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"५३२ मध्यमस्याद्वादरहस्य स्खण्डः ३ का ५४ * मुक्नालामनुपा दिनकरीपनिनिरामः **
व्दितीयक्षणोत्पन्नाऽदृष्टसंयोगादिनाऽपेक्षाबुब्देस्तृतीयक्षणे नाशवारणाय कारणतावच्छेदके 'योग्य'ति 'विशेषेति च योग्यजातिमदर्थकं उभयाऽवृत्यर्थकच । सत योग्यपदमतीन्द्रियजातिशून्यार्थकमिति, ता, गौरवात् ।
-* जयाता* संयोगादिनराश व्यभिचारवारणाय विशेषति एतेन पन्द्रियकगणत्वन्याप्यजातिमत्त्वं योग्यत्वमिति मञ्जूषाकारवचनमपाकृतम्, स्मृत्यादिनाश्यसंस्कारनाशे व्यतिरेकन्यभिचारतादवस्थ्यात्, संस्कारत्वस्य वेगवृजित्न गन्द्रियकत्वात् ।
नन्यस्तु कार्यतावच्छेदक योग्यत्वविशेषनिवेशनं परं कारणतावच्छेदक तयोः प्रबंदी कि प्रयोजनं ? इत्याशड़कायां वदन्ति • द्वितीयक्षणोत्पन्नादृष्टसंयोगादिना = अपेक्षाबुद्धिद्वितीयक्षागात्पन्ना दृष्टसंयोग-विभागादिना, अपेक्षाबुद्धः तृतीयक्षणे = अपक्षाबुद्धितृतीयक्षणे. नाशः स्यात् एकाधिकरण्याचांच्छन्नरवाज्यवहितपूर्व पतित्वसम्बन्धन अदृष्टादिगुणरय प्रतियोगितया नाझाधिकरणविधया भिमतापेक्षावृद्धी सचान । न च तृतीरक्षण नन्नाशा भनि, तस्याः चतुर्थक्षणनिध्वंसप्रतियोगित्वात् । अनरनेन नस्या: तनीयक्षण नाशवारणाय कारणतावच्छेदक = नाशकतावच्छेदकधर्मकक्षा 'योग्य' नि "विशेषेति चेति । नादशाउदृष्टादनान्द्रियसंयागादिना तृतीयक्षर्ण तमाशबारणाम योग्यत्वं गुणविशेषणं नाशसंयोगविभागादिना तृतीयक्षण तन्त्राशापाकरणाय च 'विशेष ति गुणविशेषणमित्यर्थः । तत्रिवचनमाबेदयन्नि - योग्यजातिमदर्थकं योग्यपदम । लौक्किप्रत्यक्षस्वरूपयोग्यगुणवत्र्याप्य - जानिमान् योग्यपदप्रतिपादन इत्यर्थः । तनाऽदृष्टादी लोकिकनत्यक्षस्वरूपयोग्यगुणत्वनातिसत्त्वेदपि न क्षतिः । उभयाऽवृत्त्यर्थकश्च । विशेषपदम् । द्रव्यविभाजककधर्ममात्रावच्छिन्नाधारवानिरूपिताधयनावान विशेषपदार्थ इति तात्पर्यम् । तेन ज्ञानादः चैत्रमैत्रांभयनिवे.पि न तिः । न च त्रसमंवतं ज्ञानं मैत्रसमवेतज्ञानादन्यदेवनि नैकमुभयवृनीति वाच्यम्, एवं सति परिमाणादरपि विशेष नुगत्यपराङ्गगात । एतेन सन्यासमवृत्तिगुणी विज्ञपगुणः इत्यपि प्रत्याख्यातम्, एकत्वादरपि विशेषगुणत्यप्रसङ्गगाचत्यादिक मदुपदिशा बिभावनीयम् ।
