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*** अयस्कान्तदृन्तविचारः *
विना विभुत्वमात्मनोऽणुभिस्तमाप्तसंयुतैः । न चाद्यकर्मसम्भवस्ततः कृतस्तनुर्ननु ? ॥३८॥ अत्रोत्तरम् → अयस्कान्तमयस्कान्तमाकर्षीत न संयुतम् ।
आकर्षणेन तत्प्राज्ञः संयोगव्याप्यता मता ॥३९॥
ॐ जयलता
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अनुरुणद्धि = अनुमापयति । अत्र दृष्टान्तमाह दृढपीनयो: युवतीस्तनयोः लवमा परमन्तरं नापेक्षते नैवापक्षत | = व्यवधानाभावमपेक्षत एवं यथा ललनाकुचकलशयां शिथिलसंकुचितयोः व्यवहितत्वे लावण्यत्वं नैव भवत्किन्तु विर्यये सत्येव । तथा संस्कार्यधान्य- पुरुषयोः परस्परमन्तरितत्वे सति व्रीहिंसमवेतसंस्कारणात्मगुणी खाडी नैव सम्भवति, अतिप्रसङ्गात् किन्तु परस्परं संयुक्तले सत्येव तदुपपत्तिः सुकरात आत्मनो विभुत्वमेव सिध्यति ॥३७॥ ॥
ननु आत्मनो विभुत्वं विना नाशुभि: आयकर्मसम्भवः, अदृष्टवदात्मा संयुक्तत्वात् । ततः कुतः तनुः = भवान्दीयशरीरसम्भवः ? अयं नैयायिकाशय: आत्मनी देशपरिमाणत्वं दिग्देशान्तरवर्तिभिः परमाणुभिर्भुगपत्संयोगविरहादाद्यकर्माभावस्तदभावादन्त्यसंयोगस्य तन्निमित्तशरीरस्य तेन तत्सम्बन्धस्य चाभावादनुपायसिद्धः सर्वदा सर्वेषां मोक्षः स्यात्, सावयवत्वेन तद्विनाशे "परलोका भावरपातन नास्तिकत्वकल्पकालिमा व न निर्मल करणाय प्रभू प्रभुणाऽपि । आत्मवित्वपक्षे तु नैतद्रवकाशः यतः तं = वैभव आप्तसंयुतै: वैभवमाप्तं येनादृष्टशालिना आना तेन साकं संयुतैः = संयुक्तैः देशान्तरवतिभिः अणुभिः युगपददृष्टवदात्मसंयोगादायकमेतिपादः तती विभागः ततः पूर्वसंयोगनाशः तत्त: उत्तरसंयोगस्य द्वारम्भकस्योत्यायतती कोत्पत्तिः एवमन्त्यसंयोगेन भवान्तरीयशरीरनिष्यति तेनात्मसम्बन्धश्रेत्यविकलमान्वीक्षिकी विद्यालयत्येवेति आत्मवैभवपक्ष एव विजयततरामिति नैयायिकाशमः ||३८||
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न हि यद्येन संयुक्तं तदेव त प्रत्युपसर्पतीति नियमः सम्भवी अवस्ान्तं प्रत्ययस्कान्तस्याऽसंयुक्तस्याऽयुपपणीप लब्धेरित्याशयेन स्याद्वादी अत्रीसरं व्याचष्टे अयस्कान्तं न संयुतं संयुक्तं भिन्न अयस्कान्तमाकर्षति किन्त्वयुक्तमंत्र ।। तत् = तस्मात् कारणात् प्राज्ञैः आकर्षणेन संयोगव्याप्यता मता. आकर्षणस्य संयोगव्याप्यत्वम् । संयोगश्चाप्राप्तयोः प्राप्ति: । अतः पूर्वमसंयुक्तपरिवाकर्षणं कारणान्तरण सम्भवति नतु स्वेन संयुक्तस्य । अनंन कुतो न स्वसंयुक्तस्पायस्कान्तस्यायस्कान्तान्तरेणाकर्षणं सम्भवतीत्याशड़का निरस्ता प्राप्तयो: संयोगान्तरोत्पत्तिसम्भवागावातू । अन आत्मनो विभुत्वे अण्वादीना
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स्तनों के रीच अंतर = रिक्त स्थान रहता है, जिसकी वजह प्रेक्षक को वहाँ लावण्य का दर्शन नहीं होना हैं। ठीक वैसे ही आत्मा और व्रीहि के बीच अंतर हो यानी आत्मा विभुपरिमाणचाली न हो तब तो व्रीहि में संस्कार की उत्पति ही नहीं हो सकती है, क्योंकि संस्कार व्रीडिसमूह में होने पर उसके कार्य की उत्पत्ति आत्मा में नहीं हो सकती है, जो प्रकृत दृष्टान्त के लावण्यस्थान पर अभिषिक्त है। इसलिए आत्मा को विभु माननी आवश्यक है ||३७|
ॐ भवान्तरीय शरीर का जन्म
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दूसरी बात यह है कि आत्मा में विभुपरिमाण का स्वीकार न करने पर अनेक परमाणुओं में शरीरारम्भक आय क्रिया कैसे उत्पन्न होगी ? क्योंकि आत्मा शरीर से अन्य देश में रहती है यह मानने को आप स्थाद्वादी तैयार नहीं है, जिसकी वजह परलोक में प्राप्त होनेवाले शरीर के आरम्भक परमाणुओं से आत्मा संयुक्त हो सके तब तो शरीर की निप्पति ही कैसे होगी ? भवान्तरीय शरीर की निप्पति न होने पर तो परलोक का ही उच्छेद हो जायगा, जिसकी वजह नास्तिकता की आपनि से अपने को बचाना स्याद्वादी के लिए मुश्किल न जायगा । हम नैयायिक तो कह सकते हैं कि विभुत्व की प्राप्त = विभु अदृष्टवाली आत्मा के संयोगवाले अनेक अणुओं में स्वाश्रयमंयोगसम्बन्ध से अदृष्ट रहना है, जो उन परमाणुओं में आय क्रिया को उत्पन्न करता है । बाद में परमाणु में पूर्वदेशविभाग, बाद में पूर्वदेशमंयोगनाश, बाद में उत्तरदेश में अन्य परमाणु से संयोग, बाद में द्वयणुक की निप्पत्ति इस तरह क्रमशः त्र्यणुक, चतुरणुक एवं अन्नतां गत्वा भवान्तरीय शरीर की निष्पत्ति होगी, जिसकी वजह परलोकाभाव या तन्मूलक नास्तिकता की आपत्ति नैयायिकपक्ष में नहीं आयेगी । मगर आत्मा के विभुपरिमाण का अस्वीकार करने पर यह सब नामुमकिन सा बन जायगा । इसलिए आत्मा को विभु माननी आवश्यक है ||३८||
★ स्वाश्रयसंयोग से अदृष्टकारणता नामुमकिन स्याद्वादी
स्याद्वादी : नैयायिकों की यह मान्यता कि क्रिया के प्रति अदृष्ट स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से ही हेतु है' - इसलिए