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* रामभङ्गतप्रकाशनम
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करण्यावच्छिन्नस्वाव्यवहितपूर्ववृत्तित्वसम्बन्धेन योग्यविशेषगुणत्वेन हेतुत्वम् । रोगगङ्गास्नानादिनाश्यसंस्कारनाशे व्यभिचारवारणाय कार्यतावच्छेदके 'योग्ये 'ति वेगाऽवृत्तियोग्यजातिमदर्थकं, तेन न निर्विकल्प - जीवनयोनियत्नाऽसङ्ग्रहः ।
* जयलता है
कारणतावच्छेदकत्वान्नानन्तकार्थकारणभावसतः स्वत्वस्य तत्राऽनिवेशात् । रामरुद्रस्तु 'अत्र चापेक्षाबुद्धिद्वितीयक्षणोत्यपुरुषान्नरीयज्ञानादिना तृतीयक्षणं तन्नाशवारणाय स्वसामानाधिकरण्यप्रवेशः । अपेक्षाबुद्धिद्वितीयक्षणे व तत्पुरुषस्य न योग्यविशेषगुणात्पादः | इति सिद्धान्तः । ज्ञानादे: क्षणिकत्ववारणाय द्वितीयसम्बन्धप्रवेश' (का. २७, मु. रा. प्र. २४४ ) इति व्याचष्टे । द्वितीयसम्बन्धप्रत्रश इति स्वाच्यवहितपूर्ववृत्तित्वसम्बन्धनिवेश इत्यर्थः ।
विवन्ति रोग - गङ्गास्नानादिनाश्यसंस्कारनाशे - राजयक्ष्मादिरोंग - गङ्गास्नान-सूर्यकिरणस्पर्श-स्मृत्यादिजन्यनाशप्रतियोगिसंस्कारस्वरूपविभुविशेषगुणप्रतियोगिकनाशे, व्यभिचारवारणाय = योग्यविशेषगुणाज्जन्यत्वेन व्यतिरेकव्यभिचारापोहाय कार्यतावच्छेदके = कार्यतावच्छेदकधर्मशरीरवृक्षी 'योग्ये 'ति उपादनम् । न च तथापि कथं व्यभिचारनिवारणमिति वाच्यम्, अत: वेगाऽवृत्तियोग्यजातिमदर्थकं योग्यपदम् । संस्कार यद्यपि गुणत्वलक्षणा योग्यजातिरस्ति तथापि तस्या वेगानित्वं नास्ति । संस्कारनिष्ठा संस्कारत्वजातिर्यद्यपि योग्या तथापि तस्या अपि वेगवृत्तित्वमिति न संस्कारस्य योग्यत्वं सम्भवतीति योग्यविशेषगुणनाश्यतानाक्रान्तत्वमेव तस्येति न व्यतिरेकव्यभिचारसम्भवः । तेन = बेगाःवृत्तियोम्पजातिमत्त्वस्य योग्यत्वपदार्थत्वनिरूपणेन, न निर्विकल्पकजीवनयोनियत्नासङ्ग्रह इति । उतेन योग्यत्वस्य लौकिकप्रत्यक्षविषयरूपत्वेन स्वोत्तरोत्पन्नज्ञानादिना निर्विकल्पकस्य जीवनयोनियलस्य च नाशो न स्यादिति निरस्तम्, वेगावृत्तिज्ञानत्वकृतित्वलक्षणयोग्यजातिमत्त्वेन तद्यांम्पत्वम्याःनपायात् । निर्विकल्पकत्वं तु न जाति: निष्प्रकारकज्ञानत्वस्यैव निर्विकल्पकत्वरूपत्वात् ज्ञानत्वस्य वेगावृनिययजातित्वं तु निरायमेव । यद्यपि योग्यत्वप्रवेशेन स्वाश्रयकवलितत्वमेव तथापि वेगावृत्तिलौकिकप्रत्यक्षस्वरूपयो ग्यविषयवृत्ति - गुणत्वव्याप्य जातिमत्त्वमेव योग्यत्वमित्यत्र तात्पर्यमिति विभावने नास्ति दोषगन्धलेशोऽपि । एतेन प्रायश्चित्तादिनायाऽदृष्टप्रतियोगिकनाशे व्यभिचारोऽपि प्रत्याख्यातः, अदृष्टत्वस्य लौकिकप्रत्यक्षविषयाःवृत्तित्वात् । रूपादिनाशे व्यतिरेकव्यभिचारवारणास विविति ।
