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*मांकन तिम
मालायां प्रत्यपादि, तच्चित्यम्, विजातीयवायुसंयोगस्य स्वावच्छेदकश्रोत्रसंयुक्तमनः प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धेन निखिलशब्दश्रावणं प्रति हेतुत्वे मीमांसकानामेवातिलाघवात् । किस शब्दस्य जन्यत्वे वीणाकाशादीनामप्यनन्तहेतुता कल्पनीया, न तु व्यङ्ग्यत्व
नयलता है
तचिन्त्यम् । यतो नित्यत्वपक्षेऽपि अवच्छेदकतासम्बन्धेन विजातीयककारादिप्रत्यक्षेऽवच्छेदकतासम्बन्धेन विजातीयसंयोगस्य कारण अवम्छेदकतया तत्तत्कर्णावत्रित्यक्षं च तादात्म्येन तत्तत्कर्णस्य कारणत्वमित्यङ्गीकारे गौरवविरहात् । प्रत्युत विजातीयवायुसंयोगस्य स्वावच्छेदकश्रोत्रसंयुक्तमनः प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धंन निखिलशब्दश्रावणं प्रति = समवायसम्बन्धावच्छिन्नकार्यताश्रम - सकलशब्दश्रावणमात्रवृतिवैजात्याबस्थिभं प्रति हेतुत्वे स्वीक्रियमाणे तत्कर्णानां पृथगहेतुत्वात् मीमांसकानामेवाऽतिलाघवादिति । समवायेन यत्रात्मनि श्राव जायते तत्रैव विजानीयायोग निरुक्तसम्बन्धेन वर्तत एव स्वस्य = विजातीयपचनसंयोगस्यावच्छेदकं श्रवण संयुक्तं यन्मनः तत्प्रतियागिकान्मानुयोगिकविजातीयसंयोगाश्रयत्वात्तदात्मनः इत्थञ्च विषयनिष्ठप्रत्यासत्त्या पूर्वी कार्यकारणभावगीकारे तत्तदनन्तपुरुषनिवेशे गौरवानं परित्याज्मनिष्ठप्रन्यासन्यैव निरुक्तहेतुहेतुमद्भाव स्वीकार तिलापचं स्पष्टमंद मीमांसकमते ।
किश्च शब्दस्य = शब्दत्वावच्छिन्नस्य जन्य प्रागभावप्रतियोगित्वं प्रध्वंसप्रतियोगित्वं वा स्वीक्रियमाणे विजातीयपचनसंयोगस्पेन वीणाकाशादीनां काश-वेणु-मृनदण्डसंयोग- दादलक्ष्यविभाग-प्रथमादिशब्दादीनां अपि अनन्तहेतुता कल्पनीया = वाच्या पृधपृथग्नानाविधकारणताऽनङ्गीकारं व्यतिरेकव्यभिचारादिप्रसङ्गात् । न तु शब्दस्य व्यङ्ग्यले
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है और न तो तत्पुरुषीयशब्दप्रत्यक्ष एवं तत्पुरुषीयकविच्छिन्न समयाय के कार्यकारणभाव में गौरव है। अतः शब्दनित्यत्ववादी मीमांसक के मत की अपेक्षा शब्द अनित्यत्ववादी नैयायिक के मत में स्पष्ट लाघव है <
शब्दनित्यत्वपक्ष में गौरव का परिहार
तचिन्त्यम | मगर शब्दनित्यत्ववादी मीमांसक का पदार्थमालाकार नैयायिक के आक्षेप के खिलाफ यह वक्तव्य है कि. उक्त रीति से शब्दाऽनित्यत्वपक्ष का लाघव से समर्थन करना मुनासिब नहीं है, क्योंकि नित्यत्वपक्ष में भी ककारादि के विजातीय प्रत्यक्ष में अवकतासम्बन्ध से विजातीयवायुसंयोग को और तत् तत् कर्णावच्छिन्न ककारादिसाक्षात्कार में तत् तत् कर्ण को कारण मान लेने से गौरव नहीं होगा। प्रथम कार्यकारणभाव में कार्यता और कारणता दोनों अवच्छेदकता सम्बन्ध से अभिमत है । दूसरे कार्यकारणभाव में कार्यता का अवच्छेदक सम्बन्ध है अवच्छेदकता और कारणता का अबतक सम्बन्ध है तादात्म्य |
दूसरी बात यह है कि दूसरे कार्यकारणभाव को मान्य करने की आवश्यकता भी नहीं है किन्तु एक यही हेतुहेतुमद्भाव मानना मुनासिव है कि समवायसम्बन्ध से ककानदि सकल के साक्षात्कार में स्वावच्छेदक श्रीसंयुक्त मनःप्रतियोगिक विजातीयसंयोग सम्बन्ध से विजातीयवायुसंयोग कारण है। आशय यह प्रतीत होता है कि पानीयपवन के यज्जातीय संयोगसम्बन्ध से चैत्र के कण्ठ में ककार अभिव्यक्त होगा नज्जानीयपचन के सज्जातीयसंयोग की श्रोता के भन: संयुक्त कार्य में उत्पति होने पर श्रोता की चैत्रकण्ठाभिव्ययन ककार का प्रत्यक्ष होगा । इसी तरह खकार, गकार आदि सकल शब्द के साक्षात्कार में ज्ञातव्य है । यहाँ विजातीय एवनसंयोग को जिस सम्बन्ध से कारण कहा गया है उस सम्बन्ध की कुक्षि में स्वपट से श्रोत्रा के कर्णावच्छेदेन उत्पन्न होनेवाला विजातीय वायुसंयांग विबंधित है। उसका अवच्छेदक है, उससे संयुक्त है मन, उस मन का विजातीयसंयोग है आत्मा और मन का संयोग, जो श्रीतृभूत आत्मा में रहता है। अतः उस सम्बन्ध से विजातीयवायु का विजातीयसंयोग भी श्रीतृभूत आत्मा में रह जायेगा । इसलिये विजातीयवायुसंयोग ककारादि सकल वर्ण के साक्षात्कार में कारण होना है। इस कार्यकारणभाव का स्वीकार करने पर तन तक को तन् तत् कणांचन्छिन ककारादि प्रत्यक्ष में कारण न मानने से शब्दनित्यत्वपक्ष में गौवाभाव नहीं है किन्तु शब्दानित्यत्वपत्र की अपेक्षा अत्यन्त लाघव भी है । ॐ शब्द अनित्यत्वपदा में गौरवप्रदर्श
किं दा. । इसके अतिरिक्त शब्द के अनित्यत्व पक्ष में दोष यह है कि गल की जन्य = कार्य मानने पर वीणा. वेणु, मृदङ्ग, आकाश, शब्द आदि अनन्न पदार्थ में कारणता की कल्पना करनी होगी, जो गौरवग्रस्त है। मगर शब्द की नित्य अर्थात विजातीय वायुसंयोग से व्यग्य मानने पर श्रीणा, केणु, मृदङ्ग, आकाश आदि अनन्त पदार्थ में शब्दनिरूपित