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* मान्मरम्मातिसंवादः विशिष्टोत्पादसंवितिर्विशेष्ये बाधके सति। विशेषणोपपना कि विशिष्टाधिक्यवादिनाम ॥७॥
ननु नियामकमेव हि वैभवं वदति कष्टमष्टमिहात्मनः । इतरथा प्रतिगृहागत तं विना कथमहो जगति(ती ?) व्यवतिष्ठते ॥॥
* गयाता* नन् ‘रक्तो जान' उत्पादिप्रत्ययवत् 'युबा ज्ञात' इत्यादिप्रतीतः सविशेषणी हि विधिनिषेधी बिशपणमुपसङक्रामनः मति विशेश्यबाधे इति न्यायेन विशेषणावगाहिल्वमेव, विशष्ये बालनि प्रागभावप्रतियोगित्यादवांधादिति जीवरकान्तन नित्यत्वमेय विशिष्टे आत्मन्युटयादपदार्धान्वयन “विशिष्टं शुद्धानातिरिच्यते' इनिन्यायेन शुद्ध आन्मन्यपि तदन्त्रयः म्यादित्पाझकायां स्यादवाद्याह - विशिष्टोत्पाढसंवित्तिः - युवाद्यवस्थाविशिष्टात्मात्यादसचिनिः.विशेष्ये आन्मान प्रागभावप्रतियागित्वावरगाहिले तु बाधक मति = कान्तिकात्मविनाशनदपादकगंधपणादिचाधक सति, विशिष्टं शुद्धानतिरिच्चन इति वादिनां नैयायिकनां नये विशेषणोपपन्ना = रनाद्युत्पादावगाहित्वन्तु युवादिदागरात्मकविशेषणोत्पादावगाहिल्यनोपपना इति किं विशिष्शधिक्यवादिनां मने तथा स्यात् ? नैव स्यात् । यथा सार्वभौमादिभिः विशिष्टं दादादतिरिक्त स्वीक्रियने तथा स्याद्वादिभिरपि कश्चिदति ततश्च विशेषणोत्पादे विशेषणविशिष्टयन विशेष्यमाःपि प्रागभावप्रतियोगित्वमच्याहतमेव । न चैवमात्मनो नित्यलप्रसङ्ग इनि वाच्यम्, विशिष्टोत्पादस्य विशिष्ट वंसप्रयांजकतना विशिष्टावस्थाना:प्रतिपन्धित्वेन द्रव्यपर्यायादिनात्मनो नित्यानित्यन्त्र पपनः । सर्वधा विशिष्टानतिरिकत्वनये तु नारका विशिष्टात्मनि नदवस्य सुहाभावः कष्टसाध्य इत्यधिको विस्तर आत्मख्याती ॥२||
अब नयापिकः कारिकात्रिकणात्मनी विभूत्वं साधयति मन नहीं करत यत उह, आत्मनः अदएं एवं नियामक = वैभवनियामकं सत स्वनियम्यं वैभवं = आत्मविभरिमाणं वदति इति भी : स्वादादिनः यूयमिदं प्रतिगृहणत । इनरधा = आत्मना रिभुत्व नं = अत्मवैवं बिना कायं जगलि गहिनदि नान्यापान विप्रतिनियत्व्यवस्था व्यतिष्टतं ? नचल्यर्थः । अदृष्टस्य स्वाश्रयसंग के आश्रयान्तर कर्मजनकत्वादिनि हतारित्यादिकमनुपदामच 'गनु पदी दि । श्रांकन्यारव्यानं भावितमंच ॥२२॥
करते हैं । पूर्वपरिमाणविशिष्ट आत्मा का नाश होने पर भी उत्तर एरिमाणविशिष्टरूप में आत्मा का अवस्थान अबाधिन ही है। इसलिए आत्मा का कथंचित मंद = नाश होता है, सर्वथा नहीं । इसलिए आत्मा में मणिकन्च की आपत्ति को अक्कास नहीं है ।।।।
यहाँ नैयायिक की यह शंका कि -> "आन्मा और अगेर ना जल और अनल की भाँनि भिन्न है। अनः 'चत्रः युवा जानः' इत्यादि प्रतीति में भाममान उत्पत्ति का प्रतियोगी तो युवावस्थाबाला शरीर होगा न कि चैत्रात्मा, क्योंकि आत्मा तो नित्य होने की वजह प्रागभाव का प्रतियोगी ही नहीं होने से अध्यक्षणसम्बन्धस्वरूप उत्तनि का अन्वर आत्मा में पित है। यह एक न्याय है कि जब रिशिए विधान या निषेध किया जाता है तब विशेष्य में विधान पा निपेय का अन्वय करने में बाध होने पर उसका अन्य केल विशेषण में होना है. जैसे 'गत उत्पन्नः' इत्यादि स्थल में पूर्व उत्पत्र घट में पुन: उत्पत्ति का अन्न्य बाधित होने से केवल रक्त रूप में ही उत्पत्निपदार्थ का अन्वय होता है । ठीक वैसे ही आत्मा में उत्पनिपदार्थ का अन्वय राधित होने से केवल युवाशरीरात्मक विशेषण में ही होगा। मतलब कि आत्मा तो सर्वथा नित्य है । किमी भी नरद्द उत्पत्र नहीं होती है। यदि ऐसा न माना जाय नच नो 'चिशिष्टं शुद्धनातिरिच्यत'न्याय में विशिष्ट में उत्पतिपदार्थ का अन्य करने पर शुद्ध आत्मा में भी उत्पत्ति की आपनि आयेगी' -भी निराधार है, क्योंकि हम म्याद्वाटी विशिष्ट को शुद्ध से अतिरिक्त मानते हैं । चिझिए और शुद्ध पदार्थ परस्पर भिन्न है। इसलिए हमारे मतानुसार 'युवा जातः' इस बुद्धि का सिर्फ विशेषण में उत्पानिपदार्थ का अन्वय कर के उपपत्र नहीं की जा सकती, क्योंकि युवावस्थाविशिष्ट आत्मा में उत्यनिपदार्थ का अन्य किया जा मकता है। विशिष्ट शूज से भिन्न होने की वजह युवाशरीरविशिष्ट आत्मा में उत्पत्तिएटार्य का अन्वय करने पर शुद्ध - विशेषणविनिर्मक्त आत्मा में उत्पनि की आपत्ति को अवकाश नहीं रहता है, क्योंकि विशिष्ट रूप से उत्पनि का प्रतियोगी होने पर भी आत्मत्वेन उत्पनि का अप्रतियागिन्य आत्मा में अबाधित रहता है। इसलिये हम रयाद्रादियों के मतानुसार आत्मा में नित्यानिन्याय अच्छी तरह संगत होता है ।
नेयायिक :- अहाँ कएं । अदष्ट ही आत्मवैभव का नियामक है और वही आत्मवैभव को बोलना है . बनाना है। फिर भी आप स्याद्वादी आत्मा के विभु परिमाण का अपलाप कर रहे हैं। मगर आत्मा के विभ पग्मिाण का स्वीकार किये बिना जगत कैसे ज्यवस्थित रह सकेगा 'जगत की व्यवस्था कम उपपत्र हा संकेगी, यह तुम ही बनाओ।