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४८ मध्यमस्याद्वादरहस्ये बण्डः ३ का.५५ *दाधिन्युन्तियारध्यानम * विधेयतायां पारिभाषिकावचोदकत्वानपायात् । न चैवं गौरव, समव्यापकतावच्छेदकत्वेनोपलक्षणीभूतेनैव तत्तधर्मानुभमादिति :रापास्ता, ताहशधर्म विधेयतासमानाधिकरणत्वविशेषाणेऽपि संयोगादेर्गुणत्वाधवच्छिमव्यापकतालाभप्रसगात् । विधेयताऽभाववदवृत्तितादृश
-ॐ जयलता *= स्वरूपसम्बन्धात्मकावच्छेदकतावचगि विश्रयस्वरूपाय विधेयतायां पारिभापिकाबच्छेदकत्वानपायात = स्वरूपसम्बन्धानिरिनस्य तान्त्रिकाभिमतस्याउनुगतच्यावच्चंदकत्वस्याच्या धात् । पतेन 'सम्भवति लबी, गरी तदभावात' इनि दीधितिकारवचनमपि व्याख्यातम् । नतश्च विधेयतावच्छिन्नसमव्यापकताबछेदकावच्छिन्नव्यापकत्वस्य विधेयान्ययितावच्छेदकसम्बन्धत्व नास्ति दोषलशा-पि । न हि बहिनिष्ठचिंधयता वच्छिन्नसमल्याकन वच्छेदबहित्यावच्छिन्नव्यापकत्वसम्बन्धन धूमवचावछिन्ने बहरचयः बाधितः । न च एवं = विधेयतायां पारिभाषिकस्याःतिरिक्तावच्छंदकत्वस्य स्वीकार गौरव = अननुगतावदककल्पनागौरवं इति वात्र्यम्, विधेयतात्यह्नित्वत्वा दृदयनानिरूपकतात्यादिना समयापकताबच्छेदका भूतविधयता-वस्थित्वादृश्यता निरूपकनादीनां अननुगमेऽपि समन्यापकताबदकलेन उपलक्षाभूतेन = परिचायकन पच, न नु विषणरूपण, नत्तधर्मानुगमात् = | विधेयतावदित्वाश्यतानिरूपकत्वादिधर्मसङ्ग्रहमम्भवाद । समन्यायकतावच्छेदकत्वस्य विशेषणत्वं आत्माश्रयदोष इत्यत लक्षणीभूतनवति तदविशेषणम । इत्थश्च विधेयताचयितावचंदकस्मविध्या विधेयतावच्छिकसमव्यापकनारच्छंदकावच्छिन्नन्यायकत्वस्य स्वीकारे नास्ति बाधकं किञ्चिन । न हि 'सत उज्यं मयगी'त्यत्र संयोगमात्रनिष्ठविधेयनाचिनसमव्यापकतावच्छेदकल्लं द्रव्यत्वेऽस्ति, येन द्रव्यत्वन संयोगस्यायव्यापकत्वलाभः प्रसज्यंतति शङ्काग्रन्धाभिप्रायः ।
बिराकरत - तादशधर्म = स्मव्यापकतावदकधर्म, विधेयतासमानाधिकरणत्वविशेषणेऽपि = विधयतारामानाधिकरण्यात्मकविधयत्तापच्छिन्नत्स्य विशेषणत्वांपगम 'सत् त्र्यं स्यांगा त्यादी संधोगादेव्यत्वेन व्यापकत्वलाभनिराकरणपि, 'दृश्यं संयोनी'त्यादी विधयस्व संयोगादः गणवाद्यवच्छिनच्यापकतालाभप्रसड़गान, गुणत्वादः संयोगादिन्ठिविधेयतास्मानाधिकरणवान । नहि संयांगत्वाद्यवछिन्नविधेयतानामान्य निरूपिताधिकरणतान्छिन्नवृन्यभावप्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नत्वं गणत्वादेः सन्भवनि ।
ननु, समन्यापकनावदकधर्मे विधेयसान्यनिरूपिनवृत्तिनाशून्यत्वस्य च विशेषणल्वमस्तु । नती न 'द संयोगी'त्यादी संयोगादेः गुग्गत्वेनादयव्यापकत्वलाभप्रसङ्गः गुणत्वस्य विधपता-तिरिक्तवृत्तित्वादित्याइझटकायामाह- विधेयताऽभाववदवृत्तितादृष्ट्य -
स्वीकार करने पर विधेयता विधेयस्वरूप होने से विधेयता में रहनेवारी अवच्छेदकता भी विधयम्वरूप हो जायगी और विधेय = संयोग अननुगत होने से महागीरव उपस्थित होगा। अतः विधेयता को अवछटक नहीं मानी जा सकती यानी विधेयता में स्वरूपसम्बन्धात्मक अवछंदकना मान्य नहीं हो सकती । मगर पारिभापिक अवच्छंदकता यानी नान्त्रिकपुरुषअभिमत अवधेचकना का विधेयता में स्वीकार करने में तो कोई बाध नहीं है, क्योंकि स्वरूपमम्बन्धात्मक अवच्छेदकता में यह विरक्षित अवच्चंटकता भित्र है, अननुगत नहीं है। वहाँ गौरख दोप का भी अवकाश नहीं है, अर्थात् विधयता की भाँति अन्य धर्म में भी समव्यापकता. अवच्छंदकना मानने पर भी समव्यापकतावच्छदक धर्म अननुमत बनने से आते हा गौरव दोष को भी अवकाश नहीं है, क्योंकि यहित्व, विधेयना, उद्देश्यतानिरूपकत्व आदि धर्मों का, जो अननुगतत्वन प्रतीयमान हैं, ममन्यापकतावच्छेदकत्वस्वरूप उपलक्षणीभूत धर्म से अनुगम हो सकता है, क्योंकि ममन्यापकतावदकता उन मब में अनुगत है, साधारण है । समव्यापकता. वच्छंटकना विशेपण नहीं है, किन्तु उपरक्षण है। अर्थात् च्यावर्नक नहीं है किन्तु परिचायक है। अनः समव्यापकदारच्छेदयता को अनुगमक मानने में किसी दोष का अवकाश नहीं है। इसलिए विधयान्वयितावच्छेदकसंसगंधदकविधया विधेयतापदिन्नसमव्यापकता का भान मानने में किमी दोप का अवकाश नहीं है ।'' -
नादा. । मगर यह बक्तव्य भी इमलिए निगधार हो जाना है कि ममच्यापकतावच्छंटक धर्म के विशेपणविधया : विधयताबकिन्नत्व = विधयनासानानाधिकरण का निवेश करने पर भी 'इन्यं संयोगी' इत्यादि स्थल में गुणात्मक विधय संपांग में रहनेवाली उद्दश्यव्यापकता के अवच्छेदकधर्मविधया गुणच का, जो संयोगवृत्ति होने में विधयतासमानाधिकरण है. ग्रहण मकिन होन से गुणत्वावच्छिन्नव्यापकता के भान का अनिष्ट प्रमंग उपस्थित होगा। विधयताविशिष्ट के अधिकरण में रहनेवाले अभाव । = भंटा की प्रतियोगिता का गणत्य अनवच्छंदक है। अनः विधेयतावच्छिन्न ममन्यापकता का अवच्छेदक गुणच हो गकता ही है। इसलिए विधयतासमानाधिकरण मं धर्म का विधयाना उद्देश्यव्यापकता के अवच्छंदकविधया भान मानना भी नाम्नासिव है . यह फलित होता है ।