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५०.२ मध्यमस्थाद्वादरहस्ये खण्डः ३ . का.५५ *प्रतिष्ठागः पूजाफालप्रपा मकत्वम *
तेन न समप्रति सकतत्वाद गौरवमेध विभाञ्च विभाव्यम् । दोषकृते व्यवहारावलोपात् कार्यमुखं हि न ततावदन्ति ॥३१॥ अथ कथमपि सर्वतीहिसंस्कारयोगो यदि लघु लघुभावात् कल्पते कश्चिदेक: । तदिह निजनिवासात् कर्षयंशलाममेकं युवरवणसमूहाभ्यागमन्यायभूमिः ॥३६॥ यतः -- अनुरुगन्दिन वैभवमात्मनः स हि भवमानयोः परमन्तरा । न युवतीस्तनयोर्टढपीनयोलवणिमा परमन्तरमपेक्षते ॥३७॥
-* जयलता - प्रतिनियतकाहिसमयतत्वानुपपने:. एकत्रीहिनाशे संस्कारनाशापनेश्च । एतेन प्रतिष्ठाकारपितृगतादृष्टमेव पूजाफलप्रयं जामति प्रत्युक्तम्, परणं तदभावाददृष्टनाझी प्रतिमापूज्यतानापनेः तन्मत चाण्डालस्पादिना व्यधिकरणन तन्नाशायोगाच्च । वस्तुत: प्रनिष्ठनत्वज्ञानाहितभक्तिविशेषद्वारा प्रतिष्ठाया: पूजाफलप्रयांजकत्वं अस्पृश्यस्पर्शादिप्रतिसन्धानस्य च भक्निविशेषन्याघातकत्वेनाइनुपपनिविरहादियधिकं 'कल्याणकन्दल्यां बक्ष्यामः । एतेन संस्कारस्यैकात्मसमवेत्तत्वकल्पनापेक्षया सकरवासियतत्वकल्पन गौरबमयपि प्रत्युक्तम्, उक्तरीत्या नस्य फलमुखत्वेनाइदोषत्वात् ॥३४॥
एतदव ममर्धयति - तेन = संस्क्रियाया निखिलवा हिमवतत्वस्यैव प्रदर्शितरीत्या यूक्तिसिद्धत्वन, सम्प्रति अवपातजन्यसंस्क्रियाया नैकगतत्वाद् = निरिबलबीहिसमवेतलान गीरवमेव इति विभाज्य आत्मसमवेतल्वं न विभाज्यम, व्यवहारबिलोपात् सकलीहिनादास्य ब्राहिंगतसंस्कारनाशकत्वल्यवहारविल्यापत्ते: । यद्वा 'यत्रैव क्रिया तंत्रय संस्कारोत्पादों यथा गर क्रियासन्द तत्रैव गोत्राद' इत्यादिप्रसिद्धव्यवहारस्य विलोपापा: । न हि कार्यमुखं - फलमख = कार्यकारणभावनिश्चयाधीनं तत् = गौरवं दोषकृते = दोषाय इनि प्रवदन्ति मनीषिणः, बाधकावतारे लाघवसहस्रस्याकिश्चित्करत्वात्, अन्यथा द्वैतदर्शनप्रवदाप्रसङ्गान् । एतेन व्रीहिसमयतायातनात्मनि संस्कारीत्पादान्यधानुपपत्त्या आत्मविभुत्वसिद्धिरिति पराकृतम् ।।३।।
पद्यक्तियेन नयायिक आत्मविभुत्वं साधयति - अथ कथमपि = येन केन प्रकारेण, लरभावात् = लाघवात् याद कश्चित् एकः सर्वव्रीहिसंस्कारयोगः सकलतीहीणां अवमानजननसंस्कारसमवायित्वं लघु कल्पते ख्याद्वादिनां तत् = तादृशकल्पनं इह = प्रकृते निजनिवासात् एकं छागं कर्षयन् = बहिर्निष्काशयन् युवरवणसमूहाभ्यागमन्यायभूमिः = मदोद्भुरक्रमलकवृन्दसमागमदृष्टान्तस्थानं, रौतात्यशीलो खण:क्रमेलक: दीर्घग्रीव इति वचनात् ।।३।।
कथमत्रोक्नन्यायापात: ? इत्याशङ्कायामाह नैयार्षिक: - यतः = यस्मात्कारणात, परं स: = अवधानजन्यः संगकार: अनयोः आत्म-ब्राहिसमूहयोः अन्तरा = असंयुक्तत्वे सति न भवन् = अनुत्पद्यमान आत्मनो विभुत्वं सर्वमूर्नमयोगित्वं यह संस्क्रिया संपूर्ण ब्रीहि में ही समवायसम्बन्ध में रहती है - यह सिद्ध होता है ॥३॥
इस तरह युक्ति से सिद्ध होता है कि अवधातजन्य संस्कार सकल ब्रीहि में उत्पन्न होता है तब इस वचन का कि -> 'आत्मा में संस्कार की प्रत्पनि नानने में लाधव है। इसकी अपेक्षा विचार करने पर अनंक ब्रीहिसमतत्व की संस्कार में कल्पना करने पर गौरव है' - तो उद्धावन ही नहीं करना चाहिए, क्योंकि तब तो ब्रीहि में अवयात करने से व्रीहि में संस्कार उत्पत्र होता है एवं सकल ब्रीहि के नाश से उसका नाश होता है, जिसमें क्रिया होती है उसीमें संस्कार उत्पन होता है - इत्यादि प्रमिङ व्यवहार का बिलय हो जायेगा । इसलिए कार्यकारणभाव, प्रसिद्ध व्यवहार आदि का निर्वाहक होने में उपर्युक्त गौरव दीप के लिए नहीं होगा। अत: अवघातजन्य संस्कार में सकलनीहितमवेतन्य की कल्पना ही संगत प्रतीत होती है ||३५||
मात्मवैभव के बिना शरीर में किया जागुगफिता नैयायिक .. पेन केन प्रकारण आप स्याद्वादी लाघन से अवघातक्रियाजन्य संस्कार को सकल त्रीहि में मानत है, जो लघुभाव से एक ही है। मगर यहाँ आएकी यह कल्पना - अपने घर में एक बकरे को निकालने पर युवान ऊंट का समूह घर में घुस जाये इस न्याय की भाजन बनती है ।।३६।।
इसका कारण यह है कि अवघातजन्य सरकार आत्मा और वीडिसमूह के बीच अन्तर रहने पर उत्पन्न नहीं होना हुआ आत्मा के विभुपरिमाण का अनुरोध करता है। जैसे युवती के दृढ एवं पुष्ट दो स्तन का लावण्य दोनों स्तना के बीच में अंतर की अपेक्षा नहीं रखता है। मतलब कि पुरती के स्तन नम्र एवं अल्पपरिमाणवाले होते हैं तब उन दोनों १. देषिप, पाटदाकप्रकरणात ओठवा थोडशक कल्याणकन्दलीटीका पृन-१८६