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* तशवकालिनियुक्त्यनिदाः * 'अहं ज्ञाता' इत्यादावहन्त्वज्ञानयोः स्फुटमेव सामानाधिकराग्यप्रतीते: । सा भेदेऽभेदे वेत्यन्यदेतत् । कि बदौ जडघटाकाराधा निर्हेतुकं,दज्ञानसामग्याहिविषयरूपघटाकारस्तु न जडः
- जयलता___ नदपास्तत्वे हेतुमाह 'अहं ज्ञाना' इत्यादी मानसमाक्षान्का अहंत्व-ज्ञानयोः स्फुटमेव सामानाधिकरण्यप्रतीनः ।। कृनिः स्वसमानाधिकरणमेवादाएं जनयति, तचा:दष्टं बसमानाधिकरणमेव भागं जनपदीनि कृत्यदृष्टभागान परगण्या सामानाचकरण्यप्रमितिबनं 'अहं ज्ञाता', 'चतनोई करोमि इति समानाधिकरणयमितिम्वरूपप्रनीतः ज्ञानमात्मन पब धर्मः । किन ज्ञातुभिन्न चेनने मानाभावान पुरुषत्वसमानाधिकरणमेव जानादिकम । न च चेतना करोमातिप्रतीतः चतन्यांश ममत्वमिति वाच्यम, विनिगमकाभान कृत्यंशेऽपि तथात्यापन: । एतन कर्तृत्वाश्रया न चेतनः जन्यधमाश्रयवादित्यपि निरम्नं, द्धिः कर्तृत्वाभाववती जन्यधर्मावयवत् घटयदित्यम्यागि मनचत्वात । न च 'अहं ज्ञाना इतिप्रनातिवसान नेपाधिकादिमानना ज्ञानात्मनो दापि सिध्येदिति वाच्यम. यतः सा अहं शान तिप्रनीतिज्ञांगत्गमाः भेद मत्युपपद्यत दे चत्यन्यदनत - न साम्प्रतं कृतम, अहंव-ज्ञानयों वैयधिकरयनिगसम्यव प्रक्रान्तत्वत् । दशवकालिकनिर्वक्त्यनुसांगणे मानगोमाधिकार नदेशपालम्भारमानं ज्ञानव्यम् ।
याक्तं बुद्धी घटाकारादिपरिणाम: ज्ञानमित नराकरणायोपक्रनन - किञ्चति । बुद्धी जयटाकागधानं निर्हेतुक:निष्प्रयोजनम्, बुद्भरच ज्ञानत्वात, उपलश्चिापि ज्ञानात्रातिरिनाने तदक्तं न्यायसूत्र ‘बुद्धिरूपलविज्ञानमित्यनान्तरम' (न्या. सू.१-१-२५) इनि । न चैत्र घटज्ञानस्य बटाबगाहित्यानुगनिरिति वाच्यम्. घटस्य घटज्ञाननिविपिनानिम्पकत्वन नद्भागःपपनः, घटादिविषयनिष्टविषयता - निरूपितविपयितया प्रतिनियविषयभानोपपनः । एतेन बद्धी विषयाकारानाहान घरजानं वटाप प्रकाटादित्यपि प्रत्याख्यातम्, घटबुद्धिनिष्टयपदिनानिपिनाविषयतानबछंदकत्वन पटवारेगमपच्य भानापन: ! न च मया विषयाकारो ज्ञान स्वीकनः त्वया त वियिताविशेष इति शब्दभेद बनत अभट इनि वाच्यम्, धिपधिनाया ज्ञानानतिरकादिति विशेषात् । घटज्ञानसामग्याहिताविपयतास्पघटाकारः = वक्षरादिधरज्ञानसामग्रीसम्पादिम्पिकतानिपत -
* जाणादि पुरुष" - स्याहादी * आहे. । मगर पूर्वोक्त युक्तियों के द्वारा आन्म को ज्ञानमय सिद्ध कर देने से उपर्युक्त सांख्यमत निगकृत हो जाता है। फिर भी प्रकरणकार श्रीमदनी दूसरे ढंग से मांज्यमत का निरसन करते हुए कहते हैं कि • सब रांगों को एसी प्रतीति होती है कि 'अई ज्ञाना' अर्थान 'मैं ज्ञानवाला है। इस सार्वजनीन प्रनीति में अहत्व के समानाधिकरण ज्ञान का भान होना है। जिसमें अहत्व रहता है उसी में ज्ञान की प्रतिनि होने की वजह ज्ञान अपदार्थ पा का धर्म है। यदि जह बुद्धि का धर्म ज्ञान होता तब ना 'बुद्धिः ज्ञात्री' ऐसी प्रतीनि होनी चाहिए । अहं पद से तो बुद्धि का नहीं किन्तु पुरुष = आत्मा का ही भान होता है । इस तरह 'नीलो घटः' प्रतीति से जैसे घर में ही नील रूप का भान होता है, न कि पट में, ठीक वैसे ही 'अई ज्ञाना' इस प्रतीति से पुरूप = अहंपदार्थ में ही ज्ञान का भान होन है, न कि बुद्धि में - यह सिद्ध होता है । 'अहं ज्ञाता यह प्रतानि आन्मा और ज्ञान में भेद मानने पर उत्पन्न हो सकती है या अभेट मानने पर - वह अलग रात है । इस विषय की चर्चा मांख्यमननिराम में अनुपयोगी है । यहाँ तो ज्ञान जइबुद्धि का धर्म नहीं है - इतना ही सिद्ध करना अभिमन है। इसके अतिरिक्त बात यह है कि मान्य मनीषियों ने पूर्व में जो कहा था कि → 'जड बुद्धि में इन्द्रियप्रणालिका से घटाकार = विपयाकार का आधान होता है अर्थात् वशुरिन्द्रियादिस्वरूप नालिका के द्वारा बुद्धि घटाकारादि रूप में परिणत होनी है' - वह भी असंगत है, क्योंकि जह बुद्धि में जड घटाकार मानने की कोई आवश्यकता नहीं है । विना हेतु के क्या जड विषयाकार की बुद्धि में कल्पना की जाय ? बुद्धि में जड विपयाकार का परिणाम उत्पन्न न होने पर भी घटज्ञान में घटादि के अभान की या घट-पट-मट आदि सब के भान की आपनि नहीं हो सकती है, क्योंकि घटज्ञानसामग्री से घटज्ञान में घटनिष्टविषयता से. जो घटत्वारभित्र होती है न कि पटत्व-मटरमादि में अवच्छिन्न = नियन्त्रित, निरूपित विपयिता का आधान होने मे घद का ही भान घटज्ञान में अवश्य होगा । घटज्ञाननिविपयिना की निरूपकता घट में होने मे और पटादि में न होने में उम प्रीति की घटायगाही मानना और पटादिअवगाही न मानना मनासिब ही है । हाँ, घटज्ञाननिष्ठ विपपिना को सारत्र्य नांग विषयाकार कर सकते हैं, मगर वह जर द्धि का धर्म नहीं है किन्तु चनना का धर्म है। यहां यह शंका नहीं होनी चाहिए कि - 'चेतना भी प्रनिरिम्यान्मक होने में जवृद्धिस्वरूप ही है, क्योंकि बुद्धि में ही चैतन्यप्रतिबिम्ब पड़ता है' - क्यों कि चेतना प्रतिविम्बरवरूप नहीं है किन्तु ज्ञानात्मक है।
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