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* न्यायभाग्यननत्यपांड: एवं सति शब्दो न स्पर्शशून्याश्रयः बहिरिन्द्रियमाद्यत्वे सति सामान्यतत्त्वाद रूपवदित्यनुमानमध्याहु: ।
का चल शब्दो न स्पर्शशून्याश्रयो बहिन्द्रियव्यवस्थापकत्वाद रूपवदित्याह । तदस, बहिरिन्द्रियव्यवस्थापकत्वं हि यत्किचिदबहिरिन्द्रियवृत्तिसामान्यधर्मावचिोमभेदव्याप्यर्बाहे
* जयलता एवं = शब्दाश्रयस्य पवित्व मिदं सति 'गली न स्पर्शशून्याश्रयः चाहगिन्द्रियग्राहावं सति सामान्यबत्त्वादिति । बहिरिन्द्रियग्राह्यत्वमनुपदानस्वम् बोध्यम् शब्दत्व-रूपत्वादी व्यभिचारचारणाय सामान्यवच्चादिति ग्रहणम । गगनपरिमागादी व्यभिचारधारणाय बहिरिन्द्रियग्राह्यत्वमित्युत्तम । ज्ञानादी व्यभिचारवारणाय बहिरित्युत्तम । आहः पूर्वाचार्य इति शेषः । ततश्च शब्द स्पर्शशून्याश्रयकत्वहताः स्वरूपासिद्धत्वमावदितं भवनि | पनन 'अगवान्नाश्रयस्य' (न्या.सू. २-२-२८ भा इति न्यायभाष्यकारवचनमणि निरस्तम् ।
कश्चित्तु इनि आइत्यनेनानाति । शब्दा न स्पर्शशून्याश्रय इति शन्ने गणित्या र पशिन्यासमवेनत्वसाधनाय हनुमान । बाहिरिन्द्रियव्यवस्थापकत्वादिति । त्यगिन्द्रियादिबहिन्द्रियगिन्नबाहिरिन्द्रियन्यिामकत्वादिति । दृष्टान्तमाह-रूपनदिनि । रूपस्य त्यगिन्द्रियादिभिन्नचक्षक्षणहिन्द्रियल्यव्यवस्थापकालेन यथा स्पर्शजन्यानाश्रयकत्वं नधा शब्दस्वामित्वमादिभित्रश्रांत्रात्मकबाहिरिन्द्रियलल्यवस्थापकत्वन म्पर्शशुन्याकाशानायकत्वं विध्यतीति नान्गाचे शब्द द्रव्यत्ववादिनः करयचित ।
तत्र प्रकरणकार आह- तदसादिति । बहिन्द्रिय कलमबहिरिन्द्रियातिरिकत्यनियामकल्यन शब्द स्पर्शगन्यानायकत्वमाधनं न राम्पगित्यर्थः । तदेव सानिमाह बहिरिन्द्रियव्यवस्थापकत्वं हि यत्किभिदवाहिरिन्द्रियनिसामान्यधर्मावच्छिन्न
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| गचं, । इमलिए तो प्राचीन जैनाचारों ने भी पमा अनुमानप्रयोग बताया है कि -> 'शब्द स्पर्शशुन्यद्रव्य में आश्रित नहीं है, क्योंकि रहिरिन्द्रियग्राख होते हुए वह सामान्यवान (=जातिमान) है, जैसे रुप । कप बहिरिन्द्रिय चक्षु में ग्राहा है पर्व रूपत्वजाति का भाश्रय है, अतएन उसका आश्रय पुस्थी, जल, नेज आदि इय्य पांचाला होता है । ठीक वैसे ही शाद भी रहिरिन्द्रिय श्रोत्र से ग्राहा है एवं सामन्य जाति का आश्रय है, अतएन झन का आश्रय दाब्दसमचाथिवारण = शब्दापादानकारण भापावर्गणा भी म्पर्शचाली सिद्ध होती है । अतः शब्द में स्पर्शदाधितत्व की सिद्धि निराध है' । इससे भी दान में पौदुगलिकन्च = पुद्गलपरिणानव की मिद्धि सूचत होती है, क्योंकि स्पा पुद्गल का ही थर है एवं शब्द के उपादान कारण में सर्ग अभे सिद्ध किया गया है . यह प्रकरणकार श्रीमदजी का तात्पर्य है।
पहिरिट्रियायपस्यापार प्रदान कश्चि । यहाँ किसी विद्वान का यह कथन है कि -- 'शन स्पर्शशून्य में आश्रित नहीं है, क्योंकि वह बहिरिन्द्रियव्यवस्थापक है । जैसे रूप चक्षुनामक पहिन्द्रिय का नगिन्द्रियानि में अतिरिक्त बाह्य इन्द्रिययन साधक : ज्यवस्थापक होने से स्पर्शशून्य में आश्रित नहीं है ठीक वैस ही शन भी आंचनामक बहिरिन्द्रिय का त्यगिन्द्रियादि में अतिरिक्त बहिरिन्द्रियन्वन यवस्थापक होने से स्पर्शशून्य में आश्रित नहीं हो सकता, गन का आथय : उपादानकारण पर्यन्य सिद्ध नहीं हो सकता। इस तरह भी शब्द में स्पर्शगुन्याश्रितत्व हेतु स्वरूपा सिद्ध हो जाना है' - मगर प्रकरणकार श्रीमदजी कहते हैं कि उपर्युक्त कधन समीचीन नहीं है, क्योंकि बाहिगिन्द्रिय का व्यवस्थापकन्न ती रूपन्यादि में व्यभिचारी है अर्थात रूपत्वादि में बहिरिन्द्रियव्यत्रग्यापकत्व हेतु रहने पर स्पर्शशून्यानाश्रयकावात्मक बाध्य नहीं रहता है । इसके पहले यह समझना जरूरी है कि बहिरिन्दिय. व्यवस्थापकत्व क्या है ? बहिरिन्द्रियव्यवस्थापकत्व का मजल्य है. पन किनिन बहिरिन्द्रिय के विषय में रहनेवाले सामान्य धर्म से अवच्छिन्न प्रतियोगिताक भंद का व्याप्य रोना बहिरिन्द्रियजन्यप्रत्यक्षस्यरूपयांग्यत्व । यह तो म्पादि की भाँति रूपत्यादि में भी रहता है, क्योंकि प्राणन्द्रिविषय सौरभ भादि में रहनेवाले गन्धत्वात्मक मामान्यधर्म सं भवचिन्नपनियोगिनाक भेन का व्याप्य ऐसा चक्षुजन्यप्रत्यक्षविषयत्न म्पादि की गाँति रूपवाटि में भी रहता है। मगर रूपादि में ही स्पर्शशून्यानाश्रयकर है. न कि रूपत्वादि में, क्योंकि रूपत्वारि के आश्रय रूपादि स्पर्शशुन्य ही हैं। इस तरह रूपत्वादि में विवक्षित हेनु रहन पर भी स्पर्शशुन्यनिरूपिनसमवायसम्बन्धावच्छिन्नत्रित्वाभान नहीं रहने में हतु में स्पष्ट ही व्यभिचार. दोष है । अतएव उममे शन में स्पर्शगुन्यानाश्रयकत्वस्वरूप साध्य की सिद्धि नहीं की जा मकली। इसके अतिरिक्त दोप यह है कि हतु का 'यत्किनिहि रिन्द्रियविषयवृत्तिसामान्यधर्मावच्छिन्नभदन्याप्य' ऐसा विशेषण व्यभिचाग्वारक न होने में व्यर्थ हो जाता है जिसव. फलग्नस्य