है. नहीं रहता है। इस तरह अतिव्यवहित ज्ञानादि भी चिरपूर्वकालीन स्वसमानाधिकरण ज्ञानादि का नाशक होने की आपत्ति को भी अवकाश नहीं है, क्योंकि व्यवहित होने की वजह उत्तर ज्ञानादि स्वाव्यवहितपूर्ववृतित्वसम्बन्ध से भी चिरपूर्वकालीन ज्ञानादि में नहीं रहता है तब स्वसामानाधिकरण्यावच्छिन्न ऐसे स्वाच्यवहितपूर्ववृत्तित्वसम्बन्ध मे तो कैसे रह सकेगा ? सामग्री न होने पर कार्योत्पाट का आपादन नहीं हो सकता है । इस तरह कारणता अवच्छेदक धर्म शरीर की कुक्षि में अननुगत स्वत्व का निवेश भी नहीं किया गया है, जिसकी बदौलत विशेषरूप से अनन्त कार्यकारणभाव के स्वीकार का गौरव उपस्थित होता था । अतः प्रदर्शित केवल एक कार्यकारणभाव से ही शब्द, ज्ञानादि के नाश का निर्वाह हो जाता है, जिसमें कारणताअवच्छेदक धर्म भी पूर्वोक्त कारणता अवच्छेदक धर्म की अपेक्षा लघु है। फिर भी इस कार्यकारणभाव को मान्य न किया जाय तब तो शब्द ज्ञान आदि का अन्य कोई नाशक न होने से शब्द, ज्ञान आदि के नित्य हो जाने का प्रसङ्ग उपस्थित होगा, जो नामंजूर है । यहाँ कार्यता अवच्छेदक धर्म के शरीर में योग्यत्व का निवेश न किया जाय और विभुविशेषगुणनाशत्व को ही कार्यता अवच्छेदक माना जाय तब यद्यपि लाघव होता है तथापि रोग स्नान आदि से नाश्य संस्कार आदि के नाश में व्यतिरेक व्यभिचार होगा, क्योंकि संस्कार विभु आत्मा का विशेषगुण होने पर भी योग्यविशेषगुण से भिन्न रोग आदि से नष्ट होता है। रोग आदि से ज्ञानादिजन्य एवं स्मृतिजनक भावनाख्य संस्कार नष्ट होते हैं - यह तो सर्वानुभवसिद्ध है, क्योंकि विशिष्ट रोग आदि के बाद स्मृति मन्द हो जाती है। कार्यता अवच्छेदकधर्म कुक्षि में योग्यत्व का प्रवेश करने पर उपर्युक्त टोप को अवकाश नहीं है, क्योंकि संस्कार योग्य गुण नहीं होने की वजह नाश्यताकोदि से भूत बनता है । योग्यता का अर्थ है वेगाऽवृत्ति योग्य जाति । संस्कार के तीन प्रकार हैं वेग, भावना एवं स्थितिस्थापकता इस तरह भावना भी एक प्रकार का संस्कार होने से बेगाऽवृत्ति योग्य जाति से शून्य है । अतएव वह योग्य = वेगाऽवृत्तियोग्यजातिमान् नहीं है । योग्यता का उपर्युक्त निर्वचन करने का दूसरा लाभ यह है कि निर्विकल्प ज्ञान एवं जीवनयोनियत्न (जीवननिर्वाहक प्रयत्न, जिससे वासोच्छवास, रक्तभ्रमण आदि प्रवृत्ति चल रही है उस ) का भी योग्यविशेषगुणनाश्यताकोटि में सङ्ग्रह हो जायेगा, क्योंकि वेग में नहीं रहनेवाली प्रत्यनयोग्य ज्ञानत्व एवं यत्नत्व-जाति क्रमशः दोनों में रहती है । अतः निर्विकल्पक ज्ञान एवं जीवनयोनि यत्न का भी स्वोत्तर उत्पन्न इच्छादि से नाश हो सकेगा ।