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* कोलाहलस्थीयश्रावणभामांसा * तहि श्रावणत्वावच्छिमं प्रत्येवोपदर्शितसम्बन्धेन हेतुताऽस्तु । तुदोषाभावानां हेतुतापेक्षया विजातीयवायुसंयोगस्य धग हेतुत्वमप्युचितमित्याहः ।
-* जयाता - विहाय कत्व-रक्त्वादरच स्वाश्रयविपितया कार्यनाबच्छेदकत्वमामाभिः कल्पनीयम् । ततः गुणत्व-कवर्णभेदादिशकारक-गकार प्रत्यक्षं न क्लसविजातीयवायसंयंगादत्पत्तमहनि, तत्कार्यतावच्छेदकविरहात । ततश्च स्वाश्रयलौकिकविषयितया गाव-ककार. भेदैदन्त्वादीनां क्लृप्तविजातीयवायसंयोगाऽपल्या नानाविजातीयवायु- संयांगकार्यनाचन्दकत्वं कल्पनीयम् । तादृशकार्यतावच्छेदक. धर्मानन्त्यात्कार्थकारणगावामनन्त्यं, कार्यतावच्छेदकमद कारणताभेदात् । नयाचिकमते तु नंतदवकादशः समकायेन कत्वादरव नत्कार्यतावच्छेदकलादिति चेत ? तर्हि समवायन श्रावणत्वावच्छिन्नं प्रति गव उपदर्शितसम्बन्धेन = रवावच्छेदककार्गसंयुक्तमन:प्रतियोगिकविजानीयसंग गसम्बन्धन विजातीयपवनसंयोगस्य हतताऽस्तु । विषयनिष्ठप्रत्यासच्या कार्यकारणभावकल्पने प्रदर्शित. गौरवात आत्मनिरप्रत्यायेव म कल्प्यते । चिजातीपपवनसंयोगकार्यतावच्छेदकं च समवायन श्रावणत्वमेव न नु स्वाश्रयविषयितया कत्वादिकम् । तनय गुणत्न-ककारादिदेवन्त्व-पदार्धत्वादिप्रकारक-गकारादिविष्यकथायणप्रत्यक्षानुरोधेनन नानाकारणताकल्पनं. श्रावणत्वनैन रिजातीयवायसंयोगकानावछंदकेन तदनुगमात् । इत्यश्च नानन्तहत्ताकल्पनागारच मीमांसकानाम् ।
अथ स्वाक्षयली किकवियितया कत्वाद: विजातीयवायसंयोगकार्यतावचोदकत्व कोलाहलादकत्वाटरग्रह-पादनवाब्दत्वा. दिना ककारादिप्रत्यक्षात तत्तत्यकारक-ककारादिप्रत्यक्ष प्रथा चेतुन गौरवम् , गकार दिनिष्ठगुणत्वादि- ककारभदादिश्रावण नथात् चातिगौरवमित्याक्षेप कचित्तू मीमांसका: कोलाहले कत्वादिश्रावणवारगाय दोपाभावानां कत्वादिप्रत्यक्षे हेतुत्तापक्षया = हेतुत्वकल्पना पक्षया निरुक्तसम्बन्धन विजातीयवायुसंयोगस्य = बिजानीयानिमित्नपवनमंदागम्य, स्वाथरलीकिकवियितया कव-सत्व-गत्व-गुणत्व-शाब्दत्व-ककारगंददन्वाद्यवच्छिन्न प्रति प्रथग्यतत्वमपि = स्वतन्त्रकारणत्वकल्पनमपि कल्पयितुं उचित, निमिनपवनाकाशाद: समवायन शब्दत्वस्य जन्यतावदकत्यापेक्षया काठाभिप्रातस्य निमित्नपचनापक्षीणतात. तस्यैवीक्तसम्बन्धन शब्दत्यस्य जन्यतावच्छेदकत्वावित्यात, तानेर कोलाहलप्रत्यक्षग्य सुघटत्वात् । न चैवमुदायमाणयावतणविषयला नियम तत्कनकोलाहलतारतम्यप्रत्यगानपतिरिति वाच्यम, मञ्जकतारतम्यस्यैव नवारांपाद ।
