Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 250
________________ ॐ आत्मपरिमाणन्य जन आगोरपरिमाणत्वादपकर्षस्तथेति चेत् ? व्योम्नोऽप्यपरिमाणत्वादुत्कर्षः किं न तादृशः [199 विलेयत्तां सगं सत्त्वं काष्ठप्राप्ततया ब्दयोः । ततो जातिविशेषेण जन्यतैवातु शील्यताम् ॥१६॥ वस्तुतो जन्यमेवेदं प्रचयात् प्रतिजानीते । प्रदेशैजभितो जन्तो: शाश्वतैकत्वशालिभिः ॥ 9911 ॐ जयलता है 570 जन्यतां बहुत्वादिनिपजन्यां अवच्छिन्यात् नियच्छेत्, गगनमहत्त्वावधिको प्रकर्षस्येव परगावकर्याविधिककास्थिापि बहुत्यादिजन्यतावच्छेदकत्वेः चिनिगमान्नात्मवित्वपक्षेऽपि प्रयुक्तदीपप्रच्यव इति भक्षितं पिलाने शान्ता व्याधिरिति न्यायपा इति स्याद्वादिनी: भिप्रायः || १४ || = 2 4 कारिकार्द्धन नैयायिकः समाधत्ते - अणोः अपरिमाणत्वात् = स्वसनधापिसमवेतत्वसम्बन्धेन परिनाशून्यत्वाद अपकर्षः = गगनमहत्वाचधिकापकर्षः तथा = बहुवदिन्यतत्वक इत्यात्यपरिमाणस्याऽपकृष्टले जन्यत्वापत्तिचाधिकेति चेत ? स्याद्वादी प्रतिवन्द्या समाधत्ते व्योम्नः अपि अपरिमाणत्वात् = स्वस्वामिसंवतत्वसम्बन्धेन परिमाणरहितवान् उत्कर्षः ८६ परमाण्वपकरांवधिकोत्कर्मः किंकरीयतावच्छेदका ? युक्तरविशेषात । ततश्वात्मविभुत्वेऽपि जन्यत्वापत्तिः तदवस्थव । एतेन परमपवित्रिकमहत्त्वस्य गगनपरिमाणसाधारणतया न कार्यतादिकन्यागत्यपि प्रत्युक्तम्, गगनमहत्याधिकापकर्षस्य परमा परिमाणसाधारणतया न कार्यतावच्छेदकत्वमित्यस्य तुल्यत्वात् ||१५|| अत इयत्तां विना द्वयोः गगनपरमाणुपरिमाणयोः काष्टाप्राप्ततया = विश्रान्तया समं सत्यम । ततो जातिविपण परमाणुपरिमाणात्परिमाणगगनादिपरिमाणच्यावृनवजात्येन चादिपरिमारासाधारन एव जन्यता - बहुत्वादिनिलजनकत निरुपितजन्यतः अनुशील्पनां = विमृश्यताम् । ततो न नित्यमहत्त्वाश्रयत्वेऽपि आत्मनो विभुवं किञ्चित्साधकं न वा उपकृष्टपरि मागाश्रयत्वं बाधकं किञ्चित् तस्याःप्रकृति बहुत्वादिजन्यतावच्छेदकत्व ||१६|| इदञ्जाभ्युपगगवांदेनोक्तं, वस्तुतः जन्यमेव इदं = आत्महत्यनिष्णं, कुतो जन्यत्वमस्य ! इत्याह प्रचयात् शिथि लाख्त्र्यसंयोगात् इति स्याद्वादिनः प्रतिजानते। न च निरवयव आत्मनि कथं प्रचयसम्भव इति वाच्यम्, तस्य लोकाकाशप्रदेश नि नाऽसङ्गख्यदेशानामभ्युपगमात् । देवाह शाश्वतैकत्वशालिभिः प्रदेश: जाग्रतः = अवष्टब्धस्य जन्तोरिति । एतेन विनाऽत्र = यदि नैयायिक की ओर से समाधानार्थ यह कहा जाय कि 'अणु के कोई अवयव नहीं होने से स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्ध से अणु परिमाणशुन्य होने की वजह गगनमहत्त्वाधिक, अपकर्ष तथा = बहुत्वादिजन्यतावच्छेदक बनता है। इसलिए आत्मपरिमाण को परममहत् न मानने पर उसमें जन्यता की आपत्ति आयेगी अतएव आत्मा विभुपरिमाणवाली सिद्ध होती है तो तुन्ययुक्ति से स्यावादी की ओर से कहा जा सकता है कि 'गगन के कोई अवयव नहीं होने से वह स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्ध से परिमाणशून्य होने की वजह परमाणु अपकर्यावधिक महत्त्व तादृश = बहुत्वादिजन्यतावच्छेदक बनता है। तब तो आत्मा के परिमाण को परममहत् = विभु मानने पर उस परिमाण में जन्यता की आपनि ईंट कर खड़ी रहेगी। मतलब कि जिस दोष का आपादन शरीरपरिमाणात्मवादी के मत में आत्मविशुत्ववादी की ओर से किया जाता है उस दोष से मुक्त होना उसके लिए भी मुश्किल बनता है ||१५|| मगर अणुत्व- महत्व को छोड़ कर गगनपरिमाण एवं अणुपरिमाण दोनों ही काप्राप्त = विश्रान्ततारतस्यवाले होन की वजह दोनों समान ही है । इसलिए न तो गगनमहत्त्वाधिक अपकर्ष को जन्यता अवच्छेवक माना जा सकता है और न तो परमाणु अधिक उत्कर्ष को इसलिए मुनासिव तो यही है कि जातिविशेष में ही बहुत्वादिजन्यता का परिमाण में | स्वीकार किया जाय । अर्थात् परिमाणनिष्ट जातिविशेष को ही बहुत्वादिजन्यतावच्छेदक मानना युक्त है। वह वैजात्य = जातिविशेष जैसे मगनपरिमाण, परमाणुपरिमाण आदि से व्यावृत होता है ठीक वैसे ही आत्मपरिमाण से भी व्यावृत्त है - ऐसा माना जा सकता है। अतएव आत्मा में नित्य महत्त्व के होने पर भी अपकृष्ट परिमाण का स्वीकार करने पर उस अपकृष्टपरिमाण में जन्यता की आपत्ति को अवकाश नहीं हो सकती ॥१६॥ यह तो अभ्युपगमाद से बात की गई है। वस्तुस्थिति तो यह है कि आत्मा का महत्त्व नित्य नहीं है किन्तु जन्य ही है। इसलिए विभुत्व को सिद्ध करनेवाला नित्य महत्त्व हेतु भी स्वरूपासिद्ध है। तब आत्मा में विभुत्व की सिद्धि केन हो सकती है। यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि आत्मा का महत्त्व जन्य कैसे माना जा सकता है ? क्योंकि

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