Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 161
________________ ६९.४ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड ३ का. १४ * तत्त्वचिन्तामणिकम्मतनिरासः युक्तचैतत् समवाय- समवेतसमवाययोः प्रत्यासतित्वाऽकल्पनलाघवात् । विषयतया मूर्तग्रत्यक्षत्वावच्विं प्रति समवायेनोद्भूतरूपस्य हेतुत्वान्न संयोगेन शब्दग्रहः सम्भवतीति चेत् ? न, एतल्लाघवबले नाऽपि द्रव्यचाक्षुषत्वस्यैवोद्भूतरूपकार्यतावच्छेदकत्वात् । ॐ जयलता युक्तचैतत् संयोगेन श्रोत्रस्य श्रावणप्रत्यक्षकारणत्वकल्पनम् शब्द- वाब्दत्वादिग्रहे समवाय समवेतसमवाययीः प्रत्यासत्तित्वाऽकल्पनलाघवादिति । स्याद्धादिनये शब्दस्य द्रव्यत्वेन द्रव्यप्रत्यक्षं प्रति क्लृप्तसंयोगप्रत्यासत्येव तद्ग्रहणोपपत्तिः द्रव्यसमवेतप्रत्यक्षं प्रति क्लृप्तसंयुक्तसमवायप्रत्यासत्त्यैव च शब्दत्वकत्वादिप्रत्यक्षसङ्गतिः, न तु शब्द शब्दत्वादिप्रत्यक्षानुरोधेन पृथकृप्रत्यासत्तित्वकल्पनमावश्यकम् । नैयायिकादिनये तु शब्दस्याम्वरगुणत्वेन विषयतया शब्दसाक्षात्कारं प्रति श्रोत्रस्य स्वसमवायेन शब्दत्वादिप्रत्यक्षं प्रति च स्वसमवेतसमवायेन कारणत्वमत्र कर्तव्यमिति गौरवम् । = ननु विपयतया = लौकिकविषयतासम्बन्धेन मूर्त्तप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं = मूर्त्तविषयकप्रत्यक्षमात्र वृत्तिर्वजात्यावच्छिन्नं प्रति समवायेन उद्भूतरूपस्य हेतुत्वात् पृथक्कारणत्वात् शब्दे चद्भुतरूपविरहात् न संयोगेन = श्रीसंयोगप्रत्यासत्त्या शब्दग्रहः ध्वनिप्रत्यक्षं सम्भवति । एवं लौकिकविषयतासंसर्गेण मूर्त्तसमवेतविषयकप्रत्यक्षमात्रवृनिवैजात्यावच्छिन्नं प्रति स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेनोद्भूतरूपस्य कारणत्वान्न श्रोत्रसंयुक्तसमवायेन शब्दत्व कत्वादिप्रत्यक्षं सम्भवति । आत्मात्मत्वादिप्रत्यक्षे व्यभिचारवारणाय 'मूर्ते' त्युपादानम् । ततः शब्द शब्दत्वादिप्रत्यक्षानुरोधेन समवायसमवेतसमवाययोः पृथक्प्रत्यासनित्वकल्पनमावश्यकमेव । तथा च न शब्दस्य द्रव्यत्वसिद्धिरिति नैयायिकाकूतम् । 1 = = - स्याद्वादी तन्निराकुरुते नेति । एतल्लाघवबलेन = समवाय समवेतसमवाययाः पृथकप्रत्यासत्तित्वाऽ कल्पनलाघवमहिम्ना. अपिशब्दात मूर्त्तप्रत्यक्षत्व भूतप्रत्यक्षत्वादिना विनिगमनाविरहपि बोध्यः । विषयतया द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रत्येव समवायनोभूतरूपस्य कारणत्वकल्पनेन द्रव्यचाक्षुषत्वस्यैव उद्धृतरूपकार्यतावच्छेदकत्वात् उद्भूतरूपत्वावच्छिन्नसमवायसम्बन्धवच्छिन्नोद्भूतरूपनिष्टकारणतानिरूपितलौकिकविषयतासम्बन्धावच्छिन्नकार्यतावच्छेदकत्वात् एवकारेण मूर्त्तप्रत्यक्षत्वादेः व्यवच्छेदः कृतः । युक्तञ्चतत्, अन्यथा वायुस्पार्शनप्रत्यक्षानुपपत्तेः, 'शीतं वायुं स्पृशामी' त्याद्यनुव्यवसायादेरेव बायो: प्रत्यक्षत्वसाधकत्वात् । न चासी भ्रमः बाधकाभावादिति पूर्वमुक्तमेव । एतेन वायुर्वेहिरिन्द्रियाऽप्रत्यक्षः नीरूपद्रव्यत्वादाकाशवदि' (न.