Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 221
________________ ७०४ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड : का ११ * तक्रकौण्डिन्यन्यायनिरूपणे पातञ्जलमहाभाष्यसंवादः * दातव्यं, कौण्डिन्याय दातव्यं' इत्यादी करणाकरणविकल्पप्रसक्त्या सामान्यपदस्य विशेषपरत्वं युक्तं, सामान्यरूपेणैव वा विशेषबोध: । नव्यास्तु → इतरबाधादिसहकारेण व्यापकतानवच्छेदकरूपेणाऽनुमितिरिवाज्ञ पदानुपस्थि ॐ जयलता "ब्राह्मणेभ्यो दधि दातव्यमित्यनेन ब्राह्मणत्वाऽविशेषात्कौण्डिन्य दानविधानं 'कोण्डिन्याय न दातव्यमित्यनेन कौण्डिन्यं दाननिषेधश्व युगपलभ्येताम् । तथा ब्राह्मणेभ्यो दधि न तव्यमित्यनेन कौण्डिन्ये ब्राह्मणत्वाविशेषात् दधिदानप्रतिषेधः 'कौण्डिन्याय दातव्यमित्यनेन च तस्मिन्नेव दधिदानविधिश्व युगपदेव लभ्येताम् । न तद दृष्टमिष्टं वा विरोधात असम्भवाच । | इत्यनेन हेतुना तत्र सामान्यपदस्य विशेषपरत्वं = विशेष लक्षणायाः स्वीकरणं युक्तम् । ततश्व ब्राह्मणपदं कौण्डिन्येतरब्राह्मणत्वेन लक्षणायाः स्वीकारात् कौण्डिन्येतरत्राह्मणसम्प्रदानक-दधिकर्मक दानविधिः कौडिन्यस्म्प्रदानक- दधिकर्मक- दानप्रतिषेधश्च युगपत्प्रथमविधिनिषेधवाक्याल्लभ्येते द्वितीपविधिनिषेधवाक्यान्तु कौण्डिन्यतरब्राह्मणसम्प्रदानक- दधिक्रमक दाननिषेधः कौण्डिन्यसम्प्रदानक- दधिकर्मकदानविधानश्च समकालमंत्र प्राप्यते । न च विरोधः, विधानप्रतिषेधकर्माऽपि विधिनिषेधाधिकरणभेदात् । ननु शक्त्यैवापादनसम्भवे लक्षणया तदुपपत्तेरन्याय्यत्वात्. लक्षणाश्रयणस्याऽतिजवन्यत्वादित्यत आहसामान्यरूपेण = ब्राह्मणत्वेन एव वा विशेषबोधः = ब्राह्मणपदात कौण्डिन्येतरब्राह्मणाविषयकरशादबोधी युक्तः, एवकारेण लक्षणया विशेषचोध इत्यस्य व्यवच्छेदः । अत ब्राह्मणत्वावच्छिन्न- कौण्डिन्येतरब्राह्मणनिष्ठसम्प्रदानताक-दधिकर्मदानविधिः कौण्डिन्यसम्प्रदानक-दधिकर्मक दाननिषेधश्व प्रथमवाक्यादायेत । ब्राह्मणत्वावच्छिन्नकौण्डिन्येतखाह्मणनिष्ठसम्प्रदानताक• दधिकर्मकदाननिषेधः कौण्डिन्यसम्प्रदानक-दधिकर्मक दानविधान द्वितीयवाक्यादवगम्यते इति फलितम एतेन तक्रकीन्विन्यायों प व्याख्यातः शब्दतः साक्षाभिषेवा करणेऽपि विशेषविधानस्य नदितरनिषेधकत्वलाभात् । तदुक्तं पानञ्जलमहाभाष्ये लीकिकोऽयं दृष्टान्तः । लोके हि सत्यपि सम्भवे बाधनं भवति । तद्यथा दधि ब्राह्मणेभ्यो दीयतां तर्क कौण्डिन्यानि सत्यपि सम्भ दभिदानस्य नक्रदानं निवर्तकं भवति (पा.म.