जिस क्रिया को करना है उसी क्रिया को दुसरा कर रहा है या दुसरा हाथ जिम प्रवृत्ति को करता है उमीको दसरा हाथ कर रहा है। ऐसा व्यवहार या प्रतीति नहीं होने से व्यतिहार दांप को अवकाश नहीं है, भले ही दोनों हाथ के स्वामी में अभेद हो ।
और मैत्रात्मा एक ही होने पर भी चैत्रान्तःकरण और मैत्रान्तःकरण परस्पर भिब होने की वजह जब चैत्र का जन्म होता है नब मैत्रान्तःकरण जन्म क्रिया में प्रदत्त नहीं होता है एवं मंत्र का निधन होने पर चैत्रान्तःकरण की उम्म प्रवृति होने की आपत्ति को अवकाश नहीं है ।.||
चैत्रात्मा, मंत्रात्मा, देवदत्तात्मा, यज्ञदत्यत्मा परस्पर अभिब होने पर भी भिन्न भिन्न शरीर का संयोग होने की वजह उनमें स्त्र और पर का व्यवहार जगत में होना है। मनलब कि 'मैं पर से भिन्न हूँ', 'पर मुझ में भिन्न होता है इस