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४५:५६ मध्यमस्यावादरहस्य खण्डः ३ . का,११ * वराहमिहिर - गग-वादिदेवाचार्याक्तिसंबादः *
किच, अहं पथीह गच्छामि संवित्तिरिति यौक्तिकी । क्रियामेवाह जीवस्य हेतुस्ते केतुवीक्षितः ॥४॥
* जयलाlts मनसाऽनैकान्तिकत्वात्, नीरूपत्वेऽपि = रूपसमवायिकारणतावच्छेदकचिरहे:पि सक्रियत्वात् । न च तव मते मन्सो रूपित्वविरहान व्यभिचारित्वमिति राज्यम्, मम मतस्य प्रमाणत्वेन स्वीकारे त्वात्मनो देहपरिमाणत्वमप्यङ्गीकुरु । नव मत तु, व्यभिचारः | स्पष्ट एवेत्युभयतः पाशारज्जुः । ततो मूर्निव्याप्यत्वं सक्रियत्वे कल्पयितुं नार्हति । तदुक्तं स्याद्वादरलाकरे 'कयं मृत्तिनांम ? असर्वगतद्रव्यपरिमाणं रूपादिमत्त्वं बा ? तत्रायः पस: कक्ष कृनत्वान्न दोपावहः । द्वितीये तु नास्ति व्याप्तिः । न खलु सक्रियण तथाविधमूर्तिमनव भाव्यम, मनसानकान्तिकत्वात् । तस्य रूपादिरहेतस्यैव पर: स्वीकारात । अधात्मन: सक्रियत्वे क स्यात, तन्न, परमाणुभिर्मनसा च व्यभिचारात । (प्र.न.न. ./८ स्या.र.. २.०२) इति । ||शा
आत्मनः विभुत्वसाधकत्वनोपन्यत्तस्य निष्क्रियत्नहेतोः स्वरूपासि भागारिद्धिं वा प्रदर्शयितुमुपक्रमते - किति । 'अपिट पथि गच्छाषि' इनि मीनितकी - मुक्तिसंगत स्वरसवाहिनी संवित्तिः = प्रतीतिः जीवस्य क्रियां = सक्रियत्वं एवाह । अत: ते = तव नैयायिकस्य आत्मविभुत्वसाधक हतः = निष्क्रियत्वहेतगुरुः केवीक्षितः = स्वरूपासिद्धिरूपदष्टकंतुग्रहदृष्टः । ततो नात्मनो विभुत्वसिद्धिः । ज्योतिर्विदा केतुदर्शनस्यानिष्टत्वेनाऽभिमतत्वात्, योक्तं वराहमिहिरेण बृहत्संहितायां
> दृश्या:मावास्यायां कपालंकेतुः सधूम्ररदिमशिखः । प्राग्नभसोर्द्धबिचारी क्षुन्मरकावृष्टिरोगकर: ।। (बृ.सं.केतुबार गा. ३१) गर्गेगापि → क्षच्छस्त्रमरकव्याधिभ्यः सम्पायन प्रजाः । मासान दश तथाष्टौ च चलकेतुः सुदारुणः ॥ स्वरूपाऽसिद्धतमाविष्कुर्वद्भिरुक्तं वादिदेवसूरिनिः - 'नात्मा सर्वगतः क्रियायत्त्वात् । यदेवं तदेवं यथा वायुः। तथा चायं तस्मानधेति । न चास्य क्रियावत्त्वमसिद्धं प्रत्यक्षेणैव तत्प्रातः । तथाहि - प्रत्यक्षेण सर्बो देवान्तरमायान्तमात्मानं प्रतिपद्यते । नधा व वदति ‘अहमद्य योजनमेकमागत' इति । मनः शारीरं वा समागतमिति चेत् ? किं इनस्तदहं प्रत्ययवेद्यम् । तथा चेच्चा कमतानुपङ्गः । अतः यथा स्थूलो हमिति शरीरमात्रनिमितः प्रत्ययस्तथा आगनोहमित्यादिरणीति चेत् । नन्द सुरवीत्यादिरपि किं न तथा स्यात् ? 'सुखस्यात्मनि सम्भवादात्मगोचर एवायमिति' चेत् । गतिरप्यात्मनि सम्भवत्यवति सोऽपि ननिमिन; किं न स्यात् । अथ नात्मा क्रियावान सर्वंगतत्वात् गगनवदित्यनुमानबाधितत्वानय गरसम्भव एव । नवम् । इतरेतराश्रयापन्या हतोत्रासिद्धल्यात् । सिद्धे हि तस्य क्रियावत्त्वाभावे सर्वगतत्वसिद्धिः नत्सिद्धी च क्रियावत्त्वाभावसिद्धिरिनि सिद्धं प्रत्यक्षर्णव तत्र क्रियावत्त्वम् । अनुमानतोऽपि तसिध्यति । तथाहि . क्रियावान आत्मा अन्यत्र द्रव्ये क्रियाहेतुत्वात. का अर्थ है रूपादिआश्रयत्व । अर्थात् जो रूपादिआश्रय होता है वही सक्रिय हो सकता है, जैसे घट-पदादि । आत्मा में तो रूपादिआश्रयता नहीं है। अतएव उसमें सक्रिय चाभाव की सिद्धि हो जायगी, जिसके फल स्वरूप में आत्मा को विमुपरिमाणाश्रय मानना आवश्यक बन जायेगा' - तो यह पक्ष नो नितरां मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि मूर्ति = रूपादियोगिता - रूपादिआश्रयत्व सक्रियत्ल का व्यभिचारी होने से वह व्याप्ति ही भय हो जाती है । मन में रूपादि आश्रयत्व नहीं होने पर भी मक्रियत्व रहना ही है - यह तो प्रतिवादी बने हुए नैयायिक के सिद्धान्तानुसार ही सिद्ध होता है। व्यापक रूपादिआश्रयत्व का अभाव होने पर भी सक्रियत्व हेतु, जो रूपादिआश्रयत्वव्याप्यत्वेन अभिमन है, रह जाने पर उसमें वस्तुत: व्याप्ति धराशयी हो जायगी। नर व्यभिचारी रूपादिआश्रयत्वाभाव के बल पर आत्मा में सक्रियत्वाभाव की सिद्धि कैसे हो सकेगी ? और जब लक आत्मा में निष्क्रियत्व की सिद्धि न हो तब तक आत्मा में विभुत्व की सिद्धि भी कैसे हो सकेगी? नहीं ही होगी। अतः 'आन्मा विभुः निष्क्रियत्वात्' यह नैयायिक अनुमानप्रयोग असंगत प्रतीत होता है ॥३॥
आत्मा सक्रिय है। ___किश्च । इसके अतिरिक्त बात यह है कि सब लोगों को यह प्रतीति होती है कि . 'मैं इस रास्ते पर चलता हूँ' 'मैं वहाँ से आ रहा हूँ' इत्यादि, वह युक्तिसंगत ही है, क्योंकि आत्मा में सुखादि की भाँति क्रिया की उत्पत्ति भी मुमकिन है। उपदर्शित प्रतीत ही आत्मा में क्रिया की सिद्धि करती है । अत: है नैयायिक | तेरा निष्क्रियत्व हेतु आत्मा में स्वरूपासिद्धि दाप स्वरूप केतुग्रह से दृष्ट है तब भला उस हेतु से आत्मा में विभुत्व की सिद्धि कैसे हो सकती है ? कथमपि नहीं । दृष्टग्रह की दृष्टि बुध, गुरु आदि अच्छे ग्रह पर पड़ने से जैसे शुभग्रह के प्रकृष्ट फल की सिद्धि नहीं हो सकती है . वैस स्वरूपासिद्धिरूप दुष्ट केतुग्रह की दृष्टि निष्क्रयत्वहंनुस्वरूप गुरु आदि शुभ ग्रह पर पड़ने से उसके साध्य-फल की सम्भावना नहीं की जा सकती . यह तात्पर्य है ॥