Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 196
________________ * चरमाल्दनाशऋताविचारः शब्देन पूर्वमेव नाशान्न निमित्तपवन संयोगजाशनाश्यत्वमिति समानम् । अन्त्यशब्दनाशार्थं विजातीयपवनसंयोगनाशत्वेन हेतुताऽस्त्विति चेत् ? न, विजातीयशब्दनाशं प्रति प्रागुक्तसम्बन्धेन शब्दनाशत्वेन हेतुताया एवोचितत्वात्, अन्यथा सुषुमिप्राकालीनज्ञाननाशार्थं मनः संयोगनाशस्यापि ज्ञानादिनाशकत्वकल्पनापत्तेरिति साम्प्रदायिका: । * जयलता द्वितीयादिशब्देन स्वा:व्यवहितोत्तरोत्पन्नद्वितीयादिचरनपर्यन्तशब्देन पूर्वमंत्र निमित्तविज्ञानसंयोग नियोगिकनाशोत्पादादवगिव नाशात्, योग्यविभुविशेषगुणनाशस्य स्वप्रतियोग्यव्यवहित। नरोत्यन्नयोग्यगुण जन्यत्वनियमात, तत्र शब्दभिन्नत्वनिवेशे मानाभावात् गौरवाच विनष्टशब्दे कालिकेन निमित्तपवनसंयोगनाशस्यानित्वात् न निमित्तपवनसंयोगनाशनाश्यत्वं प्रथमशब्दादेरपि । एतेन शब्दे पञ्चमक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगित्वमपि निरस्तम्, युक्तिवैकल्यात. सम्प्रदायविरोधाच्च । ततश्च न शब्द विजातीयपवनसंयोगनाशनाश्यत्वं युक्तम् । = ननु प्रथमाद्यचरमपर्यन्तदशब्दानां स्वोत्तरवर्दिद्वितीयादिचरमशब्दनाश्यत्वेऽपि अन्त्यशब्दनाशार्थं = चरमाब्दनाशं प्रति 'विजातीयपवनसंयोगनाशत्वेन स्वप्रतियोगिजन्पत्वसम्बन्धेन हेतुताऽस्त्विति चेत् ? न विजातीयशब्दन्नावां = शब्दाजनकशब्दप्रतियोगिकनाशत्वावच्छिन्नं प्रति प्रागुक्तसम्बन्धेन स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्धेन शब्दनाशत्वेन = स्वप्रतियोगिजनकशब्दनाशत्वंन हेतुताया एवोचितत्वात् विजातीयगवनसंयोगनाशत्वापेक्षया शब्दाशत्वस्य कारणतावच्छेदकत्वं लाघवात् । नच स्वकारणशब्दनाशत्वस्य कारणतावच्छेदकत्वं अन्यधाऽतिप्रसङ्गादिति वाच्यम कारणतावच्छेदकप्रत्यासन्या एवातिप्रसगञ्जकत्वात् । यथा सुषुप्तिप्राककालीनज्ञानादेः स्वाऽन्यवहितपूर्वकालीनज्ञानादिनाशनापत्यं तवदमणि सम्यग् न तु विजातीयनिभितपवनसंयोगनाशस्य विजातीयशब्दनाशकत्वमिति गम्यते । ततो हि शब्दा जनकशब्दस्यापि न चमक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगित्वनित्यर्थः । विपक्षचाधमुपदर्शयन्ति → अन्यथा = विजातीयपवनसंयोगनाशास्यैव चरमशब्दनाशकत्वस्वीकार, तुल्यन्यायेन सुषुप्तिप्राककालीनज्ञाननाशार्थं मनः संयोगनाशस्यापि विजातीपरत्ममनोयोगनाशत्वंनाऽपि ज्ञानादिनाशकत्वकल्पनापत्तेः । न हि सुषुप्तौ ज्ञानादिकं जायते येन सुषुप्तिप्राकालीनज्ञानादिकं तत्तां नाश्येत । इति साम्प्रदायिकाः वदन्तीति गम्यते । न्यायदर्शनपरम्परानुगातिनी = ७० = LA पवनकर्म का नाश होगा, तीसरे क्षण में पूर्व शब्द से आकाश में अन्यदेशावच्छेदेन शब्दान्तर उत्पन्न होगा तथा पचन में दूसरा कर्म उत्पन्न होगा, चीधे क्षण में विजातीय पवनसंयोग का नाश होगा | हम इस तरह देख सकते हैं कि विजातीयपचनसंयोगनाश के पहले ही कार्यशब्द से कारणशब्द का नाश हो चुका है तब शब्द को विजातीयपत्रनसंयोगनाशनाइय कैसे कहा जा सकेगा ? ज्ञान और शब्द के नाश में युक्ति तो समान ही है । यहाँ यह वांका हो कि 'प्रथमादि अचरमपर्यन्त शब्द का नाश तो द्वितीयादि चरमपर्यन्त शब्द से हो जायगा मगर चरम शब्द का नाश तो कार्यशब्द से नहीं हो सकेगा, क्योंकि चरम शब्द किसी शब्द का जनक ही नहीं होता है। अतः चरमशब्दनाश के लिये तो विजातीय निमित्तपवनसंयोग के नाश को ही कारण मानना होगा तब तो विजातीय-पवनसंयोग चार क्षणपर्यन्त स्थायी होने से उससे उसके द्वितीय क्ष में उत्पन्न चरम शब्द को पूर्वोक्त रीति से स्थायी मानना ही होगा । तब तो चतु:क्षणस्थायित्व शब्द में निराबाध हो जायेगा एवं विजातीयपवनसंयोगनाश में शब्दनाशकत्व भी सिद्ध हो जायगा तथा रघुनाथशिरोमणि का मन भी निर्दोष हो जायगा <- तो यह निराधार है, क्योंकि चरमशब्दनाश के प्रति विजातीयपवनसंयोगनाश को कारण मानने की अपेक्षा शब्दनाश को ही स्वप्रतियोगिजन्यत्व सम्बन्ध से कारण मानना मुनासिब है, क्योंकि तब कारणतावच्छेदकधर्मशरीर में लाघव होगा । विजातीयपचनसंयोगनाशन्च की अपेक्षा शब्दनाशत्व धर्म लघु हैं. यह तो स्पष्ट ही है । यदि चरम शब्द के नाश के प्रति अचरम शब्द के नाश को स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्ध से शब्दनाशवेन कारण न माना जाय तब तो तुल्य न्याय से सुषुप्ति के अव्यवहित प्राकृ क्षणावच्छेदेन उत्पन्न होनेवाले ज्ञानादि के नाश के प्रति विजातीयआत्ममन: संयोगनाश को कारण मानने की कल्पना करनी पड़ेगी, जो रघुनाथशिरोमणिमतानुयायी को भी अमान्य है । सुपुति में ज्ञानादि उत्पन्न नहीं होते हैं । अतएव सुपुति के अव्यवहित पूर्व क्षण में उत्पन्न जानादि का नाश स्वान्यवहितोत्तरवर्ती ज्ञानादि से नहीं हो सकता है। नवयं यही मानना होगा कि स्वपूर्वकालीन ज्ञानादि ही सुपुतिअव्यवहितपूर्ववर्ती ज्ञानादि का नाशक होता है । इसी तरह चरम शब्द के नाश के प्रति भी स्वाव्यवहितपूर्ववर्ती शब्द के नाश को स्वप्रतियोगिजन्यत्व सम्बन्ध से कारण मानना मुनासिव होगा ।

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