________________
* अपेक्षाबुद्धिनाय विचार: * अपेक्षाबुन्दिनाशे तु ब्दित्वनिर्विकल्पकत्वेन पृथक्कारणतेति न तस्याः तृतीयक्षणे नाशः । अत्र स्वपूर्ववृत्तित्वं स्वाधिकरणक्षणाऽव्यवहितपूर्वक्षणवृत्तित्वमिति चरमज्ञानशब्दादिनाशे न व्यभिचार:, अनेन सम्बन्धन स्वस्यैव तर नाशकत्वात् ।।
* ज्ञायलता *वस्तुतस्तु अत्र पूर्वत्र सर्वत्र निरुक्तं यदपि योग्यत्वं कक्षीक्रियते तन्न चारु, अपेक्षानुद्धिद्वितीयक्षपात्पनेच्छादिना तृतीयाणे । अपेक्षाबुद्धिनाशापत्ते रित्वमेवेति नाशकताबच्छेदके योग्यत्वविदोपत्ननिवेशाचैयर्थ्यमेव । न च अपेक्षाबुद्धिद्वितीयक्षणे तदधिकरणों ज्ञानेच्छादिजनकसामग्रीसत्त्वेऽपि ज्ञानेच्छादिकं मोत्पद्यत इति वाच्यम, मानाभावात् । न हि प्रयोजनकभङ्गगमयेन सामग्री कार्य नार्जयति । यद्वा शक्यत एवमपि वक्तुं यदुत कारणसत्रेऽपि योग्यविदोषगुणोदीक्षावुद्धिद्वितीयक्षणे तदधिकरणं भवोत्पद्यते, अगत्या कस्यचित्प्रतिबन्धकस्य कल्पनादिति न दोषः । पाद चात्रा प्रामाणिककल्पनागौरमिति विभाब्यते तदा अपक्षाबद्धि| भिन्नयोग्यविभुविशेषगुणनाशत्वस्यैव कार्यतावच्छेदकत्वमस्तु अपक्षाबुद्धिनाशे = अपेक्षाबुद्धिप्रतियोगिकनाशत्वावच्छिन्नं प्रति तु द्वित्वनिर्विकल्पकत्वन पृथकारणता 1 ततश्च योग्यविशेषगुणनाश्यतावच्छेदकानाक्रान्नन्वन न तस्याः = अपेक्षाबुद्धः तृतीयक्षणे = स्वनृतीयक्षणे नाशः । कार्यतावच्छेदककाटी अपेक्षाशुद्धिभिन्नत्वनिवेशे तु कारणतावच्छेदककोटी योग्यचविशेषत्वनिवशा नर कर्तव्यः, प्रयोजनविरहेण गौरवात 'परन्तु मूलसिद्धान्तभड़गो दुर्गार इति अनुपटमेव वक्ष्यामः ॥
अत्रेनं बोध्यम् - प्रथम 'अयमेकोऽयमेक' इत्येवंरूपाऽपेक्षाबुद्धिर्जायते. ततो द्वित्वासादः, ततो विदोषणज्ञान द्वित्वत्वानविकल्पात्मक तना दित्वत्वविराष्टद्वितप्रारंभोगबन्दिनगलाच. ततो द्वित्वनाश इति नैयायिकप्रक्रिया । एवञ्च चापेक्षावृद्धिः क्षणत्रयमवनिपते । अपेक्षाबद्धेः क्षगद्रयमात्रस्थायित्व द्वित्वदनिर्विकल्पककाले पक्षाचद्भिनाश तदनन्तरं द्वित्वम्यंत्र नाशाद विषयाभावेन द्वित्वस्य प्रत्यक्षं न स्यादित्यतो रक्षाबुद्धः त्रिक्षगावस्थायित्वं कलप्यते ।
