________________
७.७: मध्यमस्यालादरम्प खग्गः . का. *साहाध्यकारिका मालन्यादिसंवादः
तदेवं योग-साहस्य-भानमनिरासाय 'चैतन्यस्वरूप' इत्यसूत्रयन् । 'परिणामी कर्ता साक्षाद्धोक्ता' इति सांख्यमतपतिक्षेपाय । तथाहि ते वल्वेिदमाचक्षते -> 'जीवो हिन क्वचिदपि परिणामते, अपकृतिविकृतित्वात् । अत एव तस्य कूटस्थत्वं श्रुतिसिन्दम् । न च
-* जयलगा घीयरूपादिकारणत्याकारणवीभयात्मकतापनि दुगारवत्पयुक्तमव भमतम् ।
तदेवं दर्शितरीत्या योग-सांख्य-भद्रमनिरासाय 'चैतन्यम्वरूप' इत्यसूत्रयन श्रीवादिदेवसूरिः प्रमाणनयनचालोकालङ्कारसूत्रे । 'परिणामी, कर्ता, साक्षाभोक्ता' इनि आत्मविशेषणनिपादानञ्च सांख्यमतप्रतिशंपाय । नथादि ने = साङ्ख्या: ग्बलु इदमाचक्षते - 'जीवो हि न परिणमते, अप्रकृतिविकृतित्वात् । तदुक्तमीश्वरकृष्णेन सांख्यकारिकायां मूलप्रकृतिरविकृति: महदायाः प्रकृनिविकृतयः सप्त । पोडमाकन्तु विकारः न प्रकृतिन विकृति: गुरुतः ।। (मो.का. ३) ध्याच्यानञ्च माठरवृत्ता पुरुषस्तु पुनर्न प्रकृतिरनुत्पादकत्वान, न च विकृतिरनुत्पन्नत्वात' (मा..पू. १२) इति । अत पत्र तन्य कूटस्थत्त्वं श्रुनिसिद्धम् । नदुक्तं वृहदारण्यकोपनिपदि 'असगा ह्ययं पुरूषः' (बृ. उप, ६/३/१६) इति । 'माक्षी चंता केबलों निगंगञ्च' इनि श्रुतिरप्यस्यैव साधिका । तदुक्तं योगन्यमण्युपनिषदि नित्यं शुद्धं या. बृ.पू. १) इति । अत एव 'भयान्य पुरुषः' (सां.स. १/?..) इति सांख्यसूत्रमपि व्यवस्थितम् । न च नित्यत्वं = ध्वंसा प्रतियोगित्वं पब तत् = कूटम्यत्त्वं, निरूपित कारणता का अनवच्छेदक है। मगर घट में दन्यत्वावच्छेदेन स्वीयरूपादिनिरूपिन कारणना के अभाव का व्यवहार नहीं होता है । अतः तटनरच्छेदक धर्म को तदभाव का अवच्छेदक नहीं माना जा सकता । अन्यथा = फिर भी नदनवञ्छंदक धर्म को तदभाव का अवछेदक माना जाय तब नो घट में भी घटीयरूपादि के कारणाकारणोनयस्वरूप की आपनि आयेंगी, क्योंकि भट्टमतानुसार घट में घटत्वावच्छेदेन पटीवरूपादि की कारणता और द्रव्यवायचंबन घटीयम्पादि की कारणता का अभाव माने जा सकते हैं। घर में घटत्व-द्रव्यत्यावच्छेदन दोनों का समावेश करने पर विरोध का परिहार भी हो जाता है। मगर घट में घटत्व-द्रव्यत्वापदेन स्वीयरूपादिकारणत्व- कारणत्वाभावांभयस्वरूप का व्यवहार नहीं होता है । ठीक वैसे ही एक ही आत्मा में आत्मत्व-द्रव्यत्वावदन ज्ञाना ज्ञानोभयस्वरूप का समावेश नहीं हो सकता। अतः आत्मा का ज्ञानाजानाभयस्वरूप • गुणदापभयस्वरूप माननेवाले भट्ट के मन का स्वीकार नहीं हो सकता - यह फलित होता है । यहाँ जो कहा गया है वह तो एक दिग्दर्शनमात्र है। विद्वान लोग इसके आगे भी विचार कर सकते हैं। यहाँ तक की विचार गृखला से आत्मा ज्ञानमय-ज्ञानस्वरूप-चैतन्यस्वरूप है - इसका, जो वादिदेवमुरिजी के प्रमाणनयतत्त्वालांकालंकार के वे परिच्छंद के .६ चें सूत्र में मात विशपण से विशिष्ट आत्मा के प्रथमविशपविधया निर्दिष्ट है, समर्थन हा जो नैयापिक, सांख्य और भट्ट के मत के निरासार्थ प्रयुक्त है . यह पाटकवर्ग के लिए ध्यातव्य है ।।
पूरुप. सर्वथा मिला है-स्यमत" परि । मूत्र में परिणामी, कां, साक्षातोक्ना' मा आत्मा के तीन विशेपणों का ग्रहण मांख्य मत के निरासार्थ किया गया है। सांख्य मनीपियों का यह मनव्य है कि आत्मा अपरिणामी. अकर्ता एवं साक्षात अभाक्ता है। हमकी सिद्धि के लिए उनका यह वक्तव्य है कि. 'जीव = पुरुष नामक २. यो नाच परिणामी नहीं है । वह कभी भी किसी परिणाम में परिणत नहीं होता है, क्योंकि यह अप्रकृतिविकृतिस्वरूप है। परिणाम का मतलब है पूर्व अवस्था का त्याग कर के उत्तर अवस्था की प्राप्ति । यह परिणाम उसी में मुमकिन है, जो किाका उपादान कारण हो या किसीका उपादेय कार्य हो । जैसे दूध दही का उपादान कारण होने में उस रूप में परिणत होता है । अतः दुध परिणामी कहा जाता है और नही उसका परिणाम । मगर भान्मा किसीका उपादान कारण या उपाय = कार्य नहीं होने से बह परिणामी नहीं है । इसीलिए आत्मा का कुटम्मच श्रुति में सिद्ध है । उपनिष्टादि में कहा भी गया है कि 'पुम्प अमंग है । पुरुष में रहनेवासा कूटस्थस्य नित्यत्वस्वरूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि सत्कार्यवाद में, जो सांख्यदर्शन के प्रवर्तक कपिल महर्पि के द्वारा मान्य किया गया है, सभी वस्तुग 1यंस की अप्रतियोगी होने से नित्य ही हैं। किसी भी वस्तु का मर्वया नाग - अभाव या सर्वधा असन् की उत्पत्ति मांख्यदर्शन में अस्वीकृत है। इसलिए सभी वस्तुओं में ध्वसनिरूपितानियोगिचाभावस्वरूप नित्यत्व होने में उन सब की अपेक्षा पुरुप में कुछ विशेषता न आ सकी । इसलिए पुरुप में रहनेवाले कूटस्थत्व का जन्यधर्मानाश्रयत्यस्वरूप मानना ही मनामिब है। जन्य ज्ञानादि धर्म का आश्रय होने में बद्धि आदि तत्त्व का दम्य नहीं कहा जा मकता किन्तु पुरुष को ही, क्योंकि वह किसी भी जन्य मुख, नख, धर्म, अथर्म, ज्ञान, इच्छा आदि का भाशय नहीं है।
यायिकसमात फूटस्खला . SATCH जागतित - सांत्य र