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* कारस्य परिगामिनिमिनमात्रत्वम * जनु यदि न विभुर्वः चेतनः तद्गुणः तत् कथमहह समग्रव्यापृत्तिव्यगमूर्तिः । न हि सपदि विहाय स्वाश्रयं कोऽपि जायदभुवनभवनभूयः सम्शमी बाशमीति || सहाऽटष्टस्य कार्यण योग: स्वाश्रययोगिता | जन्यसत्वेन जन्यत्वमतो न व्यभिचारिता ॥६॥
* गयलता समारणवदिति । कालंन व्यभिचार न हतुर्गमकोऽवति वैन ? न. कालस्य क्रियाहतुत्वाभावात् । क्रियानिर्वतकत्यं हि क्रियाहेतृत्व मिह साधनम् । न पुनः क्रियानिमित्तमात्रत्वम् । तस्य काले सद्भावाभावान व्यभिचारः । काली हि परिणामिनां निमन्मात्रम् स्थचिरगती यष्टिवत, न पुनः क्रियानिर्वर्तकः पर्णादा पवनवत् । (स्या.र.प. ५००) इति ।
किन, अस्त्यात्मनि निष्क्रियत्वं माम्त नत्र विभत्वं गई को दोप: " ट्रात पर्यनयोग न किमपि रिपक्षबाधक बलवनर प्रमाणं नैयायिकेन दयितं पार्यत इत्यप्रयोजकांऽयं निक्रियत्वहतर्शित न ततो स्वपनापिनसाध्यसिद्धिः ।
कारिकात्रण अत्र नैयायिक आह - ननु यदि वः = यमाकं स्याद्वादिनामभिमतः चतनः न विभुः तत् = तस्मात कारणात् तद्गुणः अहह ! समग्रन्यापूतिज्यग्रमूर्नि: = शरीगद्रतरवर्तिष देदार जायमानानां समाण कार्याणां न्यानी यग्ना मूर्नि: - स्वरूपं यस्य स अदृष्टारल्याणः कथं स्यान ! न हि = नैव स्याश्रयं विहाय = परित्यज्य सपदि कोऽपि पदार्थ: जाग्रभुवनभवनभूयः संभ्रमी वम्भ्रमीति = अत्यन्त भ्रमनि । अयं नैयायिकाभिप्रायः अदुटं स्वाथ्यसंयुक्त आश्यान्नर कर्मारमते एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेनगुगतान प्रयत्नवत् । न चाम्य क्रियाहेत्गुणत्वमसिद्धम, अग्नमध्यज्वलनं बायोस्नियनपचनं. अणुमनसाश्चाद्यं कर्म देवदत्तविशेषगुणकारितं कार्यन्ये सनि तदृपकारकत्वात् पाण्यादिपरिस्पन्दनवदित्यनुमानतः तमिन्द्रः । नाय. कद्रव्यत्वसिद्धम्, एकद्रव्यमदृष्टं विशेषगुणत्वाच्छन्दवदित्यगुमानतः त्मिद्भः । एकदव्यत्वादित्युच्यमाने रूपगादिभित्र्यभिचारः | क्रियाहेतगुणत्वमित्युच्यमाने करमुसलसंयगेन स्वाश्रयासंयुक्तस्तम्भादिक्रियाहतुना व्यभिचारः । यदि चात्मा न रिनुस्तहि | देशान्तरे स्वाश्रपासंयुक्ते कथमदृष्टं कर्म जनयेत, अतिप्रसङ्गत । अन्नः तत्र नलारणादृष्टमिद्भिः । गुणश्च स्वाश्रयं गुणिनम्नुमा. पयतीति तत्रात्मास्तित्व स्वीकर्तव्यमेव । इत्पश्चात्मना विभन्वसिद्धिः ।।।।