यत्त -> योग्यपदमतीन्द्रियजाठिशन्याकमिति र-तन्न समीचीनम. गौरवात लौकिकसाक्षात्कारकारणतावच्छेदक गणतन्यायजातिमत्वापेक्षया लौकिकसाक्षात्कारकारतानवच्छदकगणत्वच्याप्य जातिरन्यवरय गुलशरीरकत्वम् । नधा व व्यभिचार. वारकत्वाऽभावन व्यर्धगौरवमित्यत्र ताटायम् । एतेन याम्यत्वञ्च लौकिकसाक्षात्कारविश्यनिर्विकल्पकान्यतरस्वं अतीन्द्रियजातिशून्यत्वं वा' (का. २७. दि.पू. २४४) इति महादेववचनं परास्तम, जीवनयोनियत्नस्या योग्यत्वापनेश्च । अत एव लीकिकसाक्षात्कारविषयनिर्विकल्पक-जीवनयानियत्नान्यतमत्वं नाशक्तावच्छेदककोटिप्पविष्टं योग्यलमित्यपि पराकृतम, महागौरवात् ।
2 योग्यता एवं विशेष का निर्वचन - द्विता. । यहाँ यह शंका हो सकती है कि -> 'कारणतावच्छेदकधर्मकोटि में योग्यत्व और विशेषत्व का गुणविशेषणविधया निवेश न किया जाय तो क्या दोष है ? व्यर्थ गौरच क्यों करता ?' - मगर इसका समाधान यह है कि गुणत्व को ही उक्त मम्मन्य से नाशकारणतावच्छेदक माना जाय नब तो अपेक्षांबुद्धि के द्वितीय क्षण में उत्पन्न अदृष्ट (धर्म-अधर्म), संशेग आदि ऐकाधिकरण्यावच्छिन्न स्वाऽव्यवाहिनपूर्ववृत्तित्वसम्बन्ध से अपेक्षाबुद्धि में, जो प्रतियोगितामम्बन्ध मे अपेक्षावुद्धिनाशात्मक कार्य के अधिकरणविधषा अभिमत है. रइने से अपेक्षाबुद्धि के तृतीय क्षण में ही अपेक्षानुद्धि का नाश हो जायगा । मगर अपेक्षाबुद्धि तो अपने ननुर्घ क्षण में नष्ट होती है - यह तो नैयायिकसम्प्रदायसिद्ध हकीकत है । अतः ननिवारणार्थ नाशकतावच्छंदककोटि में योग्यत्व और विशेपत्व का गुणचिशेपणविधया प्रवेश करना आवश्यक है। योग्यपद का अर्थ है योग्यजातिमान अर्थान लौकिक्प्रत्यक्षस्वरूपयोग्यजातिवाला । अपेक्षाद्धि के द्वितीय क्षण में उत्पन्न अदृए = धर्म अधर्म तो योग्य नहीं है, क्योंकि उसमें लौकिकप्रत्यक्षस्वरूपाग्य जानि रहनी नहीं है। इस तरह वियोप का अर्थ है उभयावृति पानी दो विज्ञानीय द्रव्य में न रहनेवाला । संयोग नो आत्मा और पृथ्वी आदि विजातीय दो द्रव्य में रहने से विशपगुण नहीं है । इस तरह अपेक्षाबुद्धि के द्वितीय क्षण में उत्पन्न अदृष्ट गुण अयोग्य होने से पूर्व संयोगादि विशेषगुण नहीं होने में उनसे अपेक्षाबुद्धि का तृतीय क्षण में नाश होने की आपत्ति को अवकाश नहीं है।
चनु, । यहाँ अन्य विद्वान् का यह कथन है कि -> 'योग्यपट अतीन्द्रियजातिशून्य अर्घ का प्रतिपादक है 1 अदृष्ट आदि अतीन्द्रिय जातिवाल होने से अयोग्य है। अतएव यह नाक नहीं हो सकता है «- मगर यह ठोक नहीं है, क्योंकि योग्यजातिमान् इस अर्थ की अपेक्षा अतीन्द्रियजानिशम्प = प्रत्यक्षायोग्यजानिमभाववाला यह अर्थ गुगभन है । व्यभिचागदिदोषनिवारकन्न नहीं होने से यह गौरव अप्रामाणिक है।