Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 256
________________ सम्मानित तसवादः तेन चेद्भुवनमस्ति समस्तं स्वस्वभावविहितस्थिति नूनम् । तर्हि गर्हितमिदं किल सर्व हेतुमीलनमिति प्रतिचक्रे ॥२९॥ स्वेन सम्भवति हि स्वकधर्मे नर्मकर्मण परः क इवास्तु | स्वप्रकाशनिपुणाः खलु दीपा न प्रकाशमपरं मृगयन्ते ॥३०॥ मृत्पिण्डेऽप्रभवति सति चक्रं दण्डश्व वस्त्रखण्डश्च । प्रभवन्ति हि परमाणौ यणुकाविभवनि तु न परे ॥३१॥ * जरालता श्र = तादात्म्येन वह्नित्वेन रूपेणहेतुत्वसम्भवनादृष्टकारणत्वाऽयगात् ||२८|| तेन स्ववृत्तिरूपेण समस्तं भुवनं = कार्यजातं नूनं स्वस्वभावविहितस्थिति समाहित स्थिति तत् भुवनं इति अस्ति चेत् १ तर्हि किल इदं वनादी सर्व हेतुमीलनं अटकानापादनं ० स्वाश्रयसंयोगन कार्येण सह मीलनं अदृष्टसमवायिसंयोगासमवायिकारणतानिरूपणं च इति गर्हितं प्रतिचक्रे तिरस्कृतमेव दर्शनत्यर्थज्वलनस्य स्वभावनय देशप्रतिनियमान् ॥ २९॥ - = - 45 = तदेव समर्थयति स्याद्वादी स्वेन स्ववृत्तिरूपेण त्वादिना हि = एवं स्वधर्मे वज्वलनादी सम्भवति = नागमाने सति परः अदृष्टादिः कोऽस्तु ? नर्मकर्मणीच खियः साकं कामक्रीडाक्रियादा स्वाधीने सति यथा कोऽपि परं नाप तथैव स्वरूपेणैव स्वस्मात्कार्यसम्भवे परमदृष्टादिकं नैवानलादिरपेक्षनं न खलु = तंत्र स्वप्रकाशनिपुणाः दीपाः स्वकायाः परं प्रकाशं मृगयन्ते । एतेन स्वधर्मोत्पतिः स्वरूपेण स्वाधीना कथं स्यादित्यपि प्रत्युक्तम्, प्रकाशशक्तिवत्तदुपपत्तेः ||२०|| मूर्ति ननु थालीनत्वनैव स्वस्मिन्नू ज्वलनादिकं जनयति नापरमदृष्टादिकमपेक्षते तथैव मृत्पिण्डो रूपेण मुत्पादयेत् अपरं दण्डवस्त्रादिकं नैवापेक्षत इति नैयायिकाङ्कायां स्वाद्वाडी प्राह - मृत्पिण्डे - इतरनैरपेक्ष्यण घटोत्पादं प्रति अप्रभवति असम सति हि = एव परे चक्रं दण्डश्व वस्त्रखण्ड प्रभवन्ति = घटोत्पादनकृतं व्याप्रियन्तं किन्तु द्वयणुकाविर्भाविनि वकाविर्भावनं प्रति प्रत्यले सति परमाणी परे दण्डचक्रवखण्डादयों न हि = लैब प्रभवन्ति = व्याप्रियन्तं परमशुद्रस्यैव यणुकं प्रति समर्थत्वात् । ततश्च यदुपादानकारणमितरानपेक्षया स्वकार्योत्पादने नालं तदेव परमपेक्षते किन्तु यदुपादानमितरा साहाय्येन स्वधर्माविर्भावने शतं तत्रैवान्यं तदर्धमपेक्षते न वा तद्विलम्बेन कार्यं तत्र विलम्व्यत इति फलितार्थः । अतो नलादेः स्वरूपेोर्ध्वज्वलनादिकं प्रत्यन्यनिरपेक्षतया समर्थत्वान्नादृष्टादिकं तत्रापेक्ष्यते अन्यथा घटादष्यपेक्षा = प्रसङ्गात् । किञ्च यथा शैलादिव्यावृत्त देवकुलायनुवृत्तं कृतबुद्धिजनके सकलजनव्यवहारनिद्धं प्रायोगिकत्वमेव प्रयत्नजन्यतावच्छेदकमिति सम्मतितर्कवृत्तावुक्तं तथैवार्ध्वज्वलनादिक्रिया व्यावृत्तं देवदत्तगत्यायनुवृत्तं वैजात्यमेवाः दृष्टजन्यतावच्छेदकमित्यभ्युपगन्तुमर्हति । त्वेन कारण है । समवाय सम्बन्ध से तिर्यग्गमनत्वावच्छिन्न के प्रति तादात्म्यसम्बन्ध से वायुत्वेन वायु कारण है.. इत्यादिरूप से कारणवृत्ति धर्म से ही कारणता का स्वीकार करने से पवन में ऊर्ध्वगमन की या वहि में तिर्यग्गमन की आपति नहीं रहती है ||२८|| इस तरह कारणवृत्ति धर्म से ही समस्त भुवन के कार्यों की उत्पत्ति की उपपत्ति होने से अपने स्वभाव में ही सारा जहाँ स्थित हो जायेगा । अदृष्ट की सब कार्यों के प्रति कारणता को मान्य कर के अदृष्ट हेतु का स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से कार्याधिकरण में मीलन करने की जो नैयायिक प्रक्रिया है वह गर्हित हो जायेगी, क्योंकि अदृष्ट में कारणता का स्वीकार किये बिना ही स्ववृत्ति धर्म रूप से वृद्धि के ऊर्ध्वज्वलनादि की संगति हो जाती है ||२९|| रूप से वति से ही स्वधर्म ऊर्ध्वज्वलनात्मक कार्य की उत्पत्ति हो जाय तब अन्य अदृष्ट आदि की अपेक्षा वह्नि क्यों रखे ! अपने धर्म की उत्पत्ति अपने में हो सम्भावित हो तब पर की अपेक्षा क्यों की जाय ? क्या प्रिया के साथ कामक्रीडा स्वाधीन हो तब तदर्थ कोई भी पति अन्य मित्र आदि की सहायता की अपेक्षा रखता है ? जिस तरह प्रदीप अपने को दिखाने में अन्य प्रकाश की अपेक्षा नहीं रखता है ठीक वैसे ही वह अपने ऊर्ध्वज्वलन में अन्य अदृष्ट आदि की अपेक्षा नहीं रखता है। तब अदृष्टकारणता का प्रतिपादन अरण्यरुवनतुल्य ही सिद्ध होगा ||३०| हाँ, अकेला मृत्पिण्ड घट को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होता है । इसलिए वह चक्र, दण्ड, वत्रखण्ड आदि की अपेक्षा रखता है मगर परमाणु तो द्व्यणुक की उत्पत्ति में अन्य चक्र, दण्ड, कुलाल आदि की अपेक्षा रखता नहीं है, क्योंकि

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