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* शन्दम्य द्रव्यत्व गौरवानवकाशः ** त्वायत्तेः। ततश्च शब्दोऽनुपरमानं परिसपत्येवेत्यवश्यं प्रतिपत्तव्यम। उक्तश्च-'यथा हिप्रेर्यते तूलमाकाशे मातरिश्वना । तथा शब्दोऽपि, किं वायो: प्रतीयं कोऽपि गच्छती'ति ।( )
जल शब्दस्य द्रव्यत्वे तदेकत्वत्वादिग्रहाय श्रोत्रसंयुक्तसमवेतसमवायस्य प्रत्यासत्तित्वे गौरवमिति चेत् ? , इन्द्रियसंयुक्तसमवेतसमवायस्यैव सामान्यतः प्रत्यासत्तित्वात, रूप
* जायलता * | अविशेषात् । पयनस्य शब्दगतक्रियानिमिनकरणत्वं तु न निवारयामः । अत्रैव संवादमाह - उक्तश्चेति । निगदसिद्धोऽयं श्लोकः ।
स्कन्धन्यस्तगिरित्वमनिलपुत्रे बदन्नयम । मरुतोऽनुलमामर्थ्य न प्रतिक्षेनुमर्हति ।।१।।
ननु शब्दस्य द्रव्यत्वे मति तदेकत्वत्वादिग्रहाय = शब्दनिष्टकत्वसत्र्यावृत्त्येकत्वत्वनातिप्रभृनिगोचरली किकसन्निकर्ष - अन्यसाक्षात्कारोपपादनकृन, श्रोत्रसंयुक्तसमवेतसमवायस्य पार्थक्येन प्रत्यासनित्व कल्पनीय गौरवम् । न्यायनय श्रोत्रसमवायन शब्दग्रहः, श्रीनसमवेत-समवायन शब्दत्वादिग्रहः, शब्दस्य गुणले तत्रैकत्वादिविरहेण न नंदकत्ववादिग्रहाय श्रोत्रसमवनसमवन - समवायादिप्रत्यासनिकल्पनम । ग्यदानिमतं तु तदर्थं श्रोसंयुक्तसमवेतसमवायस्य प्रत्यानित्यकल्पनारवमिति नन्त्राशयः ।
तन्निगकुरुते . नेति । द्वग्यसमवेतसमवंत प्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं प्रति इन्द्रियसंयुक्तसमवेतसमवायस्यैव सामान्यतः प्रत्यासत्तित्वात् न तु श्रीवभिन्नेन्द्रियसंयुक्तसमवतसमवायस्य, संकोचे मानाभारात, परमनं यावर्तकाभान व्यर्थविशेषणत्वात्, गोरखाच । तता घटगतकल्लनिकलत्वादिस्मार्शनं स्वसंयक्तसमवेनसमवायप्रन्यासन्या त्वगिन्द्रिोणोपजायते नव शब्दकलत्वादिसाक्षात्कार: स्वसंयुक्तसमवेन-सनवायप्रत्यासत्त्यैव श्रोत्रेण जन्पन इति न तदर्थं पृथकप्रत्यायनित्वकल्पनगौरवम् ।
ननु विषयतया द्रव्याकिकप्रत्यक्षत्वाव छिन्नं प्रति यद्वा द्रव्यनिष्ठलौकिकविषयतासम्बन्धेन प्रत्यक्षत्यावच्छिन्नं प्रति है?' 'पवनपुत्र हनुमानजी मारा का सारा पनत उठाकर ले चले' ऐसा माननेवाले आप नैयायिक महाशय 'पवन का कितना | अतुल बल होगा?' यह शांति से सोचिये । निष्कर्ष : शन्न की गति पवन के अनुमार होती है ।
शस्दत्यपक्ष में गौरव की आशा और परिहार ननु श. इति । शब्द को गुण न मान कर द्रव्य मानने में यह शंका हो कि → 'दाद को द्रव्य मानने पर शब्दगत एकत्व आदि संख्यास्वरूप गुण में रहनेवाली एकत्वत्व आदि जाति के साक्षात्कारापे श्रोत्रसंयुक्तसमवेनसमवाय नामक अतिरिक्त प्रत्यासनि = लौकिकसत्रिकर्ष की कल्पना करनी होगी। दखिय, प्रोत्रेन्द्रिय में संयुक्त शब्दद्रव्य, उसमें समवेत एकत्व आदि संख्या और उसमें समवेत होगा एकत्वत्व आदि । अतः एकत्वत्व आदि जाति में श्रोत्र इन्दिय स्वसंयुक्तसमवेतसमवायसम्बन्ध से रहेगी और वहाँ विपयतासम्बन्ध से एकत्यत्वादिसाक्षात्कार को उत्पन करेगी। मगर श्रोत्रसंयुक्तममचेतसमवाय नामक सत्रिकर्ष किसी भी पदार्थ के प्रत्यक्ष में आवश्यक = अवश्यक्लप्त नहीं है, क्योंकि उस प्रत्यासनि से अन्य किसी का लीफिक प्रत्यक्ष नहीं होता है। मगर शब्द को द्रव्य मानने वाले स्याद्वादी के मन में ही उक्त स्वतन्त्र मनिकर्ष की कल्पना करनी होगी, जो कि गौरवग्रस्त होने की वजह त्याज्य है । शन्द को गुण माननेवाले नैयायिक आदि के मतानुसार तो शब्द में एकत्य आदि संस्था, जो गुणात्मक होती है और उन्यमात्रवृत्ति होती है, ही नहीं रहती है। अतएव उनके मतानुसार तो शकत्वावजानि आदि ही अप्रसिद्ध होने की वजह उसके साक्षात्कार के लिए किमी अतिरिक्त सन्निकर्ष की कल्पना अनावश्यक होगी - तो यह इसलिए निराकृत हो जाती है कि गुणादिगन जाति के साक्षात्कार के प्रति सामान्यत: इन्द्रियसंयुक्तसमवेनसमवाय ही लौकिक सन्निकर्प बनता है, न कि वक्षुःसंयुक्नसमवेतसमवाय, स्पर्शनसंयुक्तसमवेतसमवाय, प्राणसंयुक्तसमवंतसमवाय आदि विशेष, क्योंकि तथाविध कल्पना करने में गौरव है और व्यतिरेक न्यभिचार भी प्रसस्त होना है। इस तरह विपयतासम्बन्ध से गुणादिसमवनजात्तिविषयक साक्षात्कार के प्रति इन्द्रियसंयुक्तसमवेतसमवाय ही लौकिकप्रत्यासनि है - यह उभयमसिद्ध = अवश्यकलप्त है। इसीसे शन्दैकत्वत्व आदि के साक्षात्कार की उपपत्ति हो जाती है, क्योंकि इन्द्रिय =थोत्र) से मंयुक्न = शन्न में समवंत = एकत्यादिसंख्या में एकत्वत्वादि समचत होने से स्वसंयुक्तसमवतसमरायसनिफर्य से श्रीत्रात्मक. इन्द्रिय शब्दकत्वत्वादि में रहती है, जहाँ विषयता सम्बन्ध में शन्दकत्वत्वादिप्रत्यक्ष उम्पन होता है। अतः शब्दद्रन्यपक्ष में दादकत्वस्वादिप्रत्यक्षानुरोध से अतिरिक्त प्रत्यासत्ति की कल्पना का गौरव अप्रसस्त है।
सद के ताक्षुष और सपार्सन | परिहा । रूगा. इति । यहाँ यह शङ्का हो कि > "रि शब्द को द्रव्य माना जाय एवं उसका लौकिक साक्षात्कार भी