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* महत्वस्य विविधकारणांचंदनम्
(शङ्का) → द्रव्यप्रत्यक्षहेतुत्वान्महत्त्वं सिध्यदात्मनि । व्योम्नीव ननु विश्रान्ततारतम्यमनादि रात् ॥1991 सादित्वे जन्यतापतिर्हेतुस्तत्र तु कोऽपि न । बहुत्वं वा महत्त्वं वा तदेतुः प्रचयश्च यत् ॥ १२॥ * जयलता
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अतोऽसाक्षिकोऽयमात्मवैभववादः सर्वैरेव बहिष्कार्यः । किञ्च नेपाविकनते जन्यसत्त्वावच्छिन्नं सत्वावच्छिन्ने च कालिकेनाऽदृष्टस्य हेतुत्वस्वीकारेऽपि व्यवस्थोपपत्तेर्नात्नविभुत्वसिद्धिः ॥१०॥
अत्र: नैयायिकः पुनः कारिकार्तिकण प्रत्यवतिष्ठत द्रव्येति । नन्वात्मनो महत्त्वानाश्रयत्ये 'अहं सुखी' त्यादिसाक्षात्कार एव न स्थात्, विषयतासम्बन्धेन द्रव्यप्रत्यक्षं प्रति समान महत्वस्य हेतुत्वात् । महत्त्वस्य द्रव्यप्रत्यक्षहेतुत्वात् 'अहं सुखी'त्यादिप्रतीत्या आत्मनि सिद्धय महत्त्वं = महतारभागम् । तच्च स्वीक्रियत एव स्याद्धादिभिरिति सिद्धसाधनमित्यादाङ्कायामाहननु = खलु विश्रान्ततारतम्यम् विश्रान्तं तारतम्यं यस्मिन महत्परिमाणं नन् दृष्टान्तमाह व्योम्नीव तत्र हेतु विशेषणमाह अनादि सत् = प्रागभावाप्रतियोगित्वं सति भावत्वं नित्यत्वमिति यावत । द्रव्यप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नस्य हेतोर्महत्त्वस्यात्मनि सिद्धां तस्य नित्यत्वे लाघवमिति आना विभुः नित्यमहत्त्वात्, गगनवदित्यनुमानात् तस्य विभुत्वं सिध्यनीति नैयायिकाशयः ||११|| नन्यात्ममहन्त्वस्य प्रागभावाप्रतियोगित्वलक्षणाऽनादिवे गौरवेण प्रागभावप्रतियोगित्वलक्षणं सादित्वमेवास्तु लाघवादित्यसिद्ध एव हेतु रित्या शङ्कायामक्षपादतनय आह सादित्वे = तन्महत्त्वस्य प्रागभावप्रतियोगित्वं जन्यत्वापत्तिः । न च प्रागभावाप्रतियोगित्वं सनि ध्वंसाप्रतियोगित्वलक्षणनित्यत्वापेक्षया जन्यत्व एवं लाववमिति वाच्यम्, तथापि तदुत्पादकादिकल्पनागरवात । न च तस्य फलमुखत्वेनाऽदीपवमिति वाच्यम्, तत्कारणस्यैवात्मन्यसम्भवादित्याह तत्र = आत्मनि कोऽपि हेतुः । = महत्वजनकः न विद्यते । कुनः ? इत्याह यत् यस्मात् कारणात् बहुत्वं = एकत्वभिन्नसंख्या, वा महत्त्वं = अवयवमहत्त्वं वा प्रचयश्व शिथिलाख्यः संयोगश्च तद्धेतुः = महत्त्वजनकः सम्भवति । अयमन नैयायिकाभिप्रायः महत्त्वं कचित् एकत्वभिन्नसंख्यातः जायते यथा ॠणुकस्य संरेणीश्च परिमाणं प्रति परमाणुपरिमाणं दणुकपरिमाणं वा न कारणं परिमाणस्य स्वसजातीयीत्कृष्टऐसे तन्त्र से उत्पन्न होते हैं जिससे उत्पन्न होनेवाले पदार्थों में नियतरूपता का नियमन होता है, पदार्थों के कारणभूत उस तत्त्व का नाम ही नियति है। मगर तब तो दूर देश आदि में उत्पन्न होनेवाले कार्यों के प्रातिस्त्रिक नैयत्य की उपपत्ति नियति से हो जाने से अदृष्ट में नाश नैयत्य का नियामकत्व नामुमकिन वन जाने से आत्मविभुत्व की पुनः असिद्धि ही होगा । और यदि नैयायिक जन्यसत्वावच्छिन के प्रति कालिकसम्बन्ध से नियति को कारण न माने तब तो सभी कार्यों के नियतस्वरूप की संगति नैयायिक मतानुसार कथमपि नहीं हो सकती है। इस तरह यहाँ नैयायिक नियति में कालिकसम्बन्धावच्छिन कारणता का स्वीकार करे या न करें दोनों पक्ष में नैयायिक के लिये बन्धन का अवध्य = अमोघ बीज = कारण बननेवाला उभयतः पाशारज्जुन्याय अपना प्रभाव दिखलायेगा । इसलिए ओ 1 नयायिक के शागिर्द 1 अपने को लज्जा से छुपानेवाले : तुम्हारे लिए आत्मा में विभुत्व का साक्षी बननेवाला कोई भी अक्षीणस्वरूपवाला हेतु नहीं है तब कैसे आत्मा में सर्वव्यापकता सिद्ध होगी ? कथमपि नहीं ||१३||
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* महत्त्व में द्रव्यप्रत्यक्षकारणता से आत्मवैभवसिद्धि का प्रयास क
नैयायिक विषयतासम्बन्ध से द्रव्यप्रत्यक्ष के प्रति समवाय सम्बन्ध से महत्त्व कारण होता है | अतः 'अहं सुखी दुःखी इत्यादि आत्मप्रत्यक्ष के अनुरोध से आत्मा में भी महत्त्व सिद्ध होता है । वह महत्त्व = महत्परिमाण गगन में विश्रान्ततारतम्यवाले परम महत्परिमाण की भाँति अनादि सत् = प्रागभावाऽप्रतियोगी होते हुए भावात्मक यानी नित्य ही सिद्ध होगा । नित्य महत्त्व का आश्रय होने की वजह आत्मा में विभु परिमाण की सिद्धि होगी । अनुमानप्रयोग इस तरह हो सकता है कि आत्मा विभु है, क्योंकि यह नित्य महत्त्व का आश्रय है । जो जो नित्य महत्त्व का आश्रय है वह सब विशु होता है जैसे गगन | अतः आत्मा को विभु मानना ही युक्तिसंगत है यहाँ यह शंका हो कि
आत्मा अनित्य महत्त्व का आश्रय हो तो क्या बिगड़ता है
तो इसका समाधान अनित्य मानने पर उसमें जन्यत्व की आपत्ति आयेगी । 'फिर भी आपका क्या क्योंकि आत्मा में महत्व की उत्पत्ति का कोई कारण नहीं है। महत्व की उत्पत्ति
यह है कि आत्मा के महत्व को सादि बिगड़ता है ? यह प्रश्न भी निराधार है,