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४१८ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः ३ . का.११
मामासकमते गौरबाराष्ट्राः
एवञ्च समानविषयक-ककाराद्यनुमितो विजातीयपवनसंयोगघटितश्रावणसामग्या: प्रतिबन्धकत्वकल्पनागौरवमप्यनुदभाव्य, वैश्कर्णसंयोगावच्छिन्नसमवायटितसामय्या एव तथात्वे प्रत्युत गौरवात् । तथापि गकारादी गुणत्वादेः कलाभदाय हाय पृथक
पृ तीयपवनसंयोगस्याऽनन्तहेतुताकल्पने गौरवमिति वेत् ?
- जयलता - कताश्रयीभूनश्रावणसामग्णां विजातीयवायुस्योगनिवेशगौरवमतिरिच्यत इत्याशङ्गकामपाकर्तुमाहुः एवं च = निरुक्तरीत्या शब्दनन्यत्व. पक्षेन्नन्तकार्यकारणभावकल्पनानारप्रतिपादनन च, नैयायिकन मीमांसकं प्रति समानविषय लौकिकात्यक्षसामग्रीमत्त्वमिति सामग्रीसच्च च लौकिकप्रत्यक्षवानाद्यते न त्वनुमितिः, तदनन्तरं 'माक्षात्करोमीत्यनुव्यवसायस्यवांदयात् । ततश्च समानविषयकानुभितिसामग्रया: श्रावणादिसामाता दलल्लेन समानविपयकककाराद्यनुमिती समानकालानल्सामानाधिकरण्योभयसम्बन्धन विजातीयपचनसंयोगघटितश्रावणसामग्र्याः प्रतिबन्धकत्वकल्पनागौरवमपि अनुभाज्यं किमुत कारणतावच्छेदकारम्बन्धादिदागरगौरवमित्यापशब्दार्थः । तत्र परिहारमुपदर्शयन्ति . चैत्रकर्णसंयोगावच्छिन्नसमवायटितसामग्रयाः = नादशसमयायटिनश्रावणसामग्रया:, एव तथात्वे = समानविषयकककाराद्यनुमिनिप्रतिबन्धकवे स्व क्रियमाणे प्रत्युत नयायिकमन व गौरवात् । = प्रतिबन्धककोटी चैत्रायनन्तव्यक्तियशप्रयुक्तप्रतिबन्धकतावच्छंदकारीगौरवार । अयं मीमांसकाभिप्राय: समानविषयकककागद्यनुमितिप्रतिबन्धकी भूतश्रावणसमग्रयां बिजातीयवायुसंयोगनिवेशारक्षया चत्रमैनाद्यनन्तश्रोत्र-विजानीयवायसंयोगावच्छिन्नसमवायप्रवेश नयायिकमत एव नानाप्रतिबन्धकामावनिष्ठकारणताकल्पनागौरचमिति ।
अथ तथापि = चैत्रादिनिवेशप्रयुक्त प्रतिबन्धकतागौरबम्प नैयायिकमते टुरित्यपि, स्राश्रयवियित्या शन्नत्यावन्छिन विजातीयपवनसंयोगकारणत्वकल्पन गकारादी गणत्वा। ककारभेदादेश्च ग्रहाय-गकार दिनिप्रगणवेदन्त्व-ककारनद-खकारभेदादिप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नोत्पादोपपादनाय, पृथक् पृथक् विजातीयपवनमंयोगम्य अनन्तहतुनाकल्पने मामांमकानां गौरवं = महागौरवम् । अयं नैयायिकाशयः चैत्रीय-मंत्रीय-शुकाय-ककार -खकार-गकारादीनागस्य:पि ततानीतिबलक्षण्योपपादनाग्य शब्दत्व
एवञ्च । यहाँ मीमांसकमत के खिलाफ यह समस्या प्रस्तुत की जाय कि → "समानविषयक अनुमिति और प्रत्यक्ष की मामग्री होती है तब प्रत्यक्ष का उदय होता है, न कि अनुमिति का; क्योंकि समानविषयक अनुमिति और प्रत्यक्ष की सामग्री में प्रत्यक्ष की मामग्री बलवान होती है और अनुमिति की सामग्री दुर्बल । मतलब कि समानविषयक अनुमिति के प्रति प्रत्यक्षसामग्री प्रतिबन्धक होती है। जैसे कि ककारविषयक अनुमिनि के प्रति कफारायणप्रत्यक्षमामग्री प्रतिवन्धक होगी। मगर हम नैयायिक विजातीय वायुमंयोग को शब्द का जनक मानते हैं और मीमांसक झन्प्रत्यक्ष = श्रावण का जनक मानने हैं। मतलब कि ककारादिश्रावणप्रत्यक्षनामग्री में विजातीय वायुसयांग का नैयायिकमतानुसार प्रवेश नहीं होगा और मीमांसकमतानुसार प्रवेश होगा 1 अर्यात् समानविषयक ककारादिअनुमिति की प्रतिबन्धक श्रावणसामग्री नैयायिकमतानुसार विजानीय वायुसंयोग से घटित नहीं होने की वजह लघुभूत होगी और मीमानक मतानुमार बह निजातीय वायुसंयोग में घटित होने से गम्भुत होगी। अतः यह प्रतिबन्धकशरीरगारव टाप मीमांसकमन में अपरिहार्य होगा - ना यह तो नैयायिक को ही प्रतिकूल चन जायगी, क्योंकि मीमांसक के मतानुसार समानविषयक ककारादिगांचा अनुमिति की प्रतिबन्धकीभून श्रावणसामग्री केवल विजातीय वायुसंयोग से घटित होगी, जब कि नैयायिक के मतानुसार चैत्रादिकर्ण-विजातीयवायुसंयोगांभवमयांगावच्छित्र समवाय में घटित बनेगी, जिसमें चैत्रादि अनन्त व्यक्ति का निवेश होने से महागौरव है। यदि चैत्रादि व्यक्तियों का प्रतिबन्धककोटि में प्रवेश न किया जाय तब तो चैत्र के पास क्कागनुमिति की सामग्री होने पर भी मैत्रकर्ण विजातीनिमित्तपवनसंयोगावच्छिन्नककारसमवाय से घटित श्रावणसामग्री चैत्र की ककागनुमिति की प्रतिबन्धक हो जायेगी। अतः उस तरह आग अधिक विचार किया जाय तर तो नैयायिक के सर पर ही गौग्वशिला का प्रहार हाना है।
विजातीयतायुयोग का कार्यपदक प्राप(६ - मीमांसक अथ तथा. । यदि नैयायिक की ओर से पुनः मीमांसक के प्रति आक्षेप किया जाय कि - "मीमांसक मनानुसार विजातीय वायुसंयोग का कार्यतावजंदक स्वाश्रयलौकिकनिपयिता सम्बन्ध में कत्व, खुत्व, गत्व, शब्दव आदि हो ना तो कोलाहल में गकार आदि का गन्वादिरूप से श्रारण प्रत्यक्ष न हो कर गणत्वादि रूप में जो प्रत्यक्ष होता है, यह उपपत्र न हो सकेगा गर्व गकार का कवर्णभिन्नत्त्व, खचर्णभिन्नत्व आदि रूप से जो प्रत्यक्ष होता है, उसकी भी मंगति न हा मंकगी.