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*स्वत्वनिरुक्तिः
नित्यत्वमेव तत् सत्कार्यवादे सर्वस्य नित्यत्वात्, किन्तु जन्यधर्मानाश्रयत्वम् । फो रूपान्तरभावः परिणामः तदभावश्चात्मनि योगाद्यभिमत एवेत्यपास्तम्, अपरिणामिनोऽजनकत्वात्, परिणामिन एव मुत्पिण्डादेर्घलघुपादानत्वदर्शनात् । जन्यधर्माश्रयत्वे प्रसह्य परिणामत्वस्यैव प्रसक्तेः । न वैवं तस्य बन्ध-मोक्षाद्यनापतिः, इष्टत्वात् । तदुक्तं तस्माज्ञ बध्यते,
* जयलता &
सत्कार्यवाद सांख्ययनं सर्वस्य नित्यत्वात् सः प्रतियेगित्वात् । तर्हि किस्वरूपं तत् : इत्याह किन्तु जन्यधर्मानाश्रयत्वम् । कश्विन्तु वास्तविकसुख-दुःखादिसम्बन्धाधिकरणत्वाभाव एवं कुदरत्वमित्याह ।
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एतेन = पुरुषस्य जन्यधर्मानाश्रयत्वप्रतिपादनेन वक्ष्यमाणदपणेन च अपास्तमित्यनेनास्यान्ययः । रूपान्तरभावः परिणामः = परिणामपदप्रतिशयः सांख्यनाच्यनं तदभावः = रूपान्तराभावः अपरिणामित्वाच्यः चात्मनि योगाभिमतः = नैयायिकाभिगत एव । यथा पयसः परिणामः सांख्यैः प्रतिगद्यते तथात्मनीनान्तररूप परिणामां भवतीति नैयायिकेरपि स्वीक्रियत एव । ततश्च योगाभिमनमात्मनोऽपरिणामित्यच सांरन्य: 'अपरिणामी पुरुष:' इति वदद्भिरभिहितमिति तेषां गीतगायदर्शनप्रवेशी दुवरि इति शङ्काः ।
सांख्या: तन्निराकुर्वन्ति अपरिणामिनः अजनकत्वात् । यदि नैयायिकेरात्मा अपरिणामी स्वीक्रियते तदा तस्य सुखदुःखदसमवायिकारणत्वं नैयायिकाभिमतं नात्मनि स्यात् अपरिणामिनीनुपादानत्वात् । कुल इदमनायि इति चेन ? उच्चरते. परिणामिनः = भावान्तरप्रापकस्य एवं मृत्पिण्डादेः घटाद्युपादानत्वदर्शनात् । मृत्पिण्डादि: प्राक्तनपिण्डावस्थां परित्यज्य कम्बुग्रीवादिसंस्थानलक्षणभावान्तरं परिणामाद तिपायं स्वीकुरते तदेव घटानुपादानं भवति नान्यथा । इत्थं उपादानकारणत्वस्य परिणामित्वच्पायत्वं सिध्यति । अत एवात्मन्यरिणामित्यगनुपादान्यं साधयति व्यापकाभावस्थ थाग्याभावनिश्चायकत्वात । अत एवात्मनां जन्यधर्माश्रयत्वं जन्यधर्मवायिकारणत्वं प्रराह्य बलात्कारण परिणामित्वस्यैव प्रसक्तः, व्याप्यमत्रं व्यापकापलापस्य कर्तुमनहलान् । ततश्वात्मनोः परित्वं व्याहन्येत वायकानाम् । अतो जन्यमानाश्रयत्वमंत्र परिणामित्वं वक्तुं युज्यते । चैतन्यव्यवच्छेदाय जन्येति विशेषण। यत् न प्रागभृत्या भवनं किन्तु प्रागभिभूतस्याविभांवः | सत्कार्थवाद्यनिमनः । न च एवं पुरुषस्य जन्यधर्मत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताका भावाश्रपत्वस्वीकारं तस्य = पुरुषस्य बन्धमोक्षा
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एतेन । यहाँ अमुक मनीपियों का यह वक्तव्य है कि 'सांख्य का संमत परिणाम भावान्तरस्वरूप है, जैसे शुभ का परिणाम दधि और भावान्कर का आश्रय होगा परिणामी । भावान्तर के अभाव की अपरिणामस्वरूप मानना होगा जिसका आश्रय होगा पुरुष, क्योंकि यह अपने स्वरूप को छोड़ कर भावान्तर ज्ञान, सुख आदि को प्राप्त नहीं करता है । सुख, दु:ख आदि भाव से वह परिणत नहीं होता है। सुख, दुःख की उत्पत्ति के पूर्व जैसे आत्मा की जड़ अवस्था भी ठीक वैसे की उनकी उत्पति के बाद भी आत्मा की जड अवस्था ही होती है, जिसका स्वीकार नेयायिक करता है। ऐसा अपरिणामित्व तो नैयायिक को भी आत्मा में मान्य है। अतएव सांख्य मनीपी का नैयायिकमत में प्रवेश हो जायेगा मगर वह निरस्त हो जाता है, क्योंकि आत्मा में जन्यधर्मानाश्रयत्वस्वरूप अपरिणामित्व = कुस्वत्य का हम सांख्य मनीपी स्वीकार करते हैं, जो नैयायिक को मान्य नहीं है । नैयायिक तो मानते हैं कि आत्मा जन्य सुख दु:ख ज्ञान आदि धर्म का आश्रय है । मगर ऐसा मानने पर पुरुष को नैयायिक के द्वारा अपरिणामी नहीं माना जा सकता, क्योंकि अपरिणामित्व तो अजनकल
अनुपादानत्व का व्याप्य है। अपरिणामी कभी भी किसीका उपादान कारण नहीं हो सकता, क्योंकि जो कोई भी उपादान कारण बनता है वह परिणामी हो कर ही किसीका उपादान कारण = समवायिकारण हो सकता है। जैसे मृत्पिण्ड आदि अपनी पूर्व पिण्डास्था का त्याग कर के भावान्तर कम्बुग्रीवादिसंस्थान की प्राप्त कर के ही घट का उपादान कारण बनता हैं यह व्यवहार में देखा गया है। इससे परिणामित्व में उपदानकारणत्व की व्यापकता सिद्ध होती है। यदि नैयायिक को आत्मा में परिणामित्व मान्य नहीं है तब उपादानकारणत्व भी मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि व्यापकाभाव से व्याप्याभाव की सिद्धि होती है। तब तो सुख, दु:ख आदि की उपादानकारणता आत्मा में हो जायेगी, जिसमें न तो नैयायिकमत
में हमारा प्रवेश होगा और न तो हमारा अभिमत असिद्ध होगा ।
सांख्यमत
प्रकृति का ही बरा मोक्षादि नवं । यहाँ यह शंका कि यदि जन्म को अपरिणामी अनुपादानकारण मानी जाय तब तो आत्मा में