________________
४७
-
* सत्पदप्रयोजनप्रकादानम् ** | संयोगादेः द्रव्यत्वादिना व्यापकत्वलाभप्रसहगाच्च । एतेत विधेयतावच्छिन्नसमव्यापकतामहे नाऽतिप्रसङ्गो, लघुद्धित्वादेरेवावच्छेदकत्वेऽपि
- जयाता , द्रव्यत्वादिना व्यापकत्वभानमापादितं तथैव प्रकृते विधेयस्य संयोगादेः विधेयतावत्समन्यापकतावच्छेदकन द्रव्यत्वादिना व्यापकत्वलाभप्रसङ्गात् = सद्व्यनिरूपिनन्यापकत्वस्य भानापतेः । न च विधेयाधिकरणवृत्तियों विधेयतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकोभावस्तत्प्रतियोगितानबच्छेदकत्वस्य विधयतावत्ममब्यापकतावच्छेदकविशेषणोपगमन्निायं दोषः, द्रव्यवस्य तु विधेयाश्रयवृनितादालयसम्बन्धावच्छिनप्रतियोगिताकाभावीयप्रतियोगितानवनोदकत्वं न त नादशसमवायसम्बन्धावच्छिन्नाभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वमिति वाच्यम्, तथापि सन्ति द्रव्याणि धर्माधर्माकादश-जीव-काल-पगला' इत्पन्न धर्मादीनां व्यवन व्यापकत्वलाभप्रसङ्गात् । उद्देश्यतावच्छेदक -विधेयतावच्छेदकयोभिन्नत्वनियमाद्देश्यकोटी न सदिति निवेशः प्रकरणकारेण कृतः, विधेयतावच्छेदकीभूतसंयोगत्वस्य द्रव्यत्वातरिक्तत्वादेव किन्तु 'उदेश्यतावच्छेदकातिरिक्तरूपेणच विधेयताया भानमिति नियमादभिमतापादानानुरोधेनोदृश्यकोटी प्रकरणकृना सदित्युक्तमिनि तु ध्येयम् ।।
एतेन = निरुक्तप्रसङ्गेन, अपास्तमित्यनेनास्पान्वयः । उद्देश्यविधेयभावस्थले विधेयतावच्छिन्नसमच्यापकताग्रहे = विधेयान्वयितावच्छेदकसम्बन्धघटकविधया विधेयतावन्निन्नायाः समश्यापकनामा भाने रवीक्रियमाणे नातिप्रसङ्गः = न सन् द्रव्यं संयोगी' त्यादी संयोगादेव्यत्वादिना व्यापकत्वभानप्रसङगः; द्रव्यत्वस्य संयोगवतिनिधेयनान्यधिकरणत्वंन विधेयतारच्छिन्नसमव्यापकताबछेदकल्वाल्यांगात, विधेयतासमानाधिकरणे संयांगत्वं पत्र विधेयतासमानाधिकरणसमन्यापकताया अवच्छंदकताया अवच्छेदकत्वसम्भवात् । ततश्च विधेयतासमानाधिकरणा या समन्यापकता तस्या अरकंद्रनको यो विधयतासमानाधिकरणी धर्म: तदवच्छिन्नस्य व्यापकत्वस्यैव विधेयान्वयेताबन्छन्दकसन्दन्धत्वमित्युपगमे न को पि. दीपः ।
ननु विधेयताया विधेयस्वरूपतया ननुगतत्वेन विधयत्ववच्छेदकीमतवहिल्याद्यपेक्षया गुरुत्यान्न समब्यापकतावच्छे कल्वं सम्भवति, गरोरनवच्छेदकल्लादिति चेत् न, 'धूमवान वह्निमान इत्यादी विधेयतावच्छेदकस्य लघुवदित्वादेः एव अवच्छेदकत्वेऽपि
11.
का ज्ञान होता है। मगर विययतावत्समव्यापकताअवच्छेदकधर्म से व्यापकता का भान माना जाय तर दव्यत्वादि कर से भी संयोग में व्यापकता की बुद्धि होने की आपत्ति आयेगे, क्योंकि विषय मयंग का समव्यापक तादात्म्यसम्बन्ध से द्रव्य होना है । संयोग केवल दत्र्य में ही रहता है और मभी द्रव्यों में कोई न कोई संयोग तो रहता ही है। अतः द्रव्यत्व विधेयताबान संयोग के अधिकरण में रहनेवाले अभाव की प्रतियोगिता का अनवच्छेदक होता है। अतएव विध्यतावन्ममन्यापकताचच्छदक द्रव्यत्वरूप से भी संयोग में सन्पव्यापकता के भान का अनिष्ट प्रसंग उपस्थित होता है । इसलिए प्रतिवादी का कथन मान्य नहीं किया जा सकता ।
विधेयतावसिता समन्यापाता का भान दोपग्रस्त पतन, । उक्त आपत्ति के निरासार्थ उद्देश्यविधेयभावस्थल में कुछ विद्वानों का यह कथन है कि -> "विधय में विधयतावच्छिन्नसमव्यापकता का विधयान्वयितावच्छे टकसंसर्गघटकविधया भान मानने पर किसी टोप को अबकाया नहीं है । विधेय का जो समन्यापक हो उसमें विधेय की समव्यापकता रहती है। मगर वह समव्यापकता विधयताबभिन्न होनी चाहिए तब विधेयनिरूपित समव्यापकता के अपच्छेदकधर्मरूप से विधय में उद्देश्यन्यापकता का भान हो सकता है । अतः 'मन द्रव्यं संयोगि' इस स्थल में द्रव्यत्वरूप से व्यापकता के भान का प्रसा नहीं है, क्योंकि द्रव्यत्व जिस समव्यापकता का अवच्छदक है वह विधयताउछिन्त्र = विधेयताविशिष्ट = विधेयतासमानाधिकरण नहीं है। विधयता रहती है संयोग में और द्रव्यत्व रहता है द्रव्य में । दोनों समानाधिकरण नहीं है । विधेयना और दून्यत्त्व व्यधिकरण होने से संयोगनिष्ठविधेपनाअवजिन्न (-विशिष्ट) समन्यापकता का अवच्छेदक द्रव्यत्व नहीं हो सकता है, किन्तु संयोगत्व ही हो सकता है, क्योंकि यह विधेयतासमानाधिकरण है। इसलिए विधेयतावच्छिन्नसमध्यापकतावच्छेदकधर्मावधिभव्यापकता सम्बन्ध में ही विधेय का उद्देश्य में अन्वय करना उचित है । यद्यपि 'धूमवान वहिमान्' इत्यादि स्थल में विधेयतावछेदक वह्नित्व आदि लघु धर्म प्राप्त है । अतः बही समव्यापकता का अवनोंदक बन सकता है अर्थान बहिल्यावछिन्न ही समच्यापकता ही मकती है, न कि विधेयतावच्छिन्न समच्यापकता; क्योंकि गुरु धर्म अबच्चंटक नहीं हो सकता है । वहिल की अपेक्षा स्वरूपसम्बन्धात्मक विधयता ग धर्म ही है । तथापि विधयता में पारिभापिक अवनंदकता का स्वीकार करने में कोई दाप नहीं है । मतालर यह है कि स्वरूपसम्बन्धात्मक अवदकता का विधेयता में