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* काशिकानन्दस्वादः विजृम्भितं व्यापभयात्तदेतत्तगानिपातोपमिति प्रसुते । यज्जन्यमानं प्रति कालिकेत हेतुत्वमेकं प्रतिपनमस्य ॥८॥ शकते → कालिकेन घटत्वादि जन्यत्वं किल नैकथा । अथ स्वरूपसम्बन्धोऽनित्याभावत्वमेव तत् ॥el
-* गयलता - प्रकरणकृता साम्प्रनं नैयायिका क्तिपराकरणाय प्रक्रियते - विजृम्भितमिति । तदत्तन् = जन्यसन्मात्रवृनिवजात्यावच्छिन्नं प्रत्यदृष्टस्य स्वसमवायिसंयोगन ध्वसत्वावच्छिन्नं प्रनि च स्वसमवायिसंयक्तसंयोगन कारणमिति योगवचनं व्याघ्रभयात् = आत्मवैभवासिद्धिलक्षणव्याघ्र भयान्, गर्तानिपातापमितिं = कारण्ताद्वयकल्पनागौरवगर्तापतनोपमा प्रसूते । यत् = यतो नैयापिकेन अस्य = अदृष्टस्य जन्यमानं = जन्यमानतिधर्मावच्छिन्न प्रति कालिंकन = कालिंकविशेषणतासम्बन्धेन एकं हेतत्वं प्रतिपन्नम् । साम्प्रतञ्च कारणतावच्छेदकसम्बन्ध-कार्यतावच्छेदकधर्मभेदेनाइदष्टे कारणतायमात्मव इति । अयं भाव: अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां घटादाबदष्टस्य तत्वसिद्धेः तत्र घटत्व-पटत्वादीनामानन्त्यात्कार्यत्वमेव साधारण्यात तत्कार्यतावच्छेदकम् । एतेन नागभावप्रतियोगित्वलक्षणजन्यत्वापेक्षया घटत्वादावव कार्यवच्छेदकत्वं लघुत्वादिति निरस्तम्, शरीरलाघवमपेक्ष्य सङ्ग्राहकलाघवस्य न्याय्यत्वात्, यदिवशेषयोरिति न्यायात्सामान्यतो नपि आदृष्टस्य हेतुत्वसिद्धिः । नत्र च कालिकसम्बन्धावच्छिन्नैव जन्यत्वायलिनकार्यतानिरूपिनकारगत स्वीकृता, लाघवात्। एतेन जन्यसन्मात्रवृत्तिवेजात्यान्छिन स्वसमवापिसंयोगेन ध्यंसे च स्वसमदायिसंयुक्तसंयांगनादृष्टस्य कारणमिति परास्नम्, कारणताद्वपकल्पनन गौरवात. मानाभावाच । एतेनादृष्टं स्वाश्रयसंयुक्ते आश्रयान्तर कमरिभते एकद्रव्यले मनि क्रियाहेतगणवादित्वपि प्रत्याख्यातम्, अप्रयोजकत्वान, अदृष्टस्य पादलिकत्वसाधनेन स्वरूपासिद्धत्वाच ।।८।।
साम्प्रतं नैयायिकः शकते - जन्यत्वं किलन प्रगभावातियोगिवलक्षणमंकविध किन्त कालिकेन = कालिकोविंदाषणतासम्बन्धेन घटत्वादि - घटत्वपटल्वादिस्वरूप नैकवा = अनेकविधम । अयं नैयायिकाझयः सकलकार्यसाधारणमनिरिक्तं मागभावप्रतियोगित्वलक्षणं कार्यत्वं नंदव स्वीकतमर्हति यदा कतृप्तस्य तथात्वा सम्भवः । स च नास्ति कालिकन घटत्वादरेव तत्वसम्भवात । तदुक्तं सामान्यलक्षणाजागदीशीकाशिकानं दिवृत्ती 'कालिकसम्बन्धेन घटत्वदर्जन्यमात्रवृत्तितया घटत्वादेरपि कार्यत्वसमनियतत्वादिति (सा.ल.का.पू. २८)। कप्तस्य कल्यादबलाधिकत्वात्कालिकेन घटत्व-पटत्यादिरूपमेव कार्यत्वम ।
* अष्ट में कालिकावच्छिन्न कारणता गुजाराष* उत्तरपक्ष :- विज़, । वाह ! नैयायिक महाशय ! तुम्हारा यह कथन तो बाघ के भय में खाई में गिरने जैसा है, क्योंकि आप नैयायिक ने अदृष्ट में कालिक सम्बन्ध से जन्यमात्र के प्रति कारणता का स्वीकार किया है । आत्मा का अदृष्ट कालिकसम्बन्ध से कपाल आदि में भी रहता है और काल में भी रहता है । अत: एक ही कालिक सम्बन्ध का कारणतावच्छेदकसम्बन्धविधया स्वीकार कर के घट, घटध्वंस आदि के प्रति अदृष्टकारणना को आपने मान्य की है, जिसमें कारणताद्वय के स्वीकार का गौरव नहीं है अपितु एक ही कारणना के स्वीकार से लायब भी है। मगर आत्मा में अविभुन्य - अपरम महत्परिमाण की सिद्धि के भय से आप उक्त कालिकसम्बन्धावच्छिन अदृष्यनिष्टकारणता को छोड़ कर स्वाश्रयसंयोगस्वाश्रयसंयुक्तसंयोगसम्बन्धावच्छिन्न पृथक् पृथक अदृष्टनिएकारणता का स्वीकार करने के लिये तैयार हो रहे हैं, गौरव टोप होने के बावजूद भी ! आप नेयायिक नां कमाल करते हैं । यहाँ यह ध्यान में रखना जरूरी है कि अदर कालिकसम्बन्ध से अनित्य पदार्थ में ही रहना है मगर काल नित्य होने पर भी कालिक सम्बन्ध में नो काल में कोई भी अनिन्य पदार्थ रह सकता है, क्योंकि अनित्य अदृष्ट आदि कालोपाधि - कालविशेपण बनता है। नित्य पदार्थ कालिकसम्बन्ध से केवल अनित्य पदार्थ में ही रह सकता है, नित्य पदार्थ में नहीं, चूँकि अनुयांगी-प्रतियोगी दोनों नित्य होने पर कालोपाधिता = किश्चित्कालवृनिता ही नामुमकिन बन जाना है। अस्तु ! ॥८॥
कालिकसम्बन्ध से अटकारणतापक्ष में गौरव की Ariel ! नेयायिक :- कालिकलम्बन्ध से अदृष्ट को कार्यमात्र के प्रति कारण मनने में गौरव टोप उपस्थित होता है, क्योंकि कालिकसम्बन्ध से जन्यता घटत्व, पटत्व आदि अनेकास्वरूप बन जाती है। मतलब यह है कि कार्यत्व, जो संपूर्ण कार्यों का संग्राहक है, एक धर्मस्वरूप न हो कर कालिकसम्बन्य से घटत्व-पटत्वादिस्वरूप है. कार्यत्व को सकल कार्यों में एक अनुगत धर्म के रूप में भी स्वीकार किया जा सकता है जन संपूर्ण कार्यों का अनुगम करने का कोई मार्ग न रहे किन्तु यहां