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५८६ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः ३ . का.११ *लाभरिपनिमनप्रकादानम *
शब्दाश्रय: स्पर्शवान बहिरिन्द्रियार्थाधारत्वात्पृथिव्यादिवदित्यायाः, ! एक स्पर्शवदनारभ्यत्वेन जन्यद्रव्यत्वाभावसाधनमप्यस्य परास्तम्, तवाऽपि विजातीयद्रव्यत्वेन जन्यद्रव्यजनकत्वमित्यस्याऽन्धकारखादे व्यवस्थापितत्वाच्च ।।
- आयलता शल्दाश्रयः - रातोपादानकारणीभून स्पर्शचान बहिरिन्दियार्थाधारत्वान = बाहिरिन्द्रियग्राहासमवायिकारणत्वात. पृधिच्यादिवदिति । बहिरिन्द्रियग्राह्यत्वचन बहिरिन्द्रियजन्यलीकिकपत्यक्षस्यमपयोन्यरूप वध्यम, नेन 'ज्ञानो घट' इतिप्रत्यक्षे ज्ञानस्याऽप्युपनीतभानविषयवानरत्यात्मनि ननिकान्तिकत्वम, न वा केना प्यगृहातगच्दाश्रये हेता भांगामिद्धिः तस्यापि स्वरूपयोग्यत्वात् । यद्यगि स्वमते मनसो नोइन्द्रियन्वेन बहिः पदमननिप्रगजनं तचापि परमतं मनस इन्द्रियत्वान्मानमविषयज्ञानादिसमवायिकारण आत्मनि व्यभिचारवारणाय तस्य सार्थकत्वनित्यादि विभावनायम् । आहः प्राञ्चो जनाचार्या रत्नप्रभरिप्रभृतय इति गम्मत ।
ननु शब्दो न जन्यदन्यं स्पर्शबदनार न्यत्यादिन्यनुमाने जाग्रति तस्य पाद्गलिकत्यं कर्य सिद्धमित्याशकामयाकरोनि - अत एव = शब्दसमयकारणम्योक्तानुमानेन स्पर्शवचसिद्रत्वादव, अस्पाग्रे परास्तमित्यननान्चयः । शब्दाश्रयः स्पर्शवानित्यनुमानन 'सावदनारभ्यत्वस्य हेनोः स्वरूपासिदत्वमावदिनन् । किञ्च म्पर्शबदारभ्यत्त्वे बाधित शब्दय स्पर्शवननाग्भ्यन्वसिद्धिः । पर तादावाध एव नास्ति । अरनु वा यथाकश्चि-छन्द म्प बदनारभ्यलं तथापि झन्द जन्य द्रव्यत्वाभावः कथं मिमध्येन् ? न हिमवत्समवेतन जन्यद्रव्यत्वव्यापकं येन तदभावात्तदभावसिद्धिः स्यात् । न च म्पर्शवत्वस्यैव जन्यद्रव्यममबायिकारणतावच्छेदकत्वान्छब्दसमवायिकारणीभूत आकशे स्पर्शविरहान्न शब्दस्य जन्ययानिनि वाच्यम्, तब = नैयायिकस्य अपि विजातीयद्रव्यत्वेन जन्यद्रव्यजनकत्वं न न पवन इत्यस्य पूर्व (पृष्ठ ८) पश्चमकारकाविवरणं अन्धकारवाद व्यवस्थापितत्वाच । नदन पूर्व नत्र 'अनन्तानलस्पर्शकल्पनामपक्ष्य लघुत कजातिविशेषकल्पनाया पयोचितत्वात' इति । नभनेगायिकमनानुरोधनामि "जातिविशेष एव द्रव्यारा-कतायछन कत्वेना भ्यायः स च तमम्पपि सन्भवती'त्युपपादितं पूर्व नत्रत्र । ततश्च नमः-शन्दवर्गणा-प्रभोद्योन-छायाऽन्तप-धिना- जल-तेजःप्रतिदन्यसाधारणं जात्यमेव जन्यद्रव्ययमवाणिकारणताछेदकमिति