नन्चात्मगणस्यादृष्टस्य कथं देशान्तर जायमानकार्यमामानाधिकरण्यमित्यादराक नमायिक आह - कार्येण सह भदृष्टस्य = आत्मगुणरूप योगः = सम्बन्ध: स्वाश्रययोगिता = स्वयमबारिमयोगः । समवापन घटस्याधिकरण कपारे स्वाश्मयम् योगना दृष्टं वर्तत देवदत्तभोग्यघटसमयायिकारण कपालम्या:दृष्टाश्रयदेवदनात्मसंयुक्लन्नात अत: कार्यकार गमागनाधिकरणोपपतिः । न चादृष्टस्य स्वसभवायिसंयोगसम्बन्धन जन्यमत्रं पनि कागचे बाध्वंसादिना व्यभिचार; नन ववमाश्यग्य करालम्या दृष्टसम - वाय्यात्मसंयुक्तत्वेन न व्यतिरकव्यभिचार इति वाच्यम, कमालध्वंस घदध्वंसस्य निनाश्रयत्वाप:. कपालिकायाः तदा घटनंगाश्रय
अहए स्वाश्रयासंयोगसम्पन्ध से मन्या का जनक -ौरायि पूर्वपक्ष :- ननु य, । यहाँ नैयायिक विद्वानों का यह कथन है कि . 'यदि तुम्हारी आमा त्रिभु नहीं है तब तो उसका गुण अदृष्ट भिन्न भिन्न देशों में अनके व्यापारों में व्यग्र ५ प्रवृनि के जनक स्वरूपराला कैसे हो सकेगा ? आत्मा विभु न होने से आत्मा के अनाथप देशावच्छेदन नो आत्मा या अदृष्ट गुण नहीं रह सकता है, क्योंकि अपने आश्रय को छोड़ कर कोई भी गुण जागृत विभभवन में अनवावाः तो क्या एक भी बार घूम सकता नहीं है । गुण स्वानाथय में रह नहीं सकता तब उससे सम्बद्ध हो कर कार्यजनक कसे हो सकता है ? मतलब यह है कि देवदत्त कर्णाटक में रहता हो और उसके भाग्य छिद्र घट की उत्पत्ति महागष्ट्र में होती हो नर देवदत्त के अदृष्ट की उत्पनिम्थल में उपस्थिति होनी जरूरी है, अन्यथा वह घट निश्छिद्र न हो और मछिद्र हो . उसका कोई नियामक नहीं बन मकता है । कुम्हार की इच्छा तो सछिद्र घट बनाने की है ही कहाँ ? मगर दवदन ( = आनविशेष) को व्यापकः न माना जाय तब वह, भाग्यसछिद्रपटोन्पादस्थन से संयुक्त नहीं हो सकता और नेब देवदन्न अदृए भी स्वाश्रयासंयुक्त स्थल में सछिद्र घट का नहीं बना सकेगा। इसकी अन्यथा अनुपपत्ति से आत्मा को विभु माननी होगी, जिससे देवदत्त स्वभोग्य के उत्पत्तिस्थान में संयुक्त होने से देवदर अदृष्ट स्वाश्रयसंयुक्त में सछिद्र एट को उत्पन्न करेगा। अतः कुम्हार हजारों बट को बनाता है जिनम मे चैत्र, मैत्र, जैत्र आदि के अदृष्ट में निश्छिद्र घट की उत्पनि और देवदन के अदृष्ट से मछिद्र घट की उपपत्ति आत्मविभुत्ववाद में मुकर है ॥
यहाँ यह शंका हो कि-> 'अदृष्ट स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से कार्यमात्र का जनक है-ऐसा मानने पर तो न्यतिरेक व्यभिचार आयेगा, क्योंकि घटध्वंस काल में उत्पन्न होता है जो कार विभ होने की वजह रिन आत्मा में मंयुक्न नहीं हो सकता। कपालादि को घटादिश्वस का उत्पत्तिस्थल नहीं माना जा सकता, क्योंकि कपालादि का भी नाग हो जाने पर पटानियम