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... मध्यमस्बाहादरहस्य खण्डः ३ . का.१५ * दाभितिम्पाद्धादमराबादः
कुलवधूरये नेयमहो तव व्यभिचचार विचारय वारय । सभिदि रूपशिदैव निबन्धाने न हिरिरंसति पूर्वविवोढरि ॥२७॥
तमेष तस्मानियम स्वभावविजृम्शितं चारु चरीकरीति । सा हेतुता चेत्प्रकृते तथापि स्ववृत्तिरूपेण वरीवृधीति ॥८॥
* जयलता हैअही : वस्तुत इयं = विलक्षणता तब कुलवधूरपि = अर्ध्वगत्यादिकारणत्वाऽपरिहारिणी अपि न, यतः सा व्यभिचचार तासविलक्षणताशालिनो दुष्टस्य द्वीपान्तरवर्तिमुक्ताफलोगमनक्रियाजनकवाभावनान्वयन्यभिचारादिति त्वं योग ! विचारय ।
__यनु आत्मनोऽविभृत्य नानादिग्वर्निदहनादिषु ज्वलनादिक्रियाणां युगपदतृष्टवदात्मसंयोगाभावाद् युगपदनुत्पनिप्रसङ्गः, आत्मगुणम्य साक्षात क्रियाद्वारकस्याश्रयसंपांगेनैव क्रियाजनकत्वस्य प्रयत्नस्थलं दृष्टवादिति प्राचां वचनं ननु 'जनयतु प्रयत्नो यधा तथा, अदृष्टं तु यथाकथञ्चित् परम्पत्या स्वाश्रयसंयोगादेव जनयति, अतिप्रसजस्तु बपि तुल्य' इनि ग्रन्यन शिरोमणिनंब दूषितम् ।
अतो नैयायिकमन्य : अन्चयन्यनिवारं वारय = अपसारय । 'समवायनो चलनत्वावच्छिन्ने यल: स्वम्पविशेषेण हेत कल्पयित्वा :तिग्रसङ्गवारण तु वृधव विशिष्यान्दष्टहतत्यप्रत्याशा इत्याशयन च्याद्वाद्याह . सभिदि = पबनादिभेदवति वही रूपभिदा = स्वरूपावशषण एव निबन्धने = उध्वंज्वलनादिकारणत्व नपारिकन स्वीक्रियमाप तु पूर्वप्रदर्शिता विलक्षणता न हि = ने पूर्व विवाढरि = पूर्व स्वाश्रयत्वन प्रतिपन्नं अदष्टं प्रति रिरंसति = रन्तु आश्रयितुं इच्छति. तस्या विलक्षणताया वहिनिष्ठत-गि बहरूनलनायुपपने: । अदृष्टस्य कारणत्वानभ्युपगमे: बहरबोर्वज्वलने नान्यस्येति व्यवस्था स्यादव, समचायनीर्वस्वलनत्वावच्छिन्न प्रति म्यमपविगषावच्छिन्नस्यान्यनारावादिनि भावः ॥२७॥
तस्मात् कारणात एपः = ‘स्वभावविशेषणचंचलनत्वावच्छिन्नं प्रति कारणन्यविचार , स्वभावविजृम्भितं नं = पूर्वा. चायविदितं नियम = कार्यकारणभावं चार चरीकरीति - अत्यन्तं चास्तामापादयनि । तदनं श्रीमल्लिपेणमूरिभिः 'अथास्त्येव प्रमाणं बहरूज्वलने वायोस्तिर्यकपवन चावटकारिमिति चत् ? न, तया: तत्स्वभावत्वादर तत्सिद्धः दहनस्य दहनशक्तिवत्' (अ.व्य... न्या.मं. पृ.१३.) इनि ।
ननु तथापि प्रकृते = बढेरू ज्वलनादी सहेतुता तु अन्गिकार्य यति चेत् ? न, स्ववृत्तिरूपेण वह्नित्वादिना कारण अतिधर्मण ऊज्वलनादिनिरूपितकारणता वर्गवधीति = अत्यन्तं वर्धत मरुत इति यावत् । समवायनाश्यञ्चलनत्यान्छिन्न
का कारण है हो । तर तो अर्थान्तर आदि दोप आदि उपस्थित हो जायेंगे ॥२६॥
मगर वस्तुस्थिति को लक्ष्य में लिया जाय नब तो यह विलक्षणना तुम नैयायिक लोगों की कुलवधू भी नहीं बन सकती है, क्योंकि वह न्यभिचारिणी है । इसका कारण यह है कि नायिकाभिमत विलक्षणता का आश्रय अदृष्ट जैसे स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से अग्नि में रहना है दीक वैसे ही उसी सम्बन्ध से बही अदृष्य पचन में भी रहता है फिर भी पवन में सर्वगमन क्रिया नहीं होती है । इसलिए अन्वय न्यभिचार दोप अनिराकार्य है। है नैयायिक ! तुम यह सोचो और उमका निशरण कगे । यदि उक्त अन्बय व्यभिचार टोप का वारण करने के लिए नैयापिक की ओर से यह कहा जाय कि → 'जैसे उध्वंगमन में अदृष्ट कारण होता है टीक वैसे ही स्वरूपविशेप भी प्रयोजक होता है। यह स्वरूपत्रिदीप अग्नि में ही रहता है, न कि पवन में। इस तरह उर्ध्वगमन में स्वरूपविशेष से वह को कारण मानने से उपयुक्त अन्यय व्यभिचार का अवकाश नहीं रहता है। सामग्री के विरह में कार्य की उत्पत्ति कैसे हो सकती है?' -तर ती चिलक्षणता, जो नैयायिक का कुलवधू के रूप में अभिमत है, अपने पूर्व स्वामी अदृष्ट को नापसंद करेगी। मतलब कि उक्त विलक्षणता की वहि में ही कल्पना की जा सकती है। विलक्षणता कहाँ, या स्वरूपविशेष कही अर्थ में कुछ फर्क नहीं है। अर्थात विलक्षणता = स्वरूपविशप में रहि को ही ऊर्ध्वगमन का कारण मान लेने पर भी अग्नि में ही चलन की मंगति एवं पवन में ऊर्ध्वगमन की आपनि का परिहार मकिन होने मे पतदर्थ अदृष्ट में उबलनारि के प्रति कारणना की कल्पना अनावश्यक है। नब आत्मविभुत्व को कहाँ अवकाश है ? ॥७॥
इस तरह अदृए को बीच में लाये बिना ही रहि के कबज्वलन आदि की संगति हो जाने में स्वभाव से ही कार्यकारणभाव बहुत अच्छी तरह उपपन्न हो जाता है। फिर भी सहेतुता का यहाँ नैयापिक को आग्रह ही हो तो भी स्ववृत्तिरूप = निष्ट धर्म में ही कार्यकारणभाव मुमकिन ही है। जैसे कि समराय सम्बन्ध से उज्वलनत्वापन्छिन के प्रति तादात्म्यन