नन्येचं सति चरमज्ञान-दाब्द-सुषुप्तिप्राकृक्षणोत्पत्रकानादिनाशकदुर्भिक्षं स्पादित्याशड़कायां व्याचक्षते → अन्न - कारणतावच्छेदकसम्बन्धशारीरकुक्षी स्वपूर्ववृत्तित्वं = स्वाधिकरणक्षणाऽव्यवहितपूर्वक्षणवृत्तित्वमिति चरमज्ञानशब्दादिनाशे न व्यभिचारः । न च तत्समानाधिकरणस्य तदुत्तरवृत्तेः योग्यविशेषगुणस्य बिरहात कुता न व्यभिचार इति वाच्यम् , यन; अनन = स्वाधिकरणक्षणान्यवहितपर्वक्षणजिवलक्षणेन सम्बन्धेन स्वस्यैव चरमज्ञानादेरेव द्वितीयक्षणविशिष्टस्य सतः तत्र = नरम . ज्ञानादी नाशकत्वादिति ।
नित्यनिर्विकल्प अपेक्षामुहिनाशक - जैयायिक पं. । यहाँ यह शशा हो सकती है कि → 'अपेक्षावृद्धि का स्वद्वितीयक्षण उत्पन्न अदृष्ट, मयोग आदि से नाश नहीं होगा नर उसका नाशक कौन होगा ?' - इसका समाधान यह है कि द्वित्वत्व का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष अपेक्षावृद्धि का नादाक है । पहाँ नैयायिकसम्प्रदाय की यह प्रक्रिया है कि प्रधम क्षण में 'अयमेकः अयमंकः' इत्याकारक अपक्षावुद्धि उत्पन्न होती है। द्वितीय क्षण में द्वित्व संख्या उत्पन होती है । तृतीय क्षण में द्वित्वत्व जाति का निर्विकल्पक प्रत्यन्न होगा। चतुर्थक्षण में द्वित्वत्वविशिष्ट द्वित्व का प्रत्यक्ष होगा और उसी क्षण में अपेक्षानुद्धि का नाश होगा। इस तरह स्वास्थ्यव. हितोत्तरवृनित्वामानाधिकरण्यसम्बन्ध से द्वित्वत्वनिर्विकल्पक प्रत्यक्ष अपेक्षाबुद्धि का नाशक नंगा। इसलिए अपक्षाबुद्धि के तृतीय क्षण में अपेक्षाबुद्धि के नाश का कोई प्रसङ्ग नहीं है।
परमशाजादिजासहै - यारो अत्र स्व. । योग्यविभविशंपगुणनाशकतावच्छेदकसम्बन्ध में जो स्वापूर्वनिता निविष्ट है उसका अर्थ है स्वाधिकरण - क्षणाऽव्यवहितपूर्वक्षणवृत्तित्व । जैसे द्वितीय क्षण में उत्पन्न ज्ञान का अधिकरण क्षण हे द्वितीय क्षण और उसका अन्य हित पूर्व क्षण है प्रथम क्षण । प्रधमक्षणवृत्ति है तत्क्षणापत्र ज्ञान, इच्छा आदि । अतः द्वितीयक्षणोत्पन्न ज्ञान उक्तमम्बन्ध में प्रथमक्षणापत्र ज्ञान-इच्छा आदि में रह कर प्राथमिक जान इच्छा आदि के तृतीय क्षण में उसका नाग करेगा । या निरूपण करने का तात्पर्य यह है कि चरम ज्ञान, चरम शब्द आदि के नाश में व्यभिचार न हो । कहने का मतलब यह है कि चरम ज्ञान, बग्म शब्द आदि के अव्यवहित उनर श्रण में न तो कोई ज्ञान, इरा आदि उत्पन्न होते हैं और न तो शब्द उत्पन्न होता है । अतः उसके विनाशक का दुपकाल पडेगा । मगर स्वपूर्वचतितापट का उपयुक्त अर्थ मान्य करने पर उक्त दोप का यानी चरमज्ञानादिविनाशकाभाव का या चिना विनाशक के चरमझानादि के नाश से व्यतिरेक व्यभिचार का प्रराङ्ग