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७०.६ मध्यमस्थाद्वावरहस्य खण्डः . . का. * पायकन्टाहाका मान-यपाहा*
(शा) अधात्मनोनिजकायमानता भवेतनोः खण्डलमगसहगरे ।
सुयोधहोर्मण्डलकुण्डलीभवन्दनुः प्रकाण्डोद्रतकाण्डताडले ॥४॥ अहङ्गीकारपरास्तं गोत्सहते किल तदेतद्वत्थातुम् । छिन्ने खलु नो चेच्चेष्टा कधमुदेतु ? ॥४२॥
तत्राष्टिाकृष्तस्वान्तागमनिर्गरायुपगमस्तु । अज्ञानमेव गमयति योगानां गोरखविगीत: ॥४३॥
- जयलता *वरनुनी यस्कान्नकृत्यदृष्टान मेकशक्तिमत्त्वाकर्षणहतुत्वम् । एतन शत्रुजिघांसया कृतेन इयेनयागेना दृष्टजननानस्य शनासम्बन्धात्कारमात्मविश्वं बिना क्रियाकलापपनि रियपि प्रत्याख्यातम, अनिनिहापापस्य कारणावरयासम्बन्धेऽप्यविरोधात सम्बन्धटितत्व वा तस्य प्रकृत-पि फल्योग्यतास्न्यः कश्चित्सम्बन्ध: कल्पनाम । एतेन 'विभुत्वश्चात्मनो बहेरून ज्वलनाद् वायोस्तिर्यगमनादवगतम् । न हावटकारित । न व नदाश्रययासम्बद्धं अदृष्टं तयोः कारणं भवितुमर्हनि, अतिप्रसङ्गान् । न चात्मसगवेतस्याटस्य साक्षात अन्यान्लगसम्बन्धी धरत इति स्वाश्रयमायबारेण नस्य सम्बन्ध इत्यायातम् । ततः समस्तमुनंद्रन्यसम्बन्धलाणमान्मनो विभुत्वं सिध्यताति (न्या. कं. .२१८) न्यायकन्दलीकारवचनं निरस्तम् ।
कचत्वारिंदाचमनछन योगः शतं -> अथ आत्मनो निजकापमानता चेत् ? नहि अगसहरे = प्राणियुद्धे तनो: सुयोधदोर्मण्डलकुण्डलीभवद्धनुःप्रकाण्डोद्नकाण्डनाउने = सुभटवायुगलयोः कुण्डलमिव भवतः प्रकाण्डचापादुत्क्षिनः शरैः प्रहार पति शरीरस्यात्मनोऽपि खण्डनं = बिनाशः भवत् । तथा चात्मना नित्यत्वासाः परलोकाभावश्च दुर्वागविति नैयायिकाशयः ॥४२||
अत्र म्यादिनः प्रत्युनरः - नंदनत् अन्तरी किल अङ्गाकारपरास्त = थञ्चिदभ्युपगमनिरस्तं उत्धातुं = स्यादादिमनपगारणाय नात्सहत - न शमीभवनि । ना चन् आन्मनः कश्चित्खण्डनं, कथं खलु छिन्नं गोधार = गृहगाधिकापुच्छादी चेष्टा कम्पादिस्वरूपा देतु ? र स्यादिनानभिप्रायः शरीरस्य खण्डन कथञ्चिदात्मखण्डनभिमतमब । शरीरसम्बद्धात्मप्रदेशेभ्यो हि कनिपयात्मप्रदशानां खण्डितशरीरप्रददाऽवस्थानात आत्मनः खण्डनम । तच्चान विद्यत्त एव । अन्यथा शगंगाधरभूतावस्वस्य कोपलब्धिर्न स्थान । शरीरारारिणः सर्वथा भेदे नच्छेदादिना कथं तस्य दःखम् ? 'परापरासम्बन्धन तदात्मसम्बन्धादि ति चेत् ? साक्षादव कथं न तत्सम्बन्धः ? शरीरावयवच्छंद एव हि शरीरात्पधग्भूतस्यावयवस्य कम्पपलब्धिरपीत्वमवोपपद्यते नान्यथा, प्रक्रियया अप तन्मात्रोपग्रहं विनाऽभावात् तस्यैकान्तनित्यत्वं तु श्रुतिबाधितम् । तदुक्तं 'असहदभग्रे आसीत्तता शे सदजायत (ते. २.७) इति तैत्तिरीयोपनिषदीति दिक ।।४।।
ननु च्छिन्न शरीगत्गृधाभूतावयव आत्मनी मनः प्रविशति तदनुभावानेव तत्र कम्पोपलब्धिः ततस्तन्निर्गमे तु निश्चेष्टतब तस्यत्वमपि वक्तं शक्यते शरीरात्मनोः सर्वथा भेदे । अदृष्टस्यैव तन्त्रियामकत्वेनानतिप्रसङ्गात् इति नैयायिकागवायां स्याद्वादी
का अटूट सिद्धान्त विजयी बनता है ॥४||
नैयायिक :. यदि आत्मा को शरीखमाण मानी जाय तर तो प्राणियों के युद्ध में जब अपने वारीर में प्रतिपक्ष के सुभट के दोनों दृढ हाथ से कुण्डल की भाँति बलाकारप्राप्त प्रकाण्ड धनुप से निकले हुए राणों का प्रहार होता है तब जैसे शरीर के खण्डशः टुकड़े हो जाते हैं ठीक वैसे ही आत्मा का भी खण्डन = टुकड़ा हो जायेगा । फलतः आत्मा में अनित्यल की आपत्ति आयेगी। यही आत्मा को शरीपरिमाणवाली मानने में गधक है ||२||
.मा का करांवित छेद अभिमत - स्वादादील स्यावाटी :- मगर नैयायिक का उपर्युक्त आक्षेप अभ्युपगम में पराहत हो जाने की वजह हम स्याद्बादी के प्रति अनिष्टापादन करन को खड़ा होने के लिए भी उत्साहित नहीं हो रहा है। मतलब कि वारस आदि के प्रहार से शरीर के टुकड़े हो जाने पर आत्मा का भी कथभित् खण्डन होता ही है . यह हम स्याद्वादी को इष्ट है । यदि आत्मा का छेद कथमपि न माना जाप तब ती गोधा = गिगेली की छिन्न पुच्छ के टुकड़े में कम्पन आदि बंश कैम उत्पन्न हो सकेगी ? क्योंकि शरीर तो जड है। शरीर से पृथक पास्वछिन्न अवयव में चैतन्य न माना जाय तब घट आदि की भाँति उसमें भी कम्पनादि की उत्पनि हो नहीं सकती। मगर होती है। इसीसे सिद्ध होता है कि शम्रहत अवपत्र में भी आत्मा रहती है ॥४ना।
नैयायिक :- शस्त्र में छित्र अवयव में कम्पनादि चेटा होने का कारण यह है कि भोका आत्मा के भदृए से मन, जो मूल शरीर में रहता था, स्वण्डित अवयव में जाता है जिसकी वजह से वहाँ कम्पनादि बेटा उत्पन्न होती है। जब अदृए की वजह वह मन खदित अवयन से निकल कर मूल शरीर में चला जाता है उसके बाद पण्डित अवयव में कम्पनादि