Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 249
________________ ४१.२ मध्यगरपदानहराय गाण्डः : . का. ४५ गुगिहामानमरणम * विनाऽवयवमात्मनि प्रमिदं किल क्लीबत: सुतोद्भवलतूहलं कलयति प्रतियताम् । विभुत्चभिकाहक्षतां मुकुलितं पिपासावशात् जयानकरवः श्रवः श्रयतु तेन विश्वामिनाम् ॥१३॥ अयोच्यते -> परिमाणमत्र कि मापकृष्यते ? अपकर्ष इवोत्कर्षोऽधिजन्यतां यत: ॥१४॥ --* जयलता - मिनिकन्य मात्, द्वयकपरिमाणं तु मानगुन क्षय नोत्कृष्टं, सरेणुरिमाणं तु न सजातीयम् । अतः परभणी द्विल्पसंगच्या द्वयगकरिमाणपक त्रित्वसङ्गज्य च त्रसंरपरिमाणस्या समवानिकारगम् । कचिदबाबमहत्त्वरिमाणा महत्परिमार्ग जायने यथा समगन घटादिगरिमाणं प्रनि स्वसमवापिसमवेतत्वसम्बन्धन कपालादिमहत्परिमाणस्य कारणत्वम् । वनिश्च प्रत्याजायत यधा तलकादिपरिमाणम् । अब नृसिंहः 'प्रचयत्वं चाववयोगगना जातिविशेषः. तादशजातिविशेषावनिछन्न थि, उत्तन्यत्त' इत्याचष्टे । (का,११२ ..) ||१२॥ सातायता कागपतं ? इतर किल अवयत्रं बिना आत्मनि इदं = अनपदोनबा त्रयं = काचान्गस दाव्यामहत्व -प्रनयान्यनम, कलावतः = नपुंसकान सुतोद्भवकुतूहलं कलयति । यथा मादशुकशुन्यमंत्वन नपुसकम्य मन्नानाजनफवकप नदः अनायाः पुत्रोत्पादाझिलप: यादगाः भवति तादृदा एवामिलामा जन्यात्म परिमाण दिनां, आत्गनी निस्वयवत्वन कल्यान्य. महत्या-नहल-प्रचयन्यत्व:पि जन्मपरिमाण अग्रत्वकाङ्क्षणान । नेन कारणं सावधानं प्रतिथूयतां, विश्वाङ्गिनां = गकलजनानां पन पिपासावशात् नलितं जातं तत् अवः = आंत्रयुगर विभुन्य = व निकात नमामिलानां जयानकरवः = जयकार: श्रयत् । नित्यमहत्त्वस्य स्वरूपासिद्धत्यापनयनात्मनः सर्वच्यापित्यसायनादिति गौतमीयाशयः ॥५॥ अत्र = आत्मना निन्य महत्वहतुना विभुत्वप्रतिपादन स्याद्रादिभिः उच्यने अत्र = आगनि परिमाणं किं = कुना हती: नापकृप्यते ? नित्यमहन्त परिमागवन्चे बायकामाना ग्रयोजकतात । न हि नियमहत्वमस्तु मास्तु विनत्वं तहि को दापः ? इति गर्यनुयोग नमाविकन किञ्चिद्वान पाते । न च नरयामकृष्टत्त्व जन्यना निर्वाधिका, गगनाडन्यावधिकापकर्षम्य बहत्वादिजन्यनारदकत्वादिनि वात्र्यम्, यतः तस्य विभुल जन्यत्यापनिनाधिका, परनाम्बपकांवधिकान्कस्य कलादिजन्यताबादकत्यादित्यस्यापि सुवचत्वन अपकर्षः गगनमहत्याधिकापकर्षः इबोत्कर्षोऽपि परमापापविधिकोत्कपा-पि ! के तीन कारण हो सकते हैं (१) पहल = स्वाश्रयावयवगत बढ़त्वसंख्या, जैसे द्यणुकपरिमाण के प्रति दयणुकावयपरमाणुगत । द्वित्तसंन्या, ( महत्व = स्वाथयावयच का महत्पग्मिाण, जैसे पटपरिमाणाश्रय घट के अवपब कपालद्वय का परिमाण घरपरिमाण का कारण होता है, () प्रचय = विधिसंयोग, जैसे मूलिकापरिमाण के प्रति उसके आश्रय के अवपदों का शिधिलमयोग हेतु होता है |॥१॥ मगर आश्मा निरचयब होने की वजड न ना आत्मा में खाश्रयममचेतत्वसम्बन्ध से महत्परिमाण रह सकता है और न तो प्रचय = अवयव विधाथिलमयोग रह सकता है । पग्मिाण के जनक तीनों कारणों में से एक भी कारण आत्मा में न रहने पर भी आत्मा के परिमाण में जन्यत्व की कल्पना हिजड़े से बेटे के जन्म की कुतुहलता की तुलना करता है । इसलिए पिपासा की बजह वैभव-द्धि की कामना करनेवाले विधान के पंध हो गये हा वर्ण विभुत्व की कामना करनेवाले नैयायियों के जयानकरव = विजयध्वनि का आश्रय करें, क्योंकि जन्यमहत्व की आत्मा में कथपि सिद्धि नहीं हो सकती है और पानिपन्याय में सिद्ध होता हुआ नित्य महत्व विभुत्व का घ्याप्य होता है । इसलिए आत्मविभत्तबादी को ही चिजयमाला प्राप्त होगी ॥४॥ जियमहा। विगुपिया ही है - स्यादादी स्याशादी :- यह कथन टीक नहीं है, क्योंकि आत्मा में नित्य महत्त्व होने पर भी उसमें अपकृष्ट परिमाण मानने में म्या बाधा है ? इस प्रश्न का कोई प्रन्युनर न होन में उक्त अनुगान अप्रयोजक है. विपक्षराधकन शून्य है । यदि यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि --> 'आत्मा के परिमाण को अपकृष्ट परिमाण मानने पर उस जन्य मानना होगा, क्योंकि गगन के परिमाण में अपकृष्ट परिमाण त्र्यणुकग्मिाण की भांनि अवयवगत बहुत्वादि में जन्य है - तब तो नुन्य मुनि मे स्याद्वाटी की ओर से यह भी कहा जा सकता है कि , 'भान्मा के परिमाण का उत्कृष्ट = परममहन मानने पर उसे जन्य मानना होगा, क्योंकि परमाण के परिमाण में उत्कृष्ट पग्मिाण अवयगत बहुत्यादि से जन्य है. जंग ज्यणुकांग्माण' .। इस तरह तो अपकर्ष की भांति उत्काई भी पग्मिाण का जन्यता में अवच्छिन्न = विशिष्ट बना देगा । नच नो आत्मविभूत्वपक्ष में भी वह ममम्या ज्या की न्या बनी रहगी ॥१४ा।

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