सा. १-१-४७) इति । नव्यास्तु इति आहुरित्यनेनान्वेति । इतरबाधादिसहकारेण = महानसं चत्वरीयवदन्यादिबाध- तदनुपस्थित्यादिवलेन, व्यापकतानवच्छेदकरूपेण = धूमनिष्टव्याप्यतानिरूपितव्यापकताया अनवच्छेदकेन पर्वतीयह्नित्वेन रूपेण अनुमितिः पर्वतपक्षक-धूमलिङ्गकानुमितिः इव, अत्र ब्राह्मणेभ्यो दधि दातव्यं कौण्डिन्याप न दातव्यं', 'ब्राह्मणेभ्यां दधि न दातव्यं, कौण्डिन्यास दातव्यं इत्यादी विधिनिषेधस्थले पदानुपस्थितेन ब्राह्मणादिपदजन्यपिस्थितिप्रकारतानवच्छेदकेन अपि विशेषरूपेण afvarafaधि और उत्तरार्ध से अकरण = दधिदाननिषेध की कौण्डिन्य में युगपत् प्राप्ति होने की आपत्ति आयेगी । इसी तरह 'ब्राह्मणेभ्यो दधि न दातव्यं, कौण्डिन्याय दातव्यं' यहाँ पूर्वार्ध से एक ही ब्राह्मणस्वरूप कीण्डिन्य में दधिदाननिषेध = अकरण और पश्चात् भाग से दधिदानविधान करण के विकल्प की युगपन् = समकालीन प्राप्ति होती हैं, जो विरोधग्रस्त है । इसे हटाने के लिए ब्राह्मणपत्र की, जो ब्राह्मणसामान्य का वाचक होता है, ब्राह्मणविशेष कौण्डिन्यभिन्न ब्राह्मण में लक्षणा करनी युक्तिसंगत है । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि ब्राह्मणपद से सामान्यरूप से = ब्राह्मणत्वेन विशेष = ब्राह्मणविशेष कौण्डिन्यभित्र ब्राह्मण का बोध होता है। अतः प्रथम वाक्य से ब्राह्मणत्वेन ज्ञायमान कौण्डिन्यभिभवाहण में दान का विधान होगा और दूसरे वाक्य से उसीमें दान का निषेध होगा। अतः प्रथम वाक्य के उत्तरार्ध से कौण्डिन्य में दान का निषेध या दूसरे वाक्य के उत्तरार्द्ध से कौण्डिन्य में दान का विधान होने में कोई विरोध उपस्थित नहीं होगा । ब्राह्मणत्वेन ज्ञापमान कौण्डिन्येतर ब्राह्मण को दान देना, कौण्डिन्य को नहीं तथा ब्राह्मणत्वेन ज्ञायमान कौण्डिन्येतर ब्राह्मण को दही न देना और कॉण्डिन्य को देना ऐसा अर्थबोध नानने में विरोध को अवकाश कहाँ ? इस द्वितीय पक्ष में ब्राह्मणपदकी विशेष अर्थ में लक्षणा करने की आवश्यकता नहीं है । पदानुपस्थितरूप से शाब्दबोध - जव्य वैयायिक = = = नव्या । यहाँ नव्यनैयायिक का यह वक्तव्य है कि जैसे पर्वतो द्धिमान् धूमातृ' इत्यादि स्थल में धूमव्यापकतावच्छेदक त्व होने पर भी पर्वतीयवहिन ही, जो धूमव्यापकतानवच्छेदक हैं, नति की अनुमिति होती है, क्योंकि वह्नित्वेन ि की अनुमिति का कोई प्रयोजन नहीं है । यहाँ महानयवदित्य चत्वरीयवत्व आदि रूप से वह्नि की अनुमिति नहीं हो सकती; क्योंकि पर्वत में, जो यहाँ पक्षविया अभिमत है, महानसीय वहि आदि का बाध है । इस तरह इतरबाध आदि

Loading...

Page Navigation
1 ... 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363