Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 183
________________ ५१६ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः ३ . का.११ मामांसकमने कलपत्र कार्यतावशेदकता ** इति । (nt जन्यत्वपक्षे विजातीयपवनसंयोगस्य कत्वं जन्यतावच्छेदकमिति लाघवं, . व्यग्यत्वपक्षे तु कात्यक्ष करावणत्वादिकं वेति गौरवमिति निरस्तम्, स्वाश्रयलौकिकश्रावणविषयतया व्यङ्ग्यत्वपक्षेऽपि कत्तस्य तत्त्वसामवात् । न च समवायापेक्षयोक्तसम्बन्धे | गौरख, सम्बन्धगौरवस्याऽदोषत्वात् । वस्तुतो निरुक्तसम्बन्धेन शब्दत्वमेव मम तज्जन्यतावच्छेदकमिति कत्वाधवच्छिनं प्रति | -* जयलता वीणाकाशादीनामनन्तहेतुता कल्पनीया, विजातीयवायुसंयोगस्यैव दाब्दव्यञ्जकत्वात् । एतेन = शब्दजन्यत्वपक्षेनन्तहेतुताकल्पनगौरवप्रदर्शनेन, निरस्तमित्यनेनाल्यान्वयः । शब्दस्य जन्यत्वपक्षे विजातीयपचनसंयोगस्य कवं जन्यतावच्छेदकं न तु प्रत्यक्षत्वादिकमिति नयापिकमते लाघवं, व्यग्यत्वपक्षे तु 'वजातीयवायुसंयोगनिरूपिनकार्यताया अबच्छेदकं प्रत्यक्षत्वं कश्रावणत्वादिकं वा सम्भवतीनि मीमांसकमत गौरवं = कार्यतावच्छेदकधर्मशरीरगौरवं इति नैयायिकवचनं निरस्तम्, स्वाश्रयलौकिकविषयतया - स्वाश्रयविषयकलंकिकप्रत्यक्षनिष्ठविपिनासम्बन्धन व्यङग्यत्वपक्षे = शब्दाभिव्यक्तिदर्शन अपि कत्वस्य तत्त्वसम्भवात = विजातीयपवनसंयोगकार्यतावच्छेदकत्वोपपत्र: । स्वस्य कत्वस्य आश्रया य: ककारस्तद्वीकिकसाक्षात्कारे निष्ठाया वेषयिताया विजातीयवायुसंयोगकार्यमात्रवृत्तित्वेन तादृशवियित्तासम्बन्धन कत्वस्य विजातीयपवनसंयोगकर्यता न्यूनाननिरिक्तनित्वन नत्कार्यतावच्छेदकल्सगर्न कार्यतावच्छेदकधर्नशरीरगौरव मामासकमते प्रसज्यते । न च समवायापेक्षया = नैयायिकसम्मतस्वसमवायापेक्षया, उक्तसम्बन्ये = स्वाश्रयलौकिकसाक्षात्कार-- निष्ठविषयितासंसर्गे विजातीयवायुसयागकार्यतावच्छेदकतारच्छंदकसंसर्गत्वकल्पनायां गौरचं दुर्वारमिति नैयायिकेन वक्तव्यम्, सम्बन्धगौरवस्य अदोपत्वात् । न चैवं दण्डत्यस्यापि घटकारणत्वं स्वाश्रयजन्यभ्रमिवचसम्बन्धेन स्यादिति शकनीयं, दषदेतरावृत्तित्वं सति सकलदण्डवृनित्वरूपस्य दण्डत्वत्वस्य घटकारणतावच्छेदकधर्मत्वकल्पनं गौरवादेव दण्डत्वस्य वटकारणत्वा योगात् । वस्तुतो निरुक्तसम्बन्धेन = स्वाश्रयलौकिकविषयितासंसर्गेण शब्दत्वमेव मम = मीमांसकस्य तज्जन्यतावच्छेदकं । कारणता की कल्पना अनावश्यक होने से उक्त गौरव निरवकाश है । शब्द को जन्य मानने पर महागीरप दोष की वजह यह नैयायिक कयन कि → "शब्द को विजातीयवायुसंयोग में जन्य मानने पर कार्यताअरच्छेदक धर्म होगा कत्व, जो अत्यन्त लघु है । नब कि शन्द को विजातीय वायुसंयोग से व्यंग्य मानने पर विजातीय वायुसंयोग का कार्य होगा शन्न अभिन्यक्ति यानी कविपयकलौकिक श्रावण प्रत्यक्ष । अनः विजातीय वायुसंयोग का कार्यताअवच्छंदक धर्म बनेगा कप्रत्यक्षत्व या कश्रावणत्व, जो कत्व की अपेक्षा गुमभूत है । स्पष्ट ही है कि शब्द के अनित्यत्वरक्ष की अपेक्षा नित्यत्वपश्न में विजातीयवापुसंयोगकार्यतारजोदकधर्म में गोरच है' -भी निगकृत हो जाता है, क्योंकि न्यङ्ग्यत्वपक्ष ( = शब्दनित्यत्वपक्ष) में विजातीय वायुसंयोग का कार्य ककार नहीं बल्कि ककारविषयक लौकिक श्रावण प्रत्यक्ष है, फिर भी उसका कार्यताअवदक धर्म तो स्वाश्रपलौकिकश्रावणविषयता. सम्बन्ध में कम ही होगा। स्व = कत्व, उसका आश्रय ककार, उसका (जो लौकिक प्रत्यक्ष है। जो विजातीयवासयोग का कार्य है, उसमें एक विषयिता नामक धर्म रहता है। अतः स्वायलौकिकविषयितासम्बन्ध से कत्व भी उस कार्य में ही रहेगा ही । अतः विजातीयवायुसंयोगकार्यता में अन्यूनाननिरिक्त होने से कत्व उक्त सम्बन्ध में कार्यताअवच्छेदक हो मकता | है । अतः नैयायिक और मीमांसक के मत में विजातीय वायुसंयोग का कार्यत.अवच्छेदक कत्व ही होगा। अनः शब्दानित्यत्ववाद की अपेक्षा शब्दनित्यत्वनाद में गौरव नाममकिन है। यहौं इम शंका का कि -> 'दोनों के मत में कत्व ही कार्यतावच्छंदक होने पर भी नैयापिकमन में विजानीय पवनसंयोग का कार्यतावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्ध होगा समवाय और मीमांसकमत में स्वाश्रयलौकिकविषयिता सम्बन्य तत्कार्यतावच्छेदकतावदकसम्बन्ध होगा। अत: शब्दजन्यत्वपक्ष की अपेक्षा शब्दव्यहम्यत्व पक्ष में सम्बन्धगीरच नो जरूर होगा' - ममाधान यह है कि सम्बन्धीच वास्तव में दोधात्मक नहीं है। अवच्छेदकधर्म शरीर गौरव ही दोपरूप माना गया है, न कि अवनोदकसम्बन्धदेहप्रविष्ट गोरख भी । अतः गन्दव्यङ्गम्यत्वपक्ष में भी कन्व को विज्ञानीय वायुसंयोग का कार्यता भवछेदक मानने में कोई दोष नहीं है। iD, स्व आदिशद एक ही है- मीमांसक। गम्तृता । यह तो अभ्युपगमवाट से कहा गया है कि विजानीय वायुसंयोग का कार्यतावच्छेदक स्वाश्रयलीकिकविषयितासम्बन्ध में कत्व है और अन्य विजातीयवायुसंयोग का निरुक्त सम्बन्ध से कार्यनाभरच्छेदक सत्व है। वस्तुस्थिति तो यह है कि निरुक्त.

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