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*अनलाद्र पन्दारिता यापकत्वाणादतम * | दिना व्यापकत्वलाभप्रसङ्मात् । विशेदपावहातिरिक्तधर्मानवच्छिन्मा व्यापकता मायेति नातिप्रसहमो न वा
* गयलता *बच्चंदकसम्बन्धवे नास्ति कश्चिद दोषः । न हि धादिषटकान्यतमत्वाश्रयाभूते यस्मिन कस्मिंश्चित चांदा विधयतावच्चाबच्चिन्नप्रतियोगिताकाभावोऽस्ति न वा विधेयताबदाश्रये धर्मादिषटकान्यतमत्वावचिन्नप्रतियोगिताकाभावा वर्नन येन धनांदिषटकान्यतमत्वस्य विधयतावत्समव्यापकताबच्छेदकल्वे न स्यात् । अती धर्मादिषटकान्यतमत्वन द्रव्यत्वावच्छिन्नब्याजकत्वं विधेय निगवाधमेचेन्याशाइकामपाकर्तमाह- विधेयतावत्ममन्यापकतावच्छेदकरूपावन्छिनन्यापकत्वस्येति । उद्देश्यत विधेयता चा नादात्म्पसम्बन्धन झया । विधयतावच्छेदकसम्बन्धन विधेयतावनः समन्यापकं यन तनिष्ठा या तत्समन्यापकता तस्या अवन्दक यदूपं तदन्छिन्नस्य व्यापकत्वस्य, तथान् = विधयनान्वयिताचच्छदक्संसर्गले तु 'द्रव्याणि धर्माधर्माकाश-जीव-काल पुद्गला' इत्यय विधयतावन्य - मव्यापकतावच्छेदकीभूतेन धर्मायन्यत्मत्वेन द्रव्यन्या पकत्वस्य वेधेये लाभेऽपि, 'धूमवान हिमान्' इत्यादी संयोगसम्बन्धा - वच्छिन्नविधेयतावतः वहन्यादेः द्रव्यत्वादिना व्यापकत्वराभप्रसङ्गात् = तादात्यसम्बन्धावच्छिन्न-धूमचत्रिपन्याप्यनानिक पिनाया ज्यापकनाया भानापनेः, द्रव्यत्वादेः संयोगसम्बन्धावन्छिन्नविधेयनावह्निमत्रिशाभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्तान । न हि बहिमति दव्यत्वावचिन्नाभावो भवति । न च दन्यत्वस्य विधेयताब दिल्याकतावच्छेदकत्व:मि वहिसमव्यापकतानचटकन, दव्याश्रयवृत्त्यमारप्रतियोगितावच्छेदकल्वाद बह्नित्वस्यति वाच्यम, उच्यत्वपदस्य दन्यत्वविशिप्रय हित्वपरवान्नैप दांपः । बद्रा द्रव्यत्वं आदी यस्य द्रव्यत्वविशिष्टचह्नित्वस्य स तथा तेन इति विग्रडः कार्थः । तेन द्रव्यत्वपदस्य लक्षणाश्रयणमनिजघन्यमियनामि न क्षतिः । न हि व्यत्वविशिटवह्नित्वस्य बनिसमव्यापकतानवादकत्वम । आदिपदनोपलक्षणाद् वा रहिवदान्यनरत । वहीतरतरत्व - पदार्थत्वविशिष्टवाहित्वादनां ग्रहणम् । तेषामपि विधयताबसिमच्यापकनावच्छेदकलादिति भावः ।।