क्योंकि गुणत्व, ककारभेद, खवर्णमित्रत्व आदि विजातीयवायुसंयोग का कार्यतावच्छंदक नहीं है । यदि गुणवादिप्रकारक-गकागदिविशंप्यक, कारभेद आदिप्रकारक गकारादिविशेयक श्रावण प्रत्यक्ष आदि के प्रति भित्र भित्र विजातीय वायुसंयोग को स्वतन्त्र कारण माना जाय तब गुणन्यादिप्रकारक प्रत्यक्ष की संगति होने पर भी कार्यकारणभाव में महागौरव दोप तो जरूर प्रसक्त होगा । दादानित्पत्वपक्ष में यह दोप प्रसक्न नहीं है, क्योंकि विजातीय वायुसयोग से गकार आदि की उत्पनि गत्यादि रूप में ही होती है, न कि गुणव, कभित्रवादि उपर्युक्त सभी रूपों से, जिन रूपां से उसका प्रत्यक्ष होता है । अतः गत्वादि को ही विजानीय वायुयोग का जन्यतावनोदक मानने से नैयायिकमत में गौरव दोष नामुमकिन है - नो यह इसलिये निराधार है कि उक्त गौरव के निराकरणार्थ हम मीमांसक यह कह सकते हैं कि समवायसम्बन्ध मे धावणत्वावच्छिन्न ( = कार्य) के प्रति स्वावच्छंदक-कर्णसंयुक्तमन:प्रतियोगिक चिजातीयसंयोग सम्बन्ध से, जिसका विवेचन पहले किया जा चुका है, बिनातीय वायुसयोग को ही कारण माना जा सकता है । कन्व, खन्ध, गत्व या गुणन्य, उदन्व, सन्दत्य, ककारभेद, खभिन्नत्व आदि को कार्यतावच्छेदक मानने की कोई आवश्यकता इस कार्य-कारणभाव में नहीं होने से गौरव टोप का अवकाश नहीं है । गकार का थावण प्रत्यक्ष चाहे गत्त्वरूप से हो, या गुणत्वादिरूप से हो या ककारभेदादिरूप से हो . इसके साथ विजातीय वायुसंयोग को कुछ मतलब नहीं है, क्योंकि वे इसके कार्यताअवधादक नहीं हैं । उसका कार्यनाभवछंदक तो है समवाय सम्बन्ध से श्रावणत्य, जो कि गत्वप्रकारक गुणत्वादिप्रकारक एवं ककारभेदादिप्रकारक गकारादिविशेप्यक श्रावण प्रत्यक्ष में रहना ही है । अतः मीमांसक मत में गौरव का अवकाश नहीं है। गौरव तो विजातीयवासंयोग के कार्यताअवच्छेदकविधा समवाय से कत्व, खन्च, गत्ल आदि को माननेवाले नैयायिकों के मत में ही प्रसक्न होगा, क्योंकि उनके मनमें अनेक कार्यतावच्छेदक धर्म होने मे नानाविध कार्यकारणभाव का स्वीकार करना आवश्यक बन जाता है।
जातीयवायु,संयोग स्वतन्त्र कारण है . मीमांसकदेशीय कांचन. । कोलाहलादि के काल में गव आदि का ज्ञान न होने पर भी शब्दत्व, इदन्च आदि रूप में रकारविशंप्यक प्रत्यक्ष की उपपनि के लिए तथा गकारआदि का गुणत्वादि और ककारभेद आदि रूप में श्रावण प्रत्यक्ष के उपपादनार्थ कुछ मीमांसकों का यह कथन है कि कोलाहल में गवादि रूप से गकागदि के प्रत्यक्ष की आपत्ति के वारणार्थ गत्वादिप्रकारक..