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४ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः ३ . का.१ आत्मानः सङ्कार विस्तारसमर्थनम*
स्यातां सोचविस्तारौ जीवपुदगलयोर्दयोः । नामकर्मोदयादेव कस्यातिप्रसहगतः ॥१०॥
स्मर्यते > 'अविरलगलल्लालाजालावलीढमुख: शिवः, परिणतहढस्कन्धन्दन्दो युवाऽपि । स जायते । पतितदशनो वृन्दः प्राय: स एव कदाचन प्रथयति किल स्वाधीनत्वं भवे ॥ क इवाङ्गभृत् ॥५॥ इत्थच तनुमानत्वे परिमाणशिदात्मनः । भेदापत्तिः परास्तैव स्यान्दादाततिलहधिनी ॥२०॥
-ॐ जयलला - यवमात्मनि बयमिदमिति यदुक्तं परेण तभिरस्तम्, स्याश्रयासमवेतत्वसम्बन्धनात्मनि बहुत्वसत्त्वान्न जन्यामकृष्टपरिमाणा सा भवः ।।। अत एवापकृष्टमहत्वं प्रत्यनेकद्रव्यवत्त्वस्य प्रयोजकत्वमित्सुनावपि न निः, असहयवदेवात्मकावयवानमवाधान । एनेन 'सादिवे तस्य जन्यत्वापनिई तरनत्र त कोणि न' रत्यादि परास्तम् ॥१७॥
___ प्रदीपप्रभाया इवात्मनः सकोचविकासाभ्यां परिमाणभेदस्याभ्युपगमन सर्वथा नित्यमहत्त्वा सिद्धनान्मवैभवसिद्धिः किन्तु शरीरावच्छेदेनैव नद्गुणगोपलब्धः कायमानत्वमेव युक्तनिति साधयितुमुपक्रमने स्याद्वादा- द्वयोरेच जीवपुगलयोः अन्योन्यानुविद्धयःः आत्म- शरीरयोः नामकर्मोदयात् सङ्कोच-विस्तारी स्याताम्, न एकस्य = जीवस्य शरीरस्य वा सड़कोशिनी, अविनिगमाद्, अतिप्रसङ्गतश्च ।।१।।
ननु कायमानत्वे आत्मनः परिमाणभेद नित्यत्वापन्या एक सीनो परप्रच्युनिरित्याशङ्गकायामाह्- स्मर्यते चति , अविरलेति स्पष्टार्धम् । बालमध्यमपर्यन्ताबस्थाग्यां स एवामि ति प्रत्यभिज्ञानानात्मनः क्षणिकत्वापानः शरारभेदपि दारारिणानभेदात श्याम - रक्ततादशायां घटबर्बादनि कारिकानात्पर्यम् ।।१५।।।
तदेव दर्शयति । इत्थञ्च परिमाणभिदात्मनः = परिमाणभेदं भजतो जाचम्य तनुमानवे = शारीरपरिमाणत्वे सिद्ध आत्मनः सर्वधा भेदापत्तिः परास्तेव, अत्र हेतुविशेषणनाह-स्यानादानतिलचिनी, परिमाणभेद परिणामिना मदन स्याद्वादानतिलधनात् ॥२०॥
प्रचय से वह जन्यस्वरूप मालूम पड़ता है। उपचय और अपचय से आत्मपरिमाण में जन्यता का अपलाप नहीं किया जा सकता । आत्मा के असंख्य प्रदेश है, जो नित्य है एवं नित्य एकत्वसंख्यावाले हैं। अनः अवयवगत बहुत्वसंख्या से आत्मपरिमाण की उत्पनि मानी जा सकती है ॥११॥
जीव संसारी अवस्था में कर्मों से आवृत होता है । अष्टविध कर्मों से आवृत जीव के नामकर्मोदय की बजह शरीर और आत्मा दोनों का ही संकांच पर विस्तार होता है, किसी एक का नहीं । जीव या शरीर में से किसी एक का विस्तार होने पर तो अनेक दोषों की आपनि आयगी, जैस बालक के शरीर का विस्तार होने पर भी बालक की आत्मा का विस्तार न हो तब तां विस्तारवाले अश्यबों में जीव न रहा। फलतः बढे हुए अवयव में दाह आदि का अनुभव न हो सकेगा। यदि केवल आत्मा का विस्तार माना जाय नत्र नो आत्मा का शरीर ८८ साल होने पर भी जन्मावस्थाचाला ही रहेगा। अतः नामकर्मोदय से शरीर पावं आन्मा दोनों का विस्तार मानना न्याय्य है । ठीक इसी तरह नामकर्मोदय से शरीर पर्व आत्मादोनों के संकोच के बारे में भी स्वयं विचार करना चाहिए ।।१८॥
___ कहा भी गया है कि सतत गिरनेवाली राला की आवली में व्याप्त मुंडवाला बालक ही कालान्तर में दृढ एवं परिणन दो कथेवाला युवान बनता है और कदाचित् वही वृद्ध बनता है, जिसके मुँह के दांत भी टूट गये हैं एवं इन्द्रियाँ भी शिथिल हो गई है। सचमुच यह रात सूचना देती है कि इस संसार में कीन प्राणी स्वाधीन है। किसी भी जीव की युवा अवस्था आदि स्वाधीन नहीं है ॥१०॥
उपर्युक्त कथन से भली भाँति जान पड़ता है कि एक ही जीव शिशु आदि विविध अवस्था को धारण करता है, भले ही उसका परिमाण भिन्न भित्र बनता है। परिमाण के बदलने पर भी परिमाणी = परिमाणवाला = परिमाणाधिकरण बदलता नहीं है। इसलिए यहाँ यह शंका कि > 'आत्मा कापरिमाणवादी होने पर आत्मा का शरीर छोटा बड़ा होने पर आत्मपरिमाण में भेद होने की वजह आत्मा भी बदल जायगी । पविल आत्मा से भिन्न नवीन आत्मा की उत्पनि को मान्य करनी होगी' <-भी निरस्त हो जाती है, क्योंकि आन्मपरिमाणभंद का भी हम स्यावाद का अबलम्बन कर के स्वीकार