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३६६ मध्यमस्वादादरहस्य खादः ३ . का. * मुखममवाप्याम ति प्रतिविचार:*
अथ स्फटिकम्त्यादिगुणस्य तिरोहितस्यापि तापिच्छश्यामिकादिदोषाऽविरोधित्वं हामिति चेत् ? त, आत्मन्यज्ञानादिदस्यौपाधकस्याउनभयुजमाद बोधांश-द्रव्यांशयोरेव प्रकाशाप्रकाशरूपत्वात् । न चैकत्र ज्ञानाज्ञानयोर्विरोधः, भेदाभेदवविरोधात । अत एव 'सुखमहमस्वासं न किचिदवेदिधमिति सुषुप्त्युत्तरकालीनोऽपि बोधः सङ्गच्छते शाह ।
- जयलता. विद्यानन्दानुयायी शङ्गत अति । चेदित्यनेनास्यान्वयः । स्फटिक श्वेत्यादिगुणस्य तिरोहितस्यापि नापिञ्चम्यामिकादिदोपाविरोधित्वं दृष्टम् । स्फटिंक तिरोहितश्चतिमायाः सञ्चापि नापिनश्यामकारूपी दांप उपजायते निरोहिनिर्मलनासच नापिच्छमलीनिमा जायन इनि इष्टत्वान्न निरोहितगणग्य दोपततिबन्धकत्वम् । अन एवानादिनिगादीवानां निगहिनकवलज्ञानादिगुणस्य नाज्ञानादिदोषप्रतिबन्धकत्वमित्यान्मत्वान्यधानपगन्या गणनभावल्वकल्पनं न्यायमनि चत् ! न दृष्टान्नदाटन्निकयाः वैषम्यात् । स्फटिके हि तिरोहितदशीकल्यादिगुगसच तापिन्छादिलक्षणोपाधिसम्पादिन पश्यामिकानिदोषी न नियंत न तु अनागाधिकः दोष इति तिरोहितगुणस्य न दोषप्रतिबन्धकत्वं किन्तु वानीराधिकदोषप्रनिरन्धकन्न । न नब प्रतियनावच्छंदकगौरवदोष इति वाच्यम, विशएधर्मेण व्यभिचागज्ञान सामान्यधर्मणान्पधासिद्धृत्वात । न च तथापि निगहिनज्ञानादिमास्यान्नादिनिगीदजीवाज्ञानादिप्रतिबन्धकल्वं न स्यान अज्ञानादनपाधिकल्लादिति वाच्यम, आत्मनि = आत्मत्वावच्छिन्न अज्ञानादिदोषस्य श्रीपाधिकस्य = उपाधिजन्यस्य अनभ्युपगमात । क हितापिन्छासन्निधाने स्फटिक पत्रं यथा दयामिकांदरभावः प्रेक्ष्यत तथा नादिनिगोदजीवादिषु पूर्वमज्ञानादिदो पस्या भावः स्वीक्रियते स्याद्रादिभिरपि, निगावजागनामियाज्ञानादिदोषागामाचमादित्यात । इत्यञ्च विनिगमनाचिरहात् गुणस्वभावत्वमित्र दीपस्वगायनमयात्मत्वान्छिन्न रबीकर्तव्यम् । न हि जीवानामतायता प्रबन्धेन गुगस्वभावत्वं प्रतिक्षिप्यते किन्तु दोषस्वभावत्वमपि तुल्ययुक्त्या साध्यते । ततश्च ज्ञानाज्ञान्ने भयम्वरूप व जीचा भ्युपगन्तव्यः, आत्मनी बोधांश-द्रव्यांशयोरेव प्रकाशाप्रकाशरूपत्वात = ज्ञानाज्ञानात्मकन्वान । न च एकत्र आत्मनि ज्ञानाज्ञानयोः बिरोधः अन्धकारप्रकाशयोरिवति वक्तव्यमा भेदाभदवदविगंधात । वृक्ष मुलांझ-झारखांशयां : कापियागिभिन्नत्य. तदभिन्नत्यक्त् आत्मन्यपि बोधांश-द्रव्यांशयोानाहानात्मकत्वभनपायमेव । अत एव = आत्मनो ज्ञानाज्ञानात्मकत्वादव, 'सुखमहमस्वाप्सं न किनिदवेदिपमिति सुपुप्युत्तरकालीनोऽपि बोधः सङ्गच्छते, सुखस्यावश्यवदनीयत्वन सुरबबांधे गि 'न किश्चिददिपमिति ज्ञानात ज्ञानाज्ञानाभयस्वभावत्वमेवात्मनः सिध्यति । आत्मनः ज्ञानाज्ञानोभयात्मकत्गनगीकारे यं,
बजाज और अज्ञान एकत्र अविरोधी - ] अय सफ। यदि दिगम्बर की ओर से यह कहा जाय कि → 'तिगहित गुण का निगोद जीवों में स्वीकार करने पर भी मिथ्यादर्शनादि दोषों के विलय की आपत्ति नहीं आयेगी, क्योंकि निरोहित गुग दोपविगंधी नहीं है, किन्तु प्रगट प्रबल गुण ही दोपविरोधी है । यह तो व्यवहार में भी प्रसिद्ध है । जैस स्फटिक में वन्य आदि गुण होते है ये नापिच्छ = तमाल पुप्प आदि के मनिधान में तिरोहित हो जाने हैं फिर भी स्फटिक में श्यामिका आदि दोप रहते ही हैं। नापिन के श्याम' रूप से स्फटिक में श्यामिका दोप का आधान होता है, उसका विगंधी स्फटिकगत निगहिन बनमादि गुण नहीं होना है। अनः निगोद के जीवों में निराहित गुण होने पर भी मिध्यान्वादि दाप रह सकते हैं' - तो यह भी अमंगन है, क्योंकि दुरान्त और दाष्टान्तिक में पम्य है । स्फटिक में जो ग्यामिका आदि दोप हैं आपाधिक है और निगादादि जीवों में जो अज्ञानादि दोप है ये अनोपाधिक है, स्वाभाविक है। स्फटिक पहल न होता है बाद में नापिट के मनिभ्य से उसमें श्यामिका आती है और तापिच्छ के चले जाने पर बह चली जाती है। इसलिए स्फटिक में दयामिका दांप औपाधिक है। जब कि अनादिनिगांद के जीवों में अज्ञानादि दाप औपाधिक नहीं होते हैं। पहले व नीव अज्ञानानि दोर में हित थे और बाद में किसी उपाधि के सन्निधान से उसमें अज्ञानादि दोष भाने हैं . पसा हो नब अनादिनिगोर के जीवों में अज्ञानादि को औपाधिक मान जा सकते । मगर मा नहीं है। अनादि काल में निगांद के जीयां में अज्ञानादि दोष रहने हैं। हमारा यहाँ यह वक्तव्य है कि तिराहिन गण श्रीपाधिक दोप का विरोधी हो सकता नहीं है, मगर अनापाधिक = साहजिक दोपों का तो वह विरोधी होगा ही । इसलिए निगोदजीवां में कंबल गुणस्त्रभावन्न मान कर निगहिन गुण का स्वीकार करना उचित नहीं है। उचित तो यही है कि अनादि निगाहजीवों में भी गुण-दीगंभपस्वभावत्व का स्वीकार किया जाय । प्रकाशाप्रकाशाभयात्मकता यानी ज्ञानाज्ञानस्वभावत्व का अनादि निगटजीव, व्यवहाग्गशिनीव, मक्तीन आदि में स्वीकार