में शब्दस्य जन्यध्यत्ववाय इति पदार्थः । एतेन इन्दम्य जन्यदन्यत्वं स्पर्शवदनयबारभ्यत्व म्यान. स्पर्शवदनन्त्याववित्वस्य द्रल्यारम्भकतावच्छेदकवादित्यपि निराकृतम्, तत्र स्पविन्यस्यष्टवान् । वस्तुतस्तु भेन पण मारम्भकत्वं मार्शवत्वादर्विशेषणविशेष्यमा चिनिगमनाचिरहन, अन्न्त्यावविवरः व्यसमवायिकारणत्वपर्यवमिनस्य कारणतानयच्छंदकत्याचेत्यादिकं पूर्वो कमिहानुसन्धेयम् (गृ. ३.८१) ।
शब्दा, । अन्य विद्वानों का यह कथन है कि 'शब्द के आश्रय में स्पर्श है, क्योंकि वह पहिरिन्द्रिय अर्थ । शन्द) का आधार है । जो बहिरिन्दियग्राह्य विषय का आधार होता है वह स्पर्शवाला होता है, जैसे पृथ्वी आदि । बहिरिन्द्रिय = प्राण से ग्राह्य गन्ध आदि का आधार होने पर एची आदि में जैसे स्पर्श रहता है दीक वैसे ही बहिरिन्द्रिय = आंत्र में ग्राह्य शब्दात्मक परिणाम का आधार होने से भापावर्गणा में पर्श सिद्ध होता है । इसलिए यहाँ यह नैयायिकवक्तव्य कि --> 'शब्द स्पर्शचद् द्रव्य से अनारब्ध होने की वजह जन्य द्रव्य नहीं हो सकता है । जो स्पर्शवमून्य से आरब्ध नहीं होता है वह जन्य द्रव्य नहीं हो सकता है जैसे कि वर्ण, गन्ध, आत्मा, आकाश आदि । शब्द का आरम्भ भी स्पर्शशुन्य आकाश से होने में शन में स्पर्शवदनारभ्यत्त्व रहता है, जिससे शब्द में जन्यद्रव्यत्व का अभाव सिद्ध होता है 1 शब्द में जन्यद्रव्यत्व का अभाव मिद्ध होने से स्याहादी को अभिमत जन्यद्रव्यन्व शब्द में बाधित या सत्प्रतिपक्षित हो जायेगा' <<- भी इसलिए निराकृत हो जाता है कि रहिरिन्द्रियग्राह्यविषयाधारत्व हेतु से गन्दायय में स्पर्श सिद्ध हो जाने में दान में स्पर्शवदनारभ्यत्व हुन ही स्वरूपाऽसिद्ध हो जाना है, तब उससे कसे वाद में जन्यदन्यत्वाभाव की सिद्धि हो मकती है? दूसरी बात यह है कि जन्य इल्य का कारणताअवच्छंटक नैयायिकमत में भी विजानीयद्रव्यत्य ही है, न कि स्पर्शवदारभ्यत्व (जो अन्धकारजनक पुद्गल में भी एवं शब्दजनक भाषावर्गगा में भी रह सकता है।- यह तो पहले (देग्विय पृष्ठ-५८२) अन्धकारबाद में प्रमाण से सिद्ध हो चुका है, नय 'स्पर्शवदनाग्भ्यत्व होने की वजह शान में जन्यद्रव्यत्वाभाव रहेगा' यह कसे कहा जा सकता है ? बन्द के जनक भाषावर्गणा में जन्यद्रव्यकारणतावदक विजातीयद्रगन्यत्व रह सकता है नब जन्यद्रज्यकारणाला. वच्छंदकवैजात्यावच्छिन्न (= भापावर्गणा) से जन्य शब्द में जन्यन्यत्व की सिद्धि भी निराबाध है. यह फलित होना है।