अथेति । चंदित्यनेनान्यः । विधेयत्तावच्छेदकातिरिक्तधर्मानवच्छिन्ना व्यापकना = दृश्यच्यापकता वहिनिष्ठा विधया - चयितावच्छेदकसम्बन्धविधया ग्राह्या इति हेतोः 'धुमवान बलिनान' इत्यादी नानिप्रसङगः = न द्रव्यत्वव्यायवडिलेन बहनेः धूमवव्यापकत्वापरातः, द्रव्यत्वविशिष्ट हित्वस्य बिंधपतावन्दीभूतहित्वातिरित्तत्वेन तदरित्रव्यापकताया बहिनिधिवनाचयितावच्छेदकसंसर्गत्वाइसम्भवात् । अत एव 'ज्यं गणकर्मान्यवंशिष्टसनावत' इत्यत्रापि न इल्यान्गत्वविशिष्टयनात्वाच्छिन्नव्यापकनायाः विधेयतान्चयितावच्छेदकसंसर्गत्वम, द्रव्यान्यत्वविशिष्टसनान्यस्य गणकर्मान्यत्वरिशिष्टसनात्यानिरिकत्वात् । न वा
हम विधेयतायत्समन्यापकनावच्छेदकरूपावच्छिनच्यापकता का स्वीकार करते हैं। धर्माश्चन्यतमत्व विधयतावच्छचकावन्निसमव्यापकता. अवच्छेदक धर्म न हो तो भी क्या ? वह विधेयताविशिएसमव्यापकतावच्छेदकधर्म तो है ही, क्योंकि तादात्म्यसम्बन्ध से धर्मायन्यत. मत्वविशिष्ट के आश्रय में विधेयतावचावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव नहीं रहना है और तादात्म्यसम्बन्ध में विधेयत्तावत् से विशिष्ट में रहनेवाले अभाव का प्रतियोगितावच्छेदक धर्मादिषट्कअन्यतमत्व भी नहीं बनता है। अतः धर्मादिषट्कअन्यनमन्वेन ब्यव्यापकता का धर्मास्तिकाय आदि पय्य में भान हो सकता है" -
तो यह, इसलिए मान्य नहीं हो सकता कि तर धर्मादिपटक अन्यतमत्वेन पर द्रव्य में ज्यव्यापकता का लाभ होने पर भी 'धूमचान वह्निमान' इत्यादि स्थल में वहि आदि विधय में द्रव्यत्वादिरूप से धूमवव्यापकना का भान होने की आपनि आयेगी, क्योंकि विधेयतावान् यहि की समच्यापकता का अरच्छेदक द्रव्यत्वादि = दुग्यत्वविशिष्टच हित्व है ही । जहाँ जहाँ वह्नि होता है. वहाँ वहाँ द्रव्यत्वविशिष्ट यहि रहना है और जहाँ जहाँ द्रव्यत्वविशिष्य चदि रहता है वहाँ वहाँ यदि रहता ही है । अत: विधेयताविशिष्ट चहि की ममच्यापकता का अवांटक दव्यत्वविशिष्टवबिच बन सकता है। अतः धर्मादिपकअन्यतमत्वेन द्रज्यव्यापकतालाभ की उपपत्ति करने पर द्रव्यत्त्वविदिष्ट वहिवन धूमच्यापकता के भान की आपनि आयगी ।
___E विशेशतावदामि धर्म से अनावशिवा त्यापता दोषग्रस्त
अथ. । यहाँ उपर्युक्त टोप के निराकरणार्थ प्रतिबादी की ओर से यह कहा जय कि -> "विधेय में रहनेवाली उद्देश्य की व्यापकता विधेयतावच्छेदकभित्र धर्म मे अनवच्छिन हो वैमा विवक्षित है । 'धुमचान चह्निमान्' यहाँ विधय है बहि। विधयतावच्छेदक है वहिव । द्रव्यत्यविशिष्टवाहित्य नो विधयतावच्छेदक नहीं है। अनः विधयनावचंदकातिग्नि द्रव्यत्वविशिष्टचहित्य से अवच्छिन्न व्यापकता का विधेयान्नयितावच्छेदकममविधया गृहण नहीं किया जा मयता। इसलिए वहि में द्रव्यत्वविशिष्टपहिल्वरूप से धूमबदल्यापकता = तादात्म्यसम्बन्धन्छिन अमरिष्ठव्याप्यत्तनिरूपितव्यापकता के भान की आपत्ति नहीं है । इस नन्ह