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* सिमान्दानुशासनसंबाटः * समवायसम्बन्धः सम्बाद, तस्य निरस्तत्वात् । तस्यैकत्वेनाऽतिप्रसजाकत्वात, स्वभावापेक्षिणा तेलाऽतिप्रसहगभइगे स्वभावस्यैव तत्वौचित्यात् । किये, परस्यापि 'ज्ञानमय' इत्यादिश्रुत्या ज्ञानरूपतैवात्मनोऽभ्युयमन्तुमुचिता । न च
-* गयला - समवायस्य प्राक प्रथमकारिकान्याख्याने (पृ.४८, विस्नरनो निरस्तत्त्वात् । अस्तु बा पभिमतः समायः नधापि यदि समवायमाहात्म्यादात्मनि ज्ञानं समबति नदात्गनां समवायस्य न व्यापित्वादेकत्याच सर्वात्मसु विक्षितात्मज्ञानं किं न समति विाषाभावात । एवञ्च जिन्दसंबंदनन नदवारमाणिस्त तन्ने प्रनिगोपन्नित्यागयेनाह - तस्य = ज्ञानवनिरिकरण समवायस्य एकत्वेन - एकभानन्यक्तिरूपतया, अतिप्रसन्नकन्वात । त्र ज्ञानोत्पाद मैनादपि वस्तुसंवेदनप्रसङ्गादिति । यांगनां पदेव मञ्चन सबंदा मात्र सर्वेषां मविषयकसाक्षात्कारणम् गोपि दुर्निबार न्यायिकगतं । समचायस्य कन्येपि ज्ञानोन्यादकृत नेनात्मस्वभावविशेषापनि नातिप्रसङ्ग इनि वाच्यम, स्वभावापेक्षिणा तेन - ममगयन अनिप्रसङ्ग स्वभावस्येव = आत्मस्वभावविगमस्यच तत्त्वीचित्यान् = ज्ञाननियाम्कत्वौचित्यात् । यद्वा कस्मिंश्चिदात्मनि ज्ञानान्गाद बटादारनियमनायेन जाननुत्पर्धन, समवायस्यकत्वाद् घटादेव समवायानुयोगित्वात् । ततश्च घटादडस्य आित्मन इव ज्ञानिल्पसङ्गः । न च बटादी ज्ञानसगवायसच्चऽपि ज्ञानबिहान झानित्यव्यवहारप्रसङ्ग इति वाच्यम, प्रतियोगिसम्बन्धसत्वं तदवच्छिन्न प्रतियोगिताका. भागायोगादिति पूर्वमुक्तत्वान् । एतेन घटादी ज्ञानसम्वायसन्च-पि बानोत्पनय समचायनानुयोग्यात्मस्वभावापक्षणतिनमा इत्याप प्रत्युक्तम्, स्वभावापेक्षिणा = आत्मस्वभावापेक्षिणा तेन = समवायन अतिप्रसङ्गमों = घटादी ज्ञानान्पादपाननिक्षेप त स्वभावस्य = आत्मस्वरूपस्य एव तत्त्वौचित्यात = ज्ञानमयत्वौचित्यात् ।
किन परस्य = वेदप्रामाण्यवादिनी नैयायिकस्य अपे 'ज्ञानमय' इत्यादिश्रुन्या ज्ञानरूपतव आत्मनोऽभ्युपगन्तुं उचिता. श्रुनेरन्यार्थकतयारपादन प्रमाणाभावान् । एतेन नन्न लक्षगाऽपि प्रत्युक्ता, श्रुती लक्षणाया आयोगाद, अन्यत्र प्रसिद्धस्य - वादन्यत्रा रोपसम्भवनात्मनि ज्ञानमरत्वो पधारस्यायनवकाशात । न त्यात्मन्यतिरिकरय कस्यचिज्ज्ञानमयत्वं सम्भवति स्वाकियने वा नत्रभवद्भिः भवद्भिः । प्रकृते व मनप्रत्ययः वाचुर्य प्राधान्ये वा बाध्यः । तदु सिद्धहमशन्दानुशासने 'प्रकृतं मयट' (सि.हे.७-३-१) इति । 'प्राचुर्येण प्राधान्यन वा कृतं प्रकृतम् तदर्धात न्या) मयट म्यात' इति तल्लघुवृत्तिगाठः । यद्वा 'अस्मिन' (५-३-२) इति सिद्धहेमसूत्रेण मयप्राप्तिभावनीया । तदुनः लघुवृनौ 'प्रकृतादिस्मिन्निति विषये मयट म्यान. अपूपमयं पर्व इनि । अस्मित्रिनि विषय इत्यस्य सम्तम्यर्थ इत्यर्थः । ननश्च ज्ञानं प्रकृतं = प्रचुर प्रधानं या अम्मिन्निति
हैं । समवाय का ही प्रथम काग्किा के ज्यारयान में (देखिये प्रथम खण्ड पृष्ट ४८) निरास किया गया है। जब कि समवाय ही असिद्ध है, तब पृथक ज्ञान और जट्ट आत्मा समराय से सम्बद्ध ही कैसे हो सकते हैं ? इसरी बात यह है कि नायकसम्मन समवाय का अभ्युपगमबार में 'तुप्यतु..' न्याय से स्वीकार कर लिया जाय ना भी नयायिकसंमत समय एक होने की वजह जैसे हम आत्मा का ज्ञानी-चंतन कहते है क वसे ही घट आदि को भी चंतन कहने का व्यवहार होने लगेगा। यद में रूपादिप्रतियोगिक समवाय तो है ही तथा रुपसमवाय और ज्ञानममवाय एक होने से ज्ञानसमवाय भी घट में रहता ही है। इम अतिप्रसंग के निवारणार्थ यदि नैयाबिक की ओर से यह कहा जाय कि → 'बट में ज्ञानममवाप होने पर भी ज्ञानोत्पत्ति के लिये समवाय स्वभाव = अनयागिविश्या आत्मग्वभाव की अपेक्षा रखता है । घट में आत्मस्वभाव नहीं होने से घर में ज्ञानोत्पत्ति की आपत्ति को अवकाश नहीं है -नो यह भी निराधार है, क्योंकि घट में ज्ञानोत्पत्ति के अनिप्रसंग को हटाने के लिए स्वभाव की अपेक्षा समचाय करता ही है तब तो आत्मस्वभाव को ही ज्ञानमय मानना उचित है । बीच में ममवाय को खड़ा करने की कोई जरूरत नहीं है । ऐसा मानने पर तो आन्मा अनायास ही बैतन्यस्वरूप सिद्ध हो जायेगी, क्योंकि ज्ञानमय कहाँ पा चैतन्यस्वरूप कहा, मिर्म शब्द में फर्क है, अर्थ में नहीं ।
जगाय आत्मा श्रुतिसिल किञ्च । यह मानना जैसे नर्कसंगत है ठीक वैस आगमसंमत भी है, क्योंकि नयायिकसंमत ति = वेद-उपनिषत् से भी सुसंगन ही है । अनि में कहा गया है कि . 'ज्ञानमय आन्मा' । इससे ही सिद्ध होता है कि आत्मा ज्ञानस्वरूप है, स्योंकि मपट् प्रत्यय स्वार्थिक है । प्रकृत अर्थ में मयट् प्रत्यय का व्याकरण से विधान होता है। यहाँ इस शंका का कि
→''वेद-उपनिपत में तो 'चक्षुर्मय आत्मा, पृथिवीमय आत्मा' इत्यादि भी कहा गया है। मगर आत्मा चक्षुस्वरूप या पृथिवीस्वरूप - --