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०७२ मध्यमादरह गण्डका. १४
* उपसंवादः
नापि मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रथा प्रकृतिरिति ॥ (सां. का.६९) । तथा पलाशौ कर्ता of वा ततो वस्तुती भोक्ता, अकृतभोगे कृतनाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गात् । बुद्धिगतभोगयोगात्पुनर्भोक्तेत्युपचर्यते ।' -
ॐ जयलता
नापत्तिः इति वाच्यम्, इष्टत्वात् प्रकृतेरेव बन्धमोक्षाङ्गीकारात् पुरुषस्तु पुष्करपलालचन्निर्लेप एव । तदुक्तं सांख्यकारिकायामी वरकृष्णन, 'तस्मान्ने 'ति । तस्मात् पुरुषस्य निर्गुणत्वात् अपरिणामित्वाचेत्यर्थः । अत्र च तस्मात् कारणात् पुरुषों व बध्यते नागि संसरति गरमात् कारणात तिरेव नानाश्रया देवस्तुतिर्यग्योन्याश्रया बुद्ध्यहङ्कार- तन्मात्रेन्द्रियभूतस्वरूपेण बध्यते गुच्यते संसरति चति । अयं गुक्त एव स्वभावत्वात् । स सर्वगतश्च कथं संसरति ? अप्राप्तप्राणार्थं संसरणमिति | तेन पुरुषी वध्यते. पुरुषां मुच्यत पुरुषः संभरतीति व्यपदिश्यते येन संसारित्वं विद्यते सत्वरूपान्तरज्ञानात्तत्त्वं पुरुषस्याऽभिव्यज्यते तदभिव्यक्ती केवलः शुद्धः मुक्तः स्वरूपप्रतिष्ठः पुरुष इति । अथ यदि पुरुषस्य बन्धी नास्ति तती मोक्षीऽपि नास्ति, अत्रांच्य प्रकृतिस्वात्मानं बध्नाति मोचयति च यत्र सूक्ष्मशरीरं तन्मान्नकं विविधकरणोपेतं तत् त्रिविधन बन्धन बध्यते । उक्त प्राकृतेन चबन्धन तथा वैकारिकेण च दाक्षिणेन तृतीयण बद्धी नान्येन मुच्यते ॥ तत् सूक्ष्मं धर्मावर्मसंयुक्तम् (सां. का. ६२. गां. भा. ५.१३३) इति गौडपादभान् । तथा च पुरुषस्य सर्वदा निपत्वात् अपरिणामित्वाच न असी पुरुषः कर्ता न वा ततः = अकर्तृत्वात् वस्तुतः = साक्षात भोक्ता - सुखादिसाक्षात्कारवान् अकृतभोगे अकृतस्य स्वानियादितस्य सुखादेरनुभव कृतनाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गात इति । प्रकृत्या कृतस्य सुखादेः नाशः = प्रकृत्या अननुभवः कृतनादाः तस्य, तथा अकृतस्य = पुरुषाजनितस्य सुखादेः अभ्यागमः यहा कृतस्य
'पुरुषेणानुनवः = अकृताभ्यागमः, तस्य च प्रसङ्गदित्यर्थः । प्रकृतिप्रयत्नस्य नाशः = उपधानाव्याप्यत्वं प्रकृति निष्फलीत्यादाव्याप्यत्वमिति यावत् अकृतस्य = पुरुषप्रयत्नानावस्य अभ्यागमः = अनुषधानाच्यावत्वं पुरुषनिष्ठफलोत्पादाभावाऽच्यापत्यमिति यावत् योगपातादित्यर्थः ।
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न चैत्र पुरुपाभोक्तृत्वं कथं पुरुषः भोक्ता' इति व्यपदिश्यत इति वाच्यम्, बुद्धिगतभांगयोगात् = साक्षाद् बुद्धिगतस्यैव सुखादिमाक्षात्कारस्य सम्बन्धात् पुनः पुरुषः भीवता = सुखादिसाक्षात्कारवानिति उपचर्यते, तत्सम्बन्धस्योपचारनिमित्तत्वात् । ज्ञान, इच्छा, द्वेष आदि की उत्पत्ति नहीं होने से आत्मा का बन्ध भी नहीं होगा और बन्ध न होने पर आत्मा की मुक्ति भी नहीं हो सकेगी, क्योंकि जो बद्ध होता है उसीकी मुक्ति होती है । बन्ध और मोक्ष समानाधिकरण होने से सांख्यसम्मत अपरिणामी जन्यधर्मानाश्रय पुरुष का बन्ध एवं मोक्ष अनुपपन्न हो जायेगा इसलिए निराधार हो जाती है कि हम सांख्य विज्ञानों को पुरुष का बन्ध मोक्ष न होना अभिमत ही है । प्रतिवादी के इष्ट का आपादन कैसे हो सकता है । ईश्वरकृष्ण ने भी सांख्यकारिका में कहा है कि 'निर्गुण एवं अपरिणामी होने की वजह पुरुष वस्तुतः संघता नहीं है. मुक्त भी नहीं होता है एवं संसरण आवागमन नहीं करता है । ( अपितु ) प्रकृति (= बुद्धि) ही विभिन्न योनि के चैतन्याधिष्ठित शरीरों का आश्रय प्राप्त करती हुई संसरण, बन्धन एवं मोक्ष को प्राप्त करती है । इसीसे सिद्ध होता है कि पुरुष वस्तुनः कर्ता नहीं है किन्तु प्रकृति हीं की है। धर्म अधर्म आदि का अकतां होने की वजह पुरुष वस्तुतः सुख, दु:ख आदि का साक्षात् भोक्ता भी नहीं है । सुख, दुःख का उपयोग तो वस्तुतः प्रकृति (बुद्धि) ही करती है। यदि धर्म, अधर्म
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आदि का कर्ता न होने पर भी सुख दुःख आदि फल का उपभोग दीप की आपत्ति आयेगी । कृतनाश इसलिए कि धर्म, अधर्म को
साक्षात्कार पुरुष करे तब तो कृलनाश और अकृताभ्यागम करनेवाली प्रकृति (बुद्धि) है जिसको तत्काल सुख, मुख
का साक्षात्कार नहीं होता है ऐसा मानना न्यायप्रात होता है, जब पुरुष को तत्फलभोक्ता माना जाय करनेवाले को फल न मिलना ही तो कृतनाश है। एवं धर्म, अधर्म को नहीं करनेवाले पुरुष को तत्फल का अनुभव होता है वह अकृताभ्यागम दीप है । कुछ न करने पर भी फल की प्राप्ति ही तो अकृताभ्यागम दोष है। मगर करनेवाले को फल न मिलना और न करनेवाले को फल की प्राप्ति यह तो नादिरशाही है, जो न्यायोचित नहीं होने से मान्य नहीं की जा सकती। इसलिए पुरुष को सुख-दुःखादि फल का भोक्ता भी नहीं माना जा सकता । हाँ, उपचार से सुस्वाद का भोक्ता माना जाय तब तो कोई दोष नहीं है, क्योंकि वास्तव में बुद्धि में सुख, दुःख आदि के साक्षात्कारस्वरूप भोग की उत्पत्ति होती है मगर पुरुष बुद्धिमभिहित होने से एवं निर्मल बुद्धि में पुरुपगत चैतन्य का प्रतिविम्व पडने से पुरुष में सुखादि के भोक्तुत्य ज्ञानृत्य का आरोप होता है । तदय कि पुरुष साक्षात सुखादि का भोक्ता नहीं है। इस तरह सिद्ध होता है कि पुरुष सर्वथा अपरिणामी, एकान्तन: अकर्ता एवं साक्षात् अभोक्ता है ।
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