चिं.प्र. ख. पू. ७५४) ति | तत्त्वचिन्तामणिकारोक्तं निराकृतम् । अत एव शब्दात्मकं द्रव्यं किमुद्भूतरूपवत उत तच्छून्यं | आये चक्षुर्ग्रहणयोग्यता स्यात् अन्त्ये बहिरिन्द्रियग्राह्यतानुपपत्तिः, बहिरिन्द्रियजन्यद्रव्यप्रत्यक्षं प्रति उद्भूतरूपस्य कारणत्वात् तत्र शब्दातिरिक्तत्यनिवेशे शब्दातिरिक्तत्व बहिर्द्रव्यत्वादीनां विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनाविरहेण कार्यकारणभावातन्त्र्यप्रसङ्गाच्च शब्दप्रत्यक्षं कारणान्तरकल्पने = से ही शब्द का एवं द्रव्यसमवेतविषयक प्रत्यक्ष में आवश्यक संयुक्तसमवायसम्बन्ध से ही शब्दत्व, कत्व आदि का श्रावण प्रत्यक्ष संभवित होने से शब्दप्रत्यक्ष के लिए श्रोत्रसमवाय एवं शब्दत्वादिप्रत्यक्ष के प्रति समवेतसमवायसम्बन्ध की कारणतावच्छेदकप्रत्यासत्तिविधया कल्पना करने की आवश्यकता न होने से शब्दद्रव्यपक्ष में लाघव भी है । उद्भारूप मूर्तप्रत्यक्ष का नहीं, द्रव्यचाक्षुष का कारण है - तयाद्धादी विषय । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि 'विपयतासम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाले मूर्तपदार्थविषयक प्रत्यक्ष के प्रति समवाय सम्बन्ध में उद्धृत रूप कारण होता है। मतलब कि उद्भुतरूपवाले मूर्त्त द्रव्य का ही प्रत्यक्ष हो सकता है। जिस मूर्त द्रव्य में उद्भूत रूप नहीं होता है उसका प्रत्यक्ष नहीं होता है जैसे कि इन्द्रिय, पिशाच आदि । शब्द में उद्भुत रूप स्याद्वादी को भी मान्य नहीं है । अतएव संयोग सम्बन्ध से शब्द का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । कारणान्तरविरह में कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती । अत: श्रोत्रसमवाय को ही शब्दप्रत्यक्षकारणता अवच्छेदक सम्बन्ध मानना जरूरी है, न कि श्रोत्रसंयोग को । फलत: शब्द भी गुणात्मक सिद्ध हो जायेगा' <- तो यह इसलिए निराधार हो जाता है कि उद्धृत रूप मूर्तप्रत्यक्ष का कारण नहीं है किन्तु द्रव्यविपयक चाप का ही कारण है, क्योंकि द्रव्यचानुपत्व ही उद्धृत रूप का कार्यताअवच्छेदक धर्म होता है, न कि मूर्त्तप्रत्यक्षत्व । इसका निर्णायक तो सन्दद्रव्यपक्ष में समदाय एवं समवेतसमवाय दो प्रत्यासति की कल्पना न करने का लाघव भी है। शब्द का जो प्रत्यक्ष होता है वह चाक्षुप नहीं अपितु श्रावण होता है । शब्दविषयक श्रावणप्रत्यक्ष तो उद्भूत रूप की कार्यताकोटि से बहिर्भूत है, क्योंकि उसमें उद्धृत रूप का कार्यता अवच्छेदक द्रव्यचाक्षुत्व ही नहीं रहता है । अत: श्रोत्रसंयोग सम्बन्ध से ही शब्द का साक्षात्कार होगा, न कि श्रोत्रसमवाय से इसलिए कारणतावच्छेदकीभूत

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