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* अन्यमांगन्यवच्छददाशिकानबाद: * सहीर्णस्वभावसामान्यावशेषोभयात्मकं वस्तु स्वसंवेद्यसंवेदनसिहमपि क: कधीरपहवीत ? संवेद्यते हि स्थास-कोश-कुशूलादिषु सर्वभाऽभतो मृदन्वयः प्रतिविशेषं च पर्यायव्यावृतिरिति ।
यौ सर्वाचितमतः सकाशादर्वतारदोऽप्यत्यन्तभिन्नत्वाऽभावात्तस्या अप्यन्वयापतिः। तथा च स्थासादिमुत्स्वपि पदादिव्यवहारापत्तिरिति चेत् ? ', येन रूपेण समानता तेन रूपेणाऽन्वयस्वीकारात् । 'मृत्सामान्यमेव मृदो विशेष' इत्याय न वाच्यम्, तावताऽमृदो
* जयलता *मात्गानं न्यावर्नयतीत्यपि प्रतीनिसिद्धमन्व । स चाइसमानपरिणामोऽपि न ममानपरिणामा भारम्बाप: तुच्छ: किन्तु भावान्तरात्मक एव । तथा चात्यन्तासङ्कीर्णस्वभावसामान्यविशेषोभयात्मक वस्तु प्रदर्शितमत्था स्वसंवेद्यसंवेदनसिद्धमपि कः कुधीः = मत्सरी अपडवीत ? स्वानभूतावविश्वासे तरस्यायनवस्थितः कां दिशमाश्रयनु कांदिदिका शुद्धोदनितनयः : संवेद्यते हि || स्थासकोशकशूलादिप मर्मत्रान्गतः मृदन्वयः = मृदननि: प्रतिविशंपं च पाटलिपुत्ररत्व कायक जवाघालिङ्गिना घटेप पर्यायव्यावृत्तिः अपि इति । नथा चाक्तं व्रन्थकदिनव अन्ययोगव्यवच्छन्द्वात्रिंशिकायां 'स्वनो नवनियतिवृनिभाजी मात्रा न भावान्तरनयम पाः । परात्मतत्तदतथात्मतवाद् द्वगं बदन्ता कुशलाः स्वलान्ते ||४|| इति ।।
अथ एवं = समानपरिणामस्थव भाभान्यत्वापगम. सर्वत्र = पालापत्रीय-कायकम्जाय-वामन्निक-शिर-श्यामरनादियटषु अन्चितमृदः = तिर्यग्मदव्यक्तः सकाशात स्थास - कोश-कालानुगताया ऊध्यतामदः अपि अत्यन्तभिन्नत्वाभावात् = सर्वथा भेदविरहान, नस्या - तिर्यमदः अपि स्वास - कांश-कालादिप अन्वयापतिः, पूर्व अत्यन्तभिन्न तदभावादिन्यमांस्तत्वात न त भन्ने सदभाशदिति, अन्यथा वासन्ति काशिरादियोयपि तदभावनगजात । स्थसादिष नियम्भूदोन्चयापादन झिमन्यदापादनीयं ? इत्याशङ्कायामाह - तथा च स्थासादिमत्स्वपि घटादिव्यवहागपतिः, रन्तदधामघटादिद्रव्यात्मकमत्म घटादिव्यवहारबदित्याशयः ।।
नन्दिराकर - नेति । येन मृचादिना रूपण समानता - सादृश्यतेन गुच्चादिनच अन्वयस्वीकारात् । ततश्च दयाम - मुक्तादिपट स्थास-कोश-कुशूलादिषु मृचनैव सादृश्याननवान्वयान मर्वत्र पु 'इयं मृदियं मृति'न्य व्यवहारस्तु स्पादेव । यामग्यनादिष्टानां स्थास-कोशादिषु घटत्वेन समाननाया विरहान्न स्थासादिषु घटव्यवहारप्रसङ्गः । ट्यामरयनादिघटषु घटत्वेन समानताया; रसवात् तच घटलबहर इति समाधानारायः ।
मृत्सामान्यमय स्वाश्रमिनरेभ्यो व्यावतंयन लापवान मदो विशेपः न तु तदतिरिक्त इत्यपि न वाच्यम्, तावना
मृत्स्वभाववाले सब मिट्टी द्रव्यों की न्यावृनि रहनी नहीं है। मृत्स्वभाववाले सब द्रव्यों की च्यावृनि विवक्षित मिट्टीद्रव्य में न होने पर अमृत्सामान्य वहाँ कैसे माना जा सकता ! अतः संकीर्ण उभय स्वभाष की आपत्ति को अवकाश नहीं ह'
- मगर यह भी इसलिए निराधार हो जाता है कि . अमृस्वभावकूटच्यावृति को अत्यन्त नुन्छ मानने की अपेक्षा उसे सकल मिट्टी में अनुगत समान परिणामात्मक मानना ही मुनासिर है। इस तरह विशंप भी असमान परिणामात्मक ही है। अतः अत्यन्न अपकीर्ण स्वभावनाले सामान्य और विशेष उभयात्मक ही बल्तु का, जो अपने से संवेय अनुभव से ही सिद्ध है, कौन दुवुद्धिवाला अपलाप कर सकता है ? सब लोगों को स्थास, कोश, कुशूल आदि अवस्थावाले सब द्रव्य में अनुगन मिट्टी द्रव्य का अनुभव गर्व प्रत्येक विशेष घट यानी रक्त घट, श्याम घट आदि में पर्याय की व्यावृति का भी अनुभव होता ही है। क्या रक्त घट और श्याम घट में कुछ भी भेन (न्यात्ति) का अनुभव नहीं होता है? अतः प्रत्येक वस्तु को सामान्य-विशेपाभयात्मक मानना ही ममुचित है।
स्थाd, uple . HIदि में घटत्यवहारप]ि p] निरास. [] अयं । यहाँ यह आपादन किया जाय कि --> 'रक्त, श्याम आदि सर घट में मिट्टी या अन्य आप स्याद्वादी मानते हैं । एवं स्थास, कोश आदि पूर्वापरकालीन अवस्थाबाले एक ही द्रव्य में उर्वतासामान्यात्मक मिट्टी अनुगत होती है . ऐसा भी आप मानते हैं । तब तो उचंतासामान्यात्मक मिट्टीद्रव्य में रक्त, श्याम आदि घट में अनुगत निर्यक्रमामान्यात्मक मिट्टी का अन्वय होने की आपनि आयगी, क्योंकि उनमें परस्पर अत्यन्तभिन्नत्व नहीं है । इसक. पाल में जैसे रक्त, ज्याम
आदि घट में घटल्यवहार होता है ठीक वैसे ही स्थान, कोश आदि में भी पटव्यवहार होने लगेगा, क्योंकि अनुगत मिट्टीद्रव्य तो उभयत्र ममान ही है - ना यह भी अमंगल है, क्योंकि अनेक पदार्थों में जिस रूप से समानता होती है उसी रूप