________________
* म्यादादरम्नाकरसंवादः शृणुत पूर्वमपूर्वमिहेदृशं मनु विलक्षणमेव समीक्ष्यते । अधि / विलक्षणतेव पणाङ्गना, परकटाक्षविलक्षणवीक्षिणी र कुलवधूरिख नायकमात्मनः सुरतरगतरङ्गतरहिमणी । यदि न मुञ्चति हेतुमियं न तत्कथमहो न कृति प्रति चेष्टते ॥२६॥
-* गया * स्तदानीं पश्यादिः स्थानद्गुणाकर एव । पश्चतस्वंय सत्यात्मभावे किं कर्तव्य भारतदन्यन पुरा ||१६|| (प्र.न.त../८या.. प्र. ) इत्यादिकम् । अधिकं तता वसंयम् ।
माननं प्रकरणकार: पूर्व कारिकाविकोपातिं नयायिकमतम'पाकर्तुं कारिकासनकनापक्रमत - गृणुतति । पूर्व = || प्रथमं मा ! नयायिका ! यूयं शृणुत, अदृष्टं हिस्सयमयोगदानलं इस पचनपि वर्तते । ततः तत्रादयध्वंगमनं न्याय । एवं पवनतियामनकारणा:दृष्टस्य स्थाश्रमगंगाननः नलपि सन्चन नयापि नियंगनिः स्यादव । वातः नभिगकरणाय वया स्थाकायमेव यदत अनलार्ध्वगमन देकारणादा । बिलक्षणमंब अपूर्व - अदाटं इह = अनिलोतबग्गमनादी दर्श = कारणमिनि ममीक्ष्यने । परन्तु अयि ! मुन्धा; : परकटाक्षविरक्षणाक्षिणी - पनत्वसम्बन्धमा सम्बद्भस्य परस्त कटार या विलक्षणता तस्या अबलाकिनी राम्पादिका च पणाङ्गना = या इव, अपूनिष्टा विलक्षणता अपि म्याश्रयसमापिसंयोगसम्बन्धना सम्बदरूप त्यादी या विलक्षणता उध्वाभिमुखत्वादिलक्षण तम्याः सम्पादिका स्पादेव । चिलमागमदृष्टमेवदृशं यत् असम्बद्धपि नियतकादिकमसाद दित्य व कल्यमितमहंनि । तथा च नात्मवभवसिद्धिरित स्याद्वादिनी गूदा भिनाय जायत ।।२।।
नन्चियं चिलक्षणता नपणाङ्गना किन्नु कुलपय ने नयायिकाशङ्कायो म्यादाटी बनि - यदि सुरतरङ्गतरङ्गतर्रागिणी = कागकलिकलाकटाशकुलद्रयप्रवाहिनी कुलवधूरिन इयं = विलक्षणता आत्मनः = स्वस्य नायकं हतं = गमनादिकारण नमुधति. तत् तस्मात् कथं नु अहा : कृति प्रनि न चपत : इत्पन्वयार्थ: ! आर्य भावः या कलमा स्वस्वामिपरिहारिणी नैव भवनि तययं विलक्षगना उध्वंगमनादिकारणतान्याना व भवतानि स्वात्रियते तदा विलक्षणता कयमदष्टमि प्रनि न नष्टन : अदृष्ट इन कृतावपि गमनादिहतुत्यस्या:विशंपात । ननश्च कृत ननच गम्बन्धन कारणाना प्राधा । न मानवति वाच्यम्. ध्यानांवंशास्टिान प्रयत्नेन यहिता पृष्टघटस्फांटनादानन याचारात । न चैतद यथानुपपत्याननियमे - नात्मविभुत्वसिद्धिरिति वाच्यम, नस्पत्यावश्यसिदत्वान । न च कृतरण्यदृष्टचत्यक्षत्वमिनि न न्यभिचार इति बायम तथा पनि अयोगालको आमवान बलग्त्यिस्यापि प्रमात्वा नरिति दिक ॥२६।। समराय सम्बन्ध मे अदृष्टविशिष्ट आत्मा के गंयोग की सिद्धि होती है । यह नय उत्पपत्र हो सकता है यदि आत्मा को कायपरि-माणवाली न मान कर विभुपरिमाणवाली मानो जाय, क्योंकि अग्नि. पवन आदि भोक्ता के शरीर में दर दात हैं। इस नरह आत्मा का विभु पग्मिाण ही सिद्ध होता है ।।
स्याद्रादी :- ओ नैयायिक ! पहले म क्या कहते हैं वह मुनिय । सच बात यह है कि यहाँ चरा विलक्षण ही । अदृष्ट कारणविधया देखा जाता है । इसका कारण यह है कि आत्मविभुत्वपक्ष में जो अदास स्वाधयसंयोगसम्बन्ध में अग्नि में रहना है वही पवन में भी उसी सम्बन्ध में रहना है । नब वह अग्नि की भाँति वायु में उभ्यं गति ही क्यों न उत्पन्न करेगा? अनः मानना होगा कि भग्नि की उच्च गति के कारणीभूत अदृष्ट में वायु की निर्यग गनि का कारणीभूत अदृष्ट विलक्षण है। इस नगह जब विलक्षणना का अदृष्ट में ग्वीकार करना नैयायिक के लिए आवश्यक ही है नव हम स्यादाद नयाथिक में यही कहते हैं कि जैसे पणांगना - वेश्या पतिनसम्वन्ध से असम्बद्ध परपुरुप के कटाक्ष की चिदक्षाना को देखती है ठीक वैसे ही विलक्षणता अपने आश्रय भए से असम्बद्ध = अदएविशिमा संयुक्त अग्रि, वायु में गति की विलक्षणता - उर्वाभिमुखत्व, तिर्यगभिमुखत्यादि का मग्पादन करेगी। इसमें क्या क्षति है। मतलब कि अदृष्ट की विलक्षणना ही ऐसी है जिसकी वजह अदृष्ट स्वाधया मयुक्त गहि आदि में गतिविशेप को इत्पत्र करता है । तब आत्मविश्व की सिद्धि कैसे हो सकेगी ? कथमपि नहीं होगी ।२।।
यदि नयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -> "जम कामक्राडा की करा के तरंगवास नदीतुल्य कुलवधू अपन नायक = स्वामी को छोड़ती नहीं है ठीक बग ही यह विलक्षणता भी हैन को छोड़ी नहीं है यानी ऊर्वज्वलनादिकारणतावच्छेदकीभूत विलक्षणना अचंचलनादि के कारण में हो रही है - नर ना यहाँ पश्न यह उपस्थित होगा कि विलक्षणना अपने भावविधया अदृष्य को पसंद करती है टीक वग है। कृति प्रयत्न का चयों पसंद नहीं करनी ? कृति भी नयायिक मतानुगार कार्यमाः