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७१४ मध्यमस्याद्वादरहस्य खगर: ३ का... नियावपिनावच्छेदकसविचार: * त्वस्य संसर्गत्वे बाधात । न हि धर्माद्यन्यतमत्वं धर्मत्वावच्छिमसमव्यापकतावच्छेदकम् । विधेयतावत्समव्यापकतावच्छेदकरूपावच्छिमव्यापकत्वस्य तथावं तु बहळ्यादेः द्रव्यत्वा
-* जयलला * व्यापकत्वस्य संसर्गत्व -- विधयान्वयितावच्छेदकसंसर्गवं स्वीक्रियमाण, तस्य 'दन्याणि धर्माधर्माकाश-जीव-समय- पुद्गला इत्यत्र बाधात् । बाधर्मर दर्शयति - न हि धर्माद्यन्यतमत्वं धर्मवाद्यवच्छिन्नसमन्यापकतावच्छेदक = विधेयतावच्छेदकीभून नर्मवादिषटकावच्छिन्नायाः समन्यापकताया अवच्छंदकं भवति । धादिषटकान्यतनत्वाश्रर्याभूतं धर्मास्तिकायद्न्य तवृत्त्यभावनिरूरित प्रतियोगितावच्छेदकताया विध्यतावच्छेदकष्धधर्मत्याकाशव-जीवन-कालत्यादिषु सत्त्वात् । तादात्म्यसंबन्धावछिन्न-धर्माद्यन्यनमत्यावच्छिन्नाधिकरणनाश्रयवृत्त्यभावप्रतियोगितानवच्छेदकताबा अधर्मत्वादिविधयतावचंद्रदकेष्वसन्चान विधेयतावच्छंदकीभूननम - वादिषटकावच्छिन्नसमव्यापकतावच्छेदकत्वं धर्मायन्यतमत्वे सम्भवति । अनः धमांद्यन्यतमत्वन धर्माधर्माकाशजीवकालपद्गलेष प्रध्यत्वावच्छिन्नब्यापकत्वलाभोऽपि नैव सम्भवति ।
नन मास्तु विधेयतासनव्याप्तरूपावचित्रव्यापकत्वस्य विधयतावच्छेदकावचिनसगव्यापकतावच्छिन्न धर्मावच्छिन्नच्यापकत्वस्य वा विधयान्वयितावनंदकसंसर्गत्वं किन्तु विधेयतावासमव्यापकतावच्छेदकरूपाचचित्रव्यापकत्वस्य तथावे = विधेयान्वपिता
के अन्वयितावच्छेदकसम्बन्धात्मक व्यापकता का अबछेदक धर्म, जो विधेयतावच्छेदकारच्छिन्नसमव्यापकता के अवच्छेदकविधया अभिमत है, इल्यान्यत्वविशिष्टसनाव हो सकता नहीं है। विधेयतावच्छेदकीभूत गुणकर्मान्यचविशिष्टमत्तात्व से अवच्छिन्न समयपकता का अवच्छेदक धर्म न्यान्यत्वविशिष्टसतात्व नहीं हो सकने का कारण यह है कि गुणकर्मान्यत्वविशिष्टमत्तात्यरूप से सना का अधिकरण द्रव्य है फिर भी द्रव्य में न्यान्यन्वविशिष्टसत्तात्य रूप से सत्ता नहीं रहती है । मतलब कि विधेयतावच्छेदकावच्छिन्नाधिकरण में रहनेवाले अत्यन्ताभाव का प्रतियोगितावच्छेदक द्रव्यान्यत्वविशिष्टसतात्य बनना है । विधेयतावच्छेदकावचित्र के अधिकरण में रहनेवाले अभाव की प्रतियोगिता का अनवच्छेदक धर्म द्रव्यत्वविशिसत्तात्व नहीं होने से वह कैसे विधयताबच्छेदकावच्छिच की समन्यापकता का अबच्छेदक बन सकता है ? अतः 'द्रव्यं गुणकर्मान्यत्वत्रिशिरसत्तावत्' इस स्थल में द्रव्यान्यत्वविशिष्ट सत्तावन रूपेण उद्देश्यभूत द्रव्य की व्यापकता का गुणकर्मान्यत्वविशिष्टसत्तास्वरूप विधय में लाभ होने के अनिष्ट प्रसङ्ग को अबकाना नहीं है" -
तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि विधेयतावच्छेदकयांच्छि बसमव्यापकलायच्छेदकावच्छिन्नव्यापकता को विधयान्वयितापगंदक सम्बन्ध मानने पर 'द्रव्यं गुणकर्मान्यत्वविशिष्ठसत्तावन्' इस स्थल में दोप का निराकरण होने पर भी 'च्याणि धर्माऽधर्माऽऽकाशजीव-समय-पुद्गलाः' इस स्थल में यह संसर्ग बाधित होने का दोष उपस्थित होता है। वह इस तरह कि प्रस्तुत में द्रव्य उद्देश्य है और धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि विधेय है। विधयतावच्छेदक हैं धर्मन्व, अधर्मत्व, आकाशव, जीवत्व, कालन्य और पुद्गलव 1 विधेयताअवच्छेदकधर्मपदक से अवच्छिन्न समव्यापकता का अवच्छेदक धर्मास्तिकायादिअन्यतमत्व, जो यहाँ प्रतिवादियों को उद्देश्य की विधेय में रहनेवाली न्यापकता के अवच्छेदकविधया अभिमत ई, नहीं हो सकता है । समच्यापकतावच्छेदक धर्मादिपटकभन्यतमत्व नहीं होने का कारण यह है कि धर्मादिषट्कअन्यतमत्व धर्मास्तिकाय में भी रहता है मगर उसमें अधर्म, आकार, जीव आदि तादात्म्यसम्बन्ध से नहीं है । मतलब कि विधयतापच्छेदकीभूत अधर्मत्व, आकाशत्त्व आदि धर्म धर्माद्यन्यतमत्य के आश्रयीभूत धर्मारितकाय में रहनेवाले अभाव की प्रतियोगिता के अवदक बन जाते हैं। विधेयतारच्छेटकीभून धर्मत्व, अधर्मत्व आदिधर्मपटक की समन्यापकता का अवच्छेदक धर्मादिपकअन्यतमत्व तर बनता यदि विधेयतावच्छेदकावच्छिन्न के आश्रय में रहनेवाले अभाव की प्रतियोगिता का अवच्छेदक धर्मादिपकअन्यनमन्त्र न बने और धर्मादिपटकअन्यतमत्व के अधिकरण में रहनेवाले अभाव की प्रतियोगिता का अवच्छंदक धर्मत्व, अधर्मच आदि न बने । मगर यहाँ ऐसा नहीं बनना है . यह हम बता चुके हैं। इसलिए विधेयतारच्छेदकसमन्यापकतावच्छंदकधर्मावन्निध्यापकल को विधेयायितावच्छेदक मानने पर 'च्याणि धर्माधर्माकाशजीचसमयपुद्गलाः' इस स्थल में धर्मादिषट्कअन्यतमत्वेन धर्मादिपदक में अल्पव्यापकता का लाभ नहीं हो सकेगा और उसे विधेयनान्वयितावच्छेदक सम्बन्ध न मानने पर विधेय में विधयताममच्याप्तरूप से उद्देश्यव्यापकतालाभ की मान्य करने की अवस्था में 'द्रव्यं गुणकर्मान्यत्वविशिष्टसत्तावत्' इस स्थल में द्रव्यान्यत्वविशिष्टसत्ताचेन विधय में दून्यच्यापकना का लाभ = ज्ञान होन का अनिष्ट प्रमग आयेगा । इस तरह दोनों नगद दीप मुँह फाड़ कर बड़ा रहने से उपर्युक्त प्रतिपादिमन अप्रामाणिक है ।
वह्नि में ट्रन्यावादिता गंमत्यापकतापति (4) विधयतावत्. । यहाँ बचाच के लिए प्रतिवादी की ओर से यह कहा जाय कि --> "विश्यानपितावच्छेदकसम्